हिमशिखर धर्म डेस्क

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क्या आपने कभी एकांत में यह सोचा कि आपको मानव जीवन क्यों मिला है? महाभारत में युधिष्ठिर के एक प्रश्न के उत्तर में भीष्म पितामह ने कहा, ‘मनुष्य से बढ़कर कोई नहीं। मनुष्य जीवन इहलोक और परलोक की कड़ी है।’ आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि चौरासी लाख योनियों के बाद हमें मनुष्य जीवन मिलता है और संसार के सभी प्राणियों में मनुष्य ही सबसे श्रेष्ठ है। इसकी वजह मनुष्य में सत्य व असत्य का विवेक कराने वाली बुद्धि का होना है, लेकिन इस धरती पर हम दुनियादारी के चक्र में ऐसे फंस जाते हैं कि हमारी बुद्धि सीमित दायरे में ही सिमट कर रह जाती है।

हम सांसारिक सुखों को ही सब कुछ मानकर उसमें लिप्त रहने में ही अपना सौभाग्य और अपने जीवन की सफलता समझते हैं। यही गलती हम कर जाते हैं, क्योंकि इसके बावजूद कोई भी व्यक्ति यह दावा नहीं करता है कि वह पूर्णतया सुखी है। सच्चाई यह है कि हमें सामान्य मानव जीवन के उद्देश्य की पूर्ति के लिए निरंतर प्रयास करना चाहिए। यह सच है कि अपने व अपने परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी हमारी है और हमें इसे हर हाल में निभाना चाहिए। क्या आपको यह मालूम है कि आप कहां से आए, आपको कितने दिनों या सालों तक इस जगत में रहना है और आपकी मंजिल क्या है? इन प्रश्नों के उत्तर में ज्यादातर लोग यही कहेंगे, मालूम नहीं। ऐसे लोग बड़े अजीब मुसाफिर हैं।

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वे यात्रा तो कर रहे हैं, पर यात्रा के संबंध में उन्हें कुछ भी पता नहीं। उन्होंने मानव जीवन पाया, लेकिन उन्हें अपने जीवन का लक्ष्य मालूम नहीं। हमारे-आपके जीवन का मतलब है, एक उद्देश्य खोज लेना और अपने भीतर शांत रहना। कहा गया है कि मनुष्य आनंदलोक का वासी है और आनंद के परमधाम तक पहुंचना ही उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य है, इसलिए मनुष्य को इस संसार की मृग मरीचिका से निकलकर भव्य जीवन की प्राप्ति के लिए साधना के मार्ग को अपनाकर अपने गंतव्य को पहचानना चाहिए और उसी में लीन होने के लिए साधनारत रहने का संकल्प लेना चाहिए। ऋग्वेद में कहा गया है कि जीवन पवित्र और श्रेष्ठ है। मनुष्य कर्मयोगी है। बस यह बात कर्मयोगी के हाथों में है कि वह अपने लिए किस लक्ष्य का चयन करता है।

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