सुप्रभातम् : पाप का मूल कारण है यह…, इससे बचें

लोभ पाप का कारण होता है यह न सिर्फ बुद्वि को नष्ट कर देता है, बल्कि मानव को पशु जैसा बना देता है।

Uttarakhand

हिमशिखर खबर ब्यूरो।

टीवी और समाचार चैनलों पर ठगी जैसे मामलों की चर्चा सुनने को मिलती रहती है। किसी को धन दुगुना-तिगुना करने के नाम पर ठगा जाता है, तो किसी को नौकरी दिलाने के नाम पर । किसी को अस्पताल में कारगर इलाज के नाम पर ठगा जाता है, तो किसी को सरकारी दस्तावेज बनाने के नाम पर, इत्यादि । कई नादान लोग बेवकूफ बनते हैं, तो कुछ गिने-चुने शातिर लोग बेवकूफ बना रहे होते हैं ।

इस प्रकार की घटनाओं के पीछे लोभ एक, कदाचित् एकमेव, कारण रहता है ऐसी मेरी मान्यता है । लोभ ही है जो व्यक्ति को उचितानुचित का विचार त्यागकर धनसंपदा अर्जित करने को प्रेरित करता है । यह तो ठगी करने वाले की बात हुई । दूसरी तरफ लोभ ही है जो किसी व्यक्ति को ठगी करने वाले के द्वारा किए जा रहे दावे पर विश्वास करने को बाध्य करता है । गंभीरता से विचार करने और वस्तुस्थिति की पर्याप्त जानकारी हासिल किये बिना ही वह झांसे में आ जाता है ।

शिक्षाप्रद लघुकथाओं के संग्रह ‘हितोपदेश’ ग्रंथ में लोभ के बारे में कहा गया हैः

लोभात्क्रोधः प्रभवति लोभात्कामः प्रजायते ।

लोभान्मोहश्च नाशश्च लोभः पापस्य कारणम् ।।

अर्थात् लोभ से क्रोध का भाव उपजता है, लोभ से कामना या इच्छा जागृत होती है, लोभ से ही व्यक्ति मोहित हो जाता है, यानी विवेक खो बैठता है, और वही व्यक्ति के नाश का कारण बनता है । वस्तुतः लोभ समस्त पाप का कारण है ।

इसके अतिरिक्त यह भी कहा गया हैः

लोभेन बुद्धिश्चलति लोभो जनयते तृषाम् ।

तृषार्तो दुःखमाप्नोति परत्रेह च मानवः ।।

अर्थात् लोभ से बुद्धि विचलित हो जाती है, लोभ सरलता से न बुझने वाली तृष्णा को जन्म देता है । जो तृष्णा से ग्रस्त होता है वह दुःख का भागीदार बनता है, इस लोक में और परलोक में भी।

ग्रंथ में अन्यत्र यह वचन भी पढ़ने को मिलता हैः

यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवाणि निषेवते ।

ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ते अध्रुवं नष्टमेव हि ।।

अर्थात् जो व्यक्ति ध्रुव यानी जो सुनिश्चित् है उसकी अनदेखी करके उस वस्तु के पीछे भागता है जो अनिश्चित् हो, तो अनिष्ट होना ही है । निश्चित् को भी वह खो बैठता है और अनिश्चित् का ता पहले से ही कोई भरोसा नहीं रहता है । ठगी के मामलों में फंसे लोगों के बारे में यह पूर्णतः लागू होता । जिस जमा-पूंजी को निश्चित् तौर पर वे अपना कह सकते हैं उसको जब बिना सोचे-समझे वे दांव पर लगा दें, तो उससे वे हाथ धो बैठते हैं, और बदले में वांछित फल पाते नहीं हैं ।

इतना सब कहने का तात्पर्य यह है कि अविलंब अपनी धनसंपदा को दुगुना-तिगुना करने की चाहत से व्यक्ति को बचना चाहिए और उसे यह समझने का प्रयास करना चाहिए कि कोई व्यक्ति कैसे धनवृद्धि के अपने अविश्वसनीय दावे को सफल कर सकता है ।

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