उत्तराखंड में धर्मशालाओं को शुरू करने वाले ‘काली कमली वाले बाबा’

काली कमली वाले बाबा को उत्तराखण्ड के चार धाम यात्रा के रास्तों पर धर्मशालाओं के निर्माण के लिए विशेष तौर पर याद किया जाता है। पहले इन्हें श्री 1008 स्वामी विशुद्धानंद जी महाराज काली कमली वाले बाबा के नाम से जाना जाता था। स्वामी विशुद्धानंद ने तीन दशक तक मानव सेवा का कार्य किया। 1937 में उन्होंने ऋषिकेश में धार्मिक व परोपकारिणी संस्था ‘काली कमली वाला पंचायत क्षेत्र’ की स्थापना की। इस क्षेत्र द्वारा ऋषिकेश, उत्तरकाशी, बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री आदि स्थानों पर प्रतिदिन जरुरतमंदों को भोजन कराया जाता है। 

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हिमशिखर धर्म डेस्क

ऋषिकेश से चारधाम पैदल यात्रा पर जाने वाले श्रद्धालुओं के लिए गंगा तट के पास साल 1880 में सबसे पहली बार प्याऊ की व्यवस्था बाबा काली कमली उर्फ स्वामी विशुद्धानन्द ने की थी. इसके कुछ सालों बाद बाबा काली कमली ने हरिद्वार से लेकर उत्तराखंड के चारों धामों तक हर 9 मील की दूरी पर पैदल यात्रियों के लिए एक चट्टी का निर्माण करवाया, जहां श्रद्धालुओं को फ्री में कच्चा राशन मिलता है. इस राशन को यात्री पकाकर खाते हैं और विश्राम कर आगे की यात्रा शुरू करते हैं. इसके बाद यात्रियों के लिए यात्रा के मुख्य पड़ावों पर काली कमली धर्मशाला की भी शुरुआत की गई.

बाबा काली कमली वाले.काली कमली धर्मशाला यात्रा सीजन के दौरान देश-विदेश से पहुंचे श्रद्धालुओं की सभी व्यवस्था करने के भूखे लोगों और साधु-संतों को रोज भोजन करवाता है. ऑफ सीजन में भी यहां हर दिन संत साधुओं सहित भूखे लोगों के लिए लंगर लगता है. इसके अलावा चट्टियों में मुफ्त अन्नक्षेत्र की व्यवस्था भी साधु-संतों के लिए अकसर रहती है. फिलहाल चारधाम यात्रा के सभी रास्तों पर 17 मुख्य काली कमली धर्मशाला हैं. इसके अलावा 9 मील की दूरी पर स्थित चट्टियां अभी भी अस्तित्व में हैं.

 

काली कम्बली वाले बाबा का जन्म पकिस्तान के गुजरांवाला क्षेत्र के कोंकणा नामक गाँव में हुआ था।इनका परिवार भिल्लांगण शैव सम्प्रदाय से ताल्लुक रखता था। ये लोग भगवान शिव की तरह काला कम्बल धारण किया करते थे।

इन्हें श्री 1008 स्वामी विशुद्धानंद जी महाराज काली कमली वाले बाबा के नाम से जाना जाता था। पहली दफा हरिद्वार आये तो इनके मन में सन्यासी बनने की इच्छा बलवती हो गयी। इन्होंने अपने घरवालों के सामने अपनी यह इच्छा जाहिर की तो उन्होंने इसकी अनुमति नहीं दी। लेकिन इसके कुछ समय बाद ये बनारस पहुँच गए और वहां पर स्वामी शंकरानंद से संन्यास दीक्षा लेकर स्वामी विशुद्धानंद बन गए।

एक दिन अपने गुरु जी से आज्ञा लेकर विशुद्धानंद उत्तराखण्ड की चार धाम यात्रा के लिए निकल पड़े। अपनी इस यात्रा में इन्होंने देखा कि तीर्थ यात्रियों और साधु-संतों आदि के भोजन, पेयजल, आवास और चिकित्सा की कोई सुविधा नहीं है। इस वजह से तीर्थ यात्रा और भी ज्यादा कठिन हो जाती है। विशुद्धानंद ने पूरे देश की यात्रा शुरू की। उन्होंने धार्मिक लोगों से यात्रा मार्ग के लिए संसाधन जुटाने का आह्वान किया।

इनकी प्रेरणा से चारधाम यात्रियों के लिए सुविधाएँ और साधन जुटने शुरू हो गए, काली कमली बाबा के नाम पर हिमालयी नदियों पर पुलों का निर्माण किया जाने लगा। श्रद्धालुओं के लिए साधन जुटना शुरू हो गए।

कुंभ मेला प्रयागराज में परम गुरुदेव गंगा किनारे कालीकम्बली बाबा के पास मिलने गए थे। उन्होंने परम गुरुदेव को आदरपूर्वक आसन पर बैठाया। बातें कुछ विशेष नहीं की, चुपचाप देखते रहे। काली कंबली बाबा देखने में 25 वर्ष के लगते थे लेकिन आयु से ये बहुत वृद्ध थे। उस समय 120 वर्ष की आयु पार कर ली थी। कायाकल्प करने से देह एक ही अवस्था में है। ये बदरिकाश्रम से बहुत दूर हिमालय के अत्यंत निर्जन स्थान बरफान क्षेत्र में रहते थे। जब नीचे आते थे, तब अनेक धनवान लोग इन्हें लाखों – लाखों रुपये प्रणामी देते थे। उससे वे दुर्गम पहाड़ों पर यातायात का मार्ग तैयार करवाते थे, धर्मशाला बनवाते एवं लोकहित के विविध कार्य किया करते। स्वयं का किसी प्रकार का आडंबर नहीं था। केवल एक साधारण काला कंबल ओढ़े रहते। प्रायः ही मौन रहते। काली कम्बली बाबा कैलाश यात्रा के लिए निकले जिसके बाद से इन्हें नहीं देखा गया है।

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इनके बारे में कहा जाता है कि इनका जन्म 1831 में पकिस्तान के गुजरांवाला क्षेत्र के कोंकणा नामक गाँव में हुआ था. इनका परिवार भिल्लांगण शैव सम्प्रदाय से ताल्लुक रखता था. ये लोग भगवान शिव की तरह काला कम्बल धारण किया करते थे.

 

ऋषिकेश से चारधाम पैदल यात्रा पर जाने वाले श्रद्धालुओं के लिए गंगा तट के पास साल 1880 में सबसे पहली बार प्याऊ की व्यवस्था बाबा काली कमली उर्फ स्वामी विशुद्धानन्द ने की थी. इसके कुछ सालों बाद बाबा काली कमली ने हरिद्वार से लेकर उत्तराखंड के चारों धामों तक हर 9 मील की दूरी पर पैदल यात्रियों के लिए एक चट्टी का निर्माण करवाया, जहां श्रद्धालुओं को फ्री में कच्चा राशन मिलता है. इस राशन को यात्री पकाकर खाते हैं और विश्राम कर आगे की यात्रा शुरू करते हैं. इसके बाद यात्रियों के लिए यात्रा के मुख्य पड़ावों पर काली कमली धर्मशाला की भी शुरुआत की गई.

बाबा काली कमली वाले.काली कमली धर्मशाला यात्रा सीजन के दौरान देश-विदेश से पहुंचे श्रद्धालुओं की सभी व्यवस्था करने के भूखे लोगों और साधु-संतों को रोज भोजन करवाता है. ऑफ सीजन में भी यहां हर दिन संत साधुओं सहित भूखे लोगों के लिए लंगर लगता है. इसके अलावा चट्टियों में मुफ्त अन्नक्षेत्र की व्यवस्था भी साधु-संतों के लिए अकसर रहती है. फिलहाल चारधाम यात्रा के सभी रास्तों पर 17 मुख्य काली कमली धर्मशाला हैं. इसके अलावा 9 मील की दूरी पर स्थित चट्टियां अभी भी अस्तित्व में हैं.

बाबा काली कमली कैसे पड़ा नाम

स्वामी विशुद्धानन्द महाराज बाबा काली कमली के नाम से भी जाने जाते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि वो काला कंबल ओढ़े शंकरानन्द से दीक्षा लेकर काशी से हरिद्वार आये थे. यहां से उन्होंने पूरे उत्तराखंड की यात्रा शुरू की, साथ ही यहां की विषम परिस्थितियों को करीब से जाना. तब उनके मन में आया कि जो साधु-महात्मा और यात्री चारों धामों की यात्रा पर आते हैं उनके लिए जीवन समर्पित किया जाना चाहिए.

श्रद्धालुओं के लिए किया जीवन समर्पित

बाबा काली कमली ने जैसे ही चारधाम श्रद्धालु और साधु संतों की सेवा के लिए जीवन समर्पित करने की सोची तो साल 1880 में ऋषिकेश में गंगा किनारे एक प्याऊ की व्यवस्था की. इसके बाद बाबा काली कमली ने पूरे भारतवर्ष की यात्रा कर लोगों का ध्यान उत्तराखंड की ओर खींचा. इसके चार साल बाद उन्होंने ऋषिकेश में अन्न क्षेत्र की स्थापना की, जो आजतक चल रहा है. बाबा काली कमली संस्था का पंजीकरण 23 जनवरी 1927 को हुआ था. इन्होंने अपना पहला कार्यालय कलकत्ता में खोला था, जो आज भी सक्रिय है.1953 में विशुद्धानंद कैलाश यात्रा के लिए निकले जिसके बाद से इन्हें नहीं देखा गया है.

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एक प्याऊ के साथ शुरू हुआ बाबा काली कमली का सार्थक प्रयास आज एक बड़े वट वृक्ष की तरह फैल गया है. हरिद्वार से लेकर चारधाम यात्रा के मुख्य पड़ावों पर काली कमली धर्मशाला मौजूद हैं. यहां हर वर्ष चारधाम यात्रा के दौरान हजारों श्रद्धालु रुकते हैं. साथ ही चारधाम यात्रा पर निकले साधु संतों को ऋषिकेश से एक पर्ची दी जाती है, जिस पर्ची के आधार पर हर 9 मील पर स्थित बाबा काली कमली के अन्नक्षेत्रों में पैदल यात्रियों के लिए भोजन व्यवस्था की जाती है. साथ ही सभी मुख्य धर्मशालाओं में प्रत्येक दिन साधु संतों और भूखे लोगों के लिए अन्नक्षेत्र की व्यवस्था की जाती है.

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