हिन्दी दिवस पर विशेष: हिंदी के विस्तार की व्यवस्था दीजिए

प्रो गोविन्द सिंह

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हिन्दी दिवस, हिन्दी सप्ताह, हिन्दी पखवाड़ा और हिन्दी मास. यानी सरकारी कामकाज में हिन्दी लागू करने-कराने का अभियान. इस अभियान के तहत हम अक्सर उन नौकरशाहों को जी-भर के कोसते हैं, जो हिन्दी को सरकारी फाइलों में नहीं घुसने देते, जो सरकारी चिट्ठियों में हिन्दी नहीं लिखने देते. हम उस सरकारी व्यवस्था को भी कोसने से नहीं चूकते, जो हर साल हिन्दी लागू करने के फर्जी आंकड़े पेश करवाती है और सरकार के पास यह रिपोर्ट भेजती है कि हिन्दी 99 फीसदी आ चुकी है. जबकि सचाई यह होती है कि हिन्दी वहीं की वहीं होती है. लेकिन कई बार मुझे लगता है कि हम फिजूल ही नौकरशाहों को कोसते हैं. हम उनसे यह अपेक्षा रखते हैं कि वे मरियल पौधों के फूलों को सींचें और पूरी फुलवारी लहलहा उठे.

असल चुनौती है जड़ों को सींचने की. लेकिन दुर्भाग्य से अपने यहाँ जड़ों में पानी डालने की सख्त मनाही है. हमारी सरकार, हमारे नेता, हमारे राजनीतिक दल, हमारे शिक्षक, हमारे नौकरशाह और समूचे तौर पर हमारा समाज भी इस गुपचुप अभियान में शामिल है कि जड़ों में पानी न दिया जाए. जी हाँ, मैं शिक्षा में हिन्दी की बात कर रहा हूँ. आप लाख विश्व हिन्दी सम्मलेन कर लें, आप उसे संयुक्त राष्ट्र की भाषा बना डालें, लेकिन जब तक अपने नौनिहालों के मन से हिन्दी के प्रति घृणा को नहीं निकाल फेंकेंगे, तब तक कोई लाभ नहीं होने वाला. क्षमा कीजिए, नौनिहाल ही नहीं, उनके मन में घृणा-भाव भरने वाले अध्यापक भी. हम कैसी दोमुंही बात करते हैं? एक तरफ बच्चों को जबरन अंग्रेज़ी बोलने, लिखने और उसी में सपने देखने को कहते हैं, क्लास में हिन्दी बोलने पर प्रताड़ित करते हैं, यही नहीं उन्हें हिन्दी से घृणा करने की हिदायत देते हैं और दूसरी तरफ उन्हीं स्कूलों-कालेजों से पढ़कर ऊंचे पदों पर बैठे अफसरों से यह अपेक्षा करते हैं कि वे अंग्रेज़ी छोड़ कर हिन्दी को अपनाएँ. वे ऐसा क्यों करें? उन्हें ऐसा क्यों करना चाहिए?

अनेक बार ऐसा लगता है कि शिक्षा की दुनिया का इस देश से, इस राष्ट्र के लक्ष्यों से कोई लेना-देना नहीं है. शिक्षा नीति के करता-धरता चाहते ही नहीं कि अंग्रेज़ी की बजाय हिन्दी को स्कूलों-कालेजों में पढ़ाया जाना चाहिए. इस देश का शिक्षाविद, अपना शोध पत्र यूरोप-अमेरिका की शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाना चाहता है. हिन्दी में छपने वाले पत्र-पत्रिकाओं का उसके लिए कोई महत्व नहीं है. आज भी अध्यापक के चयन में विषय-ज्ञान की जगह अंग्रेज़ी भाषा ज्ञान को तरजीह दी जाती है. अब, हिन्दी को राजभाषा या राष्ट्रभाषा के रूप में लागू करवाने के लिए हर साल तरह-तरह के संकल्प लिए जाते हैं. लक्ष निर्धारित किये जाते हैं. हर मंत्रालय से कहा जाता है कि वह इस लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए भरसक कोशिश करे. लेकिन शिक्षा जगत इस सबसे अछूता रहता है. पता नहीं शिक्षा मंत्रालय क्यों चुप्पी साध लेता है? यहाँ लगातार हिन्दी पिछडती जा रही है. जब मैं बच्चा था, मेरे जिले में एक भी अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल नहीं था. अमीर-गरीब सब हिन्दी माध्यम की समान शिक्षा ग्रहण करते थे. आज उस जिले के दो जिले हो गए हैं और अकेले मेरे जिले में ही तथाकथित अंग्रेज़ी माध्यम के 500 स्कूल खुल गए हैं. वे अंग्रेज़ी सिखा रहे हों या नहीं, नहीं मालूम, इतना तय है कि वे हिन्दी से दूर रहने की हिदायत जरूर देते हैं. गाँव-गाँव तक यह सन्देश पहुंचा दिया गया है कि यदि आगे बढना है तो अंग्रेज़ी सीखना जरूरी है. हम यह नहीं कहते कि हिन्दी नहीं बढ़ रही. वह भी बढ़ रही है लेकिन अंग्रेज़ी उससे दस गुना तेज रफ्तार से बढ़ रही है. पहले समझा जाता था कि हिंदी दलितों-पिछड़ों की भाषा है. लेकिन उन्हें भी यह समझ में आ गया है कि हिन्दी के भरोसे वे बहुत आगे नहीं बढ़ पायेंगे. उनके एक नेता चन्द्रभान प्रसाद ने इसीलिए ‘अंग्रेज़ी देवी’ की पूजा करने का आह्वान किया है. उनका कहना है कि तरक्की का राजमार्ग अंग्रेज़ी से होकर ही गुजरता है.

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आजादी के समय कहा गया था कि दस साल के भीतर हिन्दी में अनुवाद की सारी व्यवस्था कर ली जाये. विज्ञान और इंजीनियरिंग की किताबों को हिन्दी में कर लिया जाए. यानी भविष्य में उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी की बजाय हिन्दी में हो. उसके लिए कोशिशें भी हुईं. वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग बना. केन्द्रीय हिन्दी संस्थान बना, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय बना, राज्यों के भाषा विभाग और हिन्दी अकादमियां बनीं. शब्दकोष बने. किताबें लिखी गयीं. लेकिन हिन्दी माध्यम लागू करने की दिशा में हम एक कदम आगे तो दो कदम पीछे ही रहे. 1950 में हिन्दी माध्यम की जो किताबें थीं, वे भी गायब हो गयीं. उच्च शिक्षा तो दूर, स्कूलों से ही हिन्दी-माध्यम गायब होता जा रहा है. हिन्दी पढ़ना मजबूरी की भाषा बन गयी है.

अब पत्रकारिता का ही उदाहरण लीजिए. यहाँ 70 प्रतिशत नौकरियाँ हिन्दी में हैं. लेकिन नए खुले केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता का माध्यम केवल अंग्रेज़ी रखा गया है. हिन्दी माध्यम से स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले छात्रो के लिए इन विश्वविद्यालयों ने अपने दरवाजे बंद कर लिए हैं. पिछले दिनों दिल्ली से दूर एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग में जाने का मौक़ा मिला. वहां जो छात्र स्नातकोत्तर कर रहे थे, उन्हें देखकर कहीं से भी नहीं लग रहा था कि वे अंग्रेज़ी वाले होंगे. फिर उसी शहर के एक प्रमुख हिन्दी अखबार के सम्पादक से मिलना हुआ. (वहाँ से हिन्दी के ही अखबार छपते हैं.) उनका कहना था कि जो बच्चे उनके पास प्रशिक्षण के लिए आते हैं, उन्हें भाषा आती ही नहीं. कहाँ से आयेगी? उन्हें तो जबरन अंग्रेज़ी रटाई जा रही थी. वास्तव में वे न हिन्दी के रह गए थे और न अंग्रेज़ी ही सीख पाए थे. यानी गणतंत्र के 65 वर्ष बाद भी जिस देश के केन्द्रीय विश्वविद्यालय हिन्दी के साथ इस तरह का भेदभाव बरतते हैं, उस देश में आप किस भाषाई आजादी की बात करते हैं?

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हम चाहे लाख विश्व हिन्दी सम्मलेन आयोजित कर लें, जब तक शिक्षा से हिन्दी को दूर रखेंगे, तब तक कोई लाभ होने वाला नहीं है.

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