हिमशिखर खबर ब्यूरो
इस दौर में हम वापस कुदरत की शरण में जाकर कभी प्राकृतिक चिकित्सा, तो कभी प्राकृतिक खेती या जैविक खेती की ओर बढ़ते हुए स्वास्थ्य को लेकर सजग हो रहे हैं तथा जड़ी-बूटी वनस्पतियों का उपयोग बढ़ा रहे हैं। तब क्या ऐसा नहीं लगता कि प्रकृति के मूल स्वरूप, जो उसका सौंदर्य भी है, को अपने स्वार्थ के लिए नष्ट-भ्रष्ट कर, विरूपित कर उसके साथ ज्यादती कर रहे हैं?
अक्सर बेमौसम तेज गर्मी या बेलगाम बारिश को जलवायु परिवर्तन से जोड़ कर देखा जाता है, तो प्रचंड गर्मी के मौसम में जबरदस्त बारिश और कंपकपा देने वाली सर्दी भी इन्हीं वजहों से बताई जाती है। आगे चलकर शायद यह सोच भी बदले, क्योंकि मौसम में अभी जो परिवर्तन दिखा, वह काफी अलग था और इतना कि तमाम वैज्ञानिक कारणों और धारणाओं से मेल भी नहीं खाता।
इसी फरवरी में देश के कई शहरों में वर्षों के बाद अप्रैल जैसी गर्मी और मई जैसी तपन का अहसास हुआ। वहीं ठीक उलट अप्रैल के दूसरे पखवाड़े में गर्मी के तेवर सख्त होते-होते ऐसे टूटे कि आखिरी हफ्ते से लेकर अब तक मौसम ने यों करवट बदला कि मानसूनी बारिश को भी धता बता दिया। वनस्पतियां तक मौसम से गच्चा खा गईं और दलदली जगहों पर सर्द दिनों की काली हल्दी मई में, वह भी छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जैसे गर्म इलाके में, फूल उठी।
वहीं परंपरागत खेतीबाड़ी पर असर के चलते बेमौसम की यह बारिश चार से पांच दिन पहले बोई गई दलहनी फसलों के लिए भी बेहद हानिकारक है। आगे अप्रैल के आखिर और मई के शुरुआती दौर से जारी बारिश अगर कीर्तिमान भी बन जाए, तो हैरानी की बात नहीं। वैज्ञानिक मान रहे हैं कि यह दौर मई के दूसरे पखवाड़े तक जारी रहेगा।
लेकिन मौसम को लेकर अब तक कभी कोई सटीक भविष्यवाणी या संभावनाएं शत-प्रतिशत परिणाम में बदली हों, ऐसा दिखा नहीं। हो सकता है कि कुछ ही दिनों बाद मई की गर्मी अपना रंग दिखाने लगे? बहरहाल, इतना जरूर है कि लाख वैज्ञानिक उपलब्धियां, शोध, यंत्र, वेधशालाएं, उपग्रह सब कुछ अपने-अपने काम पर लगे हैं, लेकिन तुनकमिजाज मौसम अक्सर इन्हें झुठला देता है।इस बार अप्रैल के आखिर और मई की शुरुआत से ही ऐसा दिखा। मौसम का यह मिजाज सारे किंतु-परंतु से अलग दिखता है, जिस पर भविष्यवाणियां भी प्राय: बेमानी सिद्ध होती हैं।
चाहे दक्षिण भारत हो या पूर्वी, मध्य या फिर उत्तरी हो, लगभग हर कहीं मौसम का यह मस्तमौला-सा बदला रुख सामने आया। लगभग सभी जगह तापमान सामान्य से दस-बारह डिग्री की जबरदस्त गिरावट के साथ कार्तिक-सा सुकून देने वाला बना हुआ है। पहाड़ों में बर्फबारी तो मैदानी इलाकों में जबरदस्त आंधी, बारिश और ओला वृष्टि हुई, जिससे मौसमी फसलों को अप्रत्याशित नुकसान भी बहुत ज्यादा हुआ।
वैज्ञानिक इस बदलाव को समुद्री हलचल से जोड़ कर देख रहे हैं। कुछ स्रोत तो मई में सावन-सी बारिश, बर्फबारी और ठंडक को बीते सारे रिकार्ड टूटना बताते हैं। हां, भरोसे की तस्वीरें सेटेलाइट से आती हैं वह भी इसलिए कि वे झूठ नहीं बोलतीं और बताती हैं कि लगभग पूरा देश मई के इस महीने में सामान्य से अधिक वर्षा से सराबोर है।
भारतीय मौसम को लेकर अनुमान है कि मई के मध्य तक पश्चिमी विक्षोभ कई बार और हलचल मचाएंगे। फिलहाल, अब तक इसी विक्षोभ के चलते तापमान में भारी गिरावट तथा बेमौसम बारिश हो रही है। मई के इस महीने में जब उत्तरी एशिया, यूरोप और कनाडा में तापमान की अप्रत्याशित वृद्धि ने वहां चिंता बढ़ा रखी है, तो हम उसके ठीक उलट लू के मौसम में ठंडक महसूस कर रहे हैं। इससे वैज्ञानिकों की चिंताएं बढ़ी हुई हैं। इसलिए भी कि अचानक तूफान और बाढ़ के हालात के बावजूद कुछ क्षेत्रों में जबरदस्त सूखे जैसी भौगोलिक घटनाएं पैदा हो रही हैं, जो दिनों दिन बढ़ती जा रही हैं।
पश्चिमी विक्षोभ हैं क्या, यह भी जानना जरूरी है। वास्तव में यह भूमध्यसागरीय क्षेत्र में उत्पन्न होने वाला वह तूफान है, जो भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भागों में अचानक बारिश लाता है। यह बरसाती मानसून से अलग होता है। जब अशांत हवाएं कम दबाव वाले क्षेत्र में होती हैं, यानी भूमध्यसागर, यूरोप के अन्य भागों और अटलांटिक महासागर में, तो यहां की नमी से बादल बनते हैं, जो भारत में पश्चिम दिशा से आते हैं।
इसलिए पश्चिमी विक्षोभ कहलाते हैं। अमूमन ये अफगानिस्तान, पाकिस्तान होकर भारत की ओर अधिक ऊंचाइयों पर तेज हवाओं के साथ आते हुए अपनी राह में भूमध्य सागर, काला सागर, कैस्पियन सागर और अरब सागर की नमी सोख लेते हैं। यही नमी भारत आते-आते बारिश और बर्फ में बदल जाती है।
इस पर मौसम विज्ञान का एक अध्ययन भी है, जिसे ‘न्यूमेरिकल स्टडी आफ वेस्टर्न डिस्टर्बेंस ओवर वेस्टर्न हिमालयाज यूजिंग मेसोस्केल’ माडल कहते हैं। वह भी यही बताता है कि जब पश्चिमी विक्षोभ हिमालय की ओर आता है, तो इसकी नमी बारिश और बर्फ में तब्दील हो जाती है। हवा के रुख के साथ-साथ ये बादल कभी उत्तरी पहाड़ी राज्यों जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, तो कभी उत्तर पूर्वी राज्यों की ओर बढ़ते हैं और कभी पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और बिहार होते हुए दक्षिण की ओर बढ़ते हैं। इस प्रकार इसका असर पूरे देश में दिखता है। अभी वही हो रहा है।
इस बदलाव का असर हिमालय के ग्लेशियर पर होने से बर्फ भी तेजी से पिघल रही है, जो चिंताजनक है। हाल ही में उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में पहाड़ों पर बसी आबादी वाले क्षेत्रों में दरकन से हुई क्षति सामने है। केदारनाथ त्रासदी, चमोली की बाढ़, जिसे महाविनाश तक कहा गया, सबने देखा। ऐसी और भी अनेक घटनाएं सामने हैं।
इधर एक अध्ययन बताता है कि हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार शताब्दी की शुरुआत के मुकाबले दोगुनी हुई है। इसके उपलब्ध आंकड़े देखें तो 1975 से वर्ष 2000 तक ग्लेशियरों के पिघलने की मात्रा वास्तव में दोगुनी हुई। वैज्ञानिक इसकी वजह वही पुरानी यानी ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन, प्रदूषण और प्रकृति विरोधी मानवीय गतिविधियां बताते और दावा करते हैं कि अगर इन पर अंकुश नहीं लगा तो दुनिया के शेष ग्लेशियरों का एक तिहाई से अधिक हिस्सा वर्ष 2100 से पहले पिघल जाएगा।
वहीं कई अलग धारणाएं भी हैं, जो इस बात से सरोकार न रखते हुए कहती हैं कि प्रकृति से बड़ा कोई नहीं। आज हम जो तमाम र्इंधन जैसे कोयला, गैस, तेल, लकड़ी आदि का इस्तेमाल कर रहे हैं वह सब भी तो प्रकृति प्रदत्त हैं और करोड़ों वर्ष पहले भूगर्भीय हलचल से जमींदोज हुए जंगल, तत्कालीन प्राणियों के अवशेष ही तो हैं।
सच भी है, और लगता भी है कि प्रकृति को चुनौती देना आसान नहीं। जब भी असंतुलन बढ़ेगा, तो बहुत बड़ी भूगर्भीय हलचलों से इनकार भी नहीं किया जा सकता और न कोई इसे रोक पाएगा। सच तो यह है कि प्रकृति को चुनौती देना न तो आसान है और न ही इससे टकराव लेकर सुकून ही मिल पाएगा।
इस दौर में जब हम वापस कुदरत की शरण में जाकर कभी प्राकृतिक चिकित्सा, तो कभी प्राकृतिक खेती या जैविक खेती की ओर बढ़ते हुए स्वास्थ्य को लेकर सजग हो रहे हैं तथा जड़ी-बूटी वनस्पतियों का उपयोग बढ़ा रहे हैं। तब क्या ऐसा नहीं लगता कि प्रकृति के मूल स्वरूप, जो उसका सौंदर्य भी है, को अपने स्वार्थ के लिए नष्ट-भ्रष्ट कर, विरूपित कर उसके साथ ज्यादती कर रहे हैं? प्रकृति उसी स्वरूप को वापस पाने के लिए जब-तब अपना रौद्र रूप किसी न किसी तरह दिखाती है।
इससे कभी हम आनंदित हो उठते हैं, तो कभी बेबस नजर आते हैं। यह भी शायद प्रकृति का बड़ा इशारा है, जिसे खोलना जरूरी है और वैज्ञानिकों के लिए भी यह नई चिंता और शोध का विषय है। मगर इतना तय है कि प्रकृति से ऊपर कोई नहीं।