फूल देई 14 को: लोकपर्व फूलदेई पर घरों की देहरी में बच्चे डालेंगे रंग-बिरंगे फूल

हिमशिखर खबर ब्यूरो

Uttarakhand

नई टिहरी। फूल देई, छम्मा देई, देणी द्वार, भर भकार…जैसे मांगल गीतों के साथ प्रकृति देवी को आभार प्रकट करने का लोक पर्व है फूल संक्रांति। फूल देई बच्चों को प्रकृति प्रेम की शिक्षा बचपन से ही देने का एक आध्यात्मिक पर्व भी है। 14   माह तक बच्चे घरों और मंदिरों की देहरी पर रंग-बिरंगे फूलों को बिखरेंगे। वहीं शहर-गांवों में बच्चों में इसका क्रेज कम होने लगा है।

 

Uttarakhand
Uttarakhand

यूं तो भारतीय सनातन संस्कृति में प्रत्येक संक्रांति को पर्व के रूप में मनाया जाता है। लेकिन चैत्र संक्रांति के दिन प्रकृति संरक्षण को समर्पित फूलदेई का पर्व मनाए जाने की परम्परा है। फूलों का यह पर्व पूरे मास तक चलकर वैशाखी के दिन समाप्त होता है। प्रकृति को देवी के रूप में पूजनीय बताया गया है। जिसका मुख्य उद्देश्य निश्चित रूप से मानव को प्रकृति के साथ आत्मीयता बढ़ाकर उसका संरक्षण करना है। चैत की संक्रांति यानी फूल संक्रांति से शुरू होकर इस पूरे महीने घरों की देहरी पर फूल डाले जाते हैं। इसी को गढ़वाल में फूल संग्राद और कुमाऊं में फूलदेई पर्व कहा जाता है। फूल डालने वाले बच्चे फुलारी कहलाते हैं। फूलदेई संक्रांति पर नगर और गांव के बच्चे सुबह उठकर खेत-खलिहानों के आस-पास उगे हुए रंगीन फूल चुनकर लाते हैं और सूर्योदय से पूर्व उन्हें अपने घर की देहरी में डालते हैं। इस दौरान बच्चे गांव और मोहल्ले की ओर निकलकर ‘फूल देई-फूल देई छम्मा देई दैणी द्वार भर भकार यो देई सौं बारंबार नमस्कार’ गीत गाते हुए आस-पास के घरों और मंदिरों की देहरी यानी मुख्य द्वार पर फूल बिखेरते हैं। इसके बदले में लोग बच्चों को आशीर्वाद के साथ ही भेंट के रूप में मिठाई और दक्षिणा देते हैं। फूलदेई उत्सव बच्चों का प्रमुख त्यौहार में शामिल है। यह मौल्यार (बसंत) का भी पर्व है। इन दिनों उत्तराखंड में फूलों की चादर बिछी दिखती है। बच्चे कंडी (टोकरी) में खेतों-जंगलों से फूल चुनकर लाते हैं और सुबह-सुबह पहले मंदिर में और फिर हर घर की देहरी पर रखकर जाते हैं। माना जाता है कि घर के द्वार पर फूल डालकर ईश्वर भी प्रसन्न होंगे और वहां आकर खुशियां बरसाएंगे। इस पर्व की झलक लोकगीतों में भी दिखती है। फुल्यारी गीत में फुलारी को सावधान करते हुए कहा गया है-
चला फुलारी फूलों को,
सौदा-सौदा फूल बिरौला
भौंरों का जूठा फूल ना तोड्यां
म्वारर्यूं का जूठा फूल ना लैयां।
पूर्व में चैत्रमास शुरू होते ही गांवों में फूलदेई उत्सव एवं वसंत का आगमन बड़े धूमधाम से होता था, लेकिन अब शहर- गांवों में बच्चों में इसका क्रेज कम हुआ है। अब इस त्यौहार को मनाने का ढ़ंग पहले जैसा नहीं रहा है। इस त्योहार के संरक्षण के लिए सभी को आगे आने की जरूरत है। जिससे भावी पीढी भी इससे रूबरू हो सके।
खास बात यह है कि
सूर्य उगने से पहले फूल लाने की परंपरा है। इसके पीछे वैज्ञानिक दृष्टिकोण है, क्योंकि सूर्य निकलने पर भंवरे फूलों पर मंडराने लगते हैं, जिसके बाद परागण एक फूल से दूसरे फूल में पहुंच जाते हैं ।

Uttarakhand

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *