भारत की पवित्र भूमि पर पूरे वर्ष अनेक उत्सवों को हर्षोल्लास और भव्यता के साथ मनाया जाता है। इनमे से अधिकांश त्योहारों में भगवान के किसी न किसी रूप की पूजा होती है। हम इसे सरस्वती पूजा, नवरात्रि, गणेश चतुर्थी, आदि में देखते हैं। ऐसे कई शुभ अवसरों पर, माँ सरस्वती, श्री गणेश, माँ दुर्गा, और अन्य देवी-देवताओं की रंग रंगीले मिट्टी की मूर्तियाँ महीनों पहले से बनाई जाती हैं। हजारों लाखों भक्त इन मूर्तियों को अपने घरों में या भव्य पंडालों में स्थापित करके पूजा करते हैं। उत्सवों के समाप्त होने पर, इन मूर्तियों का जल में विसर्जन करने की एक प्राचीन परंपरा रही
जब भगवान सर्वव्यापी हैं, तो फिर उन्हें एक स्थान पर, एक मूर्ति (विग्रह) के रूप में पूजने का क्या महत्त्व है? एक प्रसिद्ध कहावत है, “भगवान घट-घट वासी हैं,” अर्थात् भगवान सृष्टि के प्रत्येक कण में निवास करते हैं। फिर भी, मूर्ति पूजा सदियों से हमारी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रही है। इतिहास में जगद्गुरु शंकराचार्य, अंडाल, रामानुजाचार्य, और रामकृष्ण परमहंस जैसे महान संतों ने विभिन्न रूपों में भगवान की मूर्तियों की पूजा की थी। क्या उनके द्वारा अपनाए गए भक्ति के इस रूप में हमारे लिए कोई संदेश था?
वास्तव में, मूर्तियाँ या प्रतिमाएँ हमारे विचलित मन को दिव्य स्वरूप पर केंद्रित करने में सहायक होती हैं। ये हमारे भक्ति और सेवा का प्रारंभिक आधार बनती हैं। भगवान सर्वव्यापी हैं, लेकिन लोग उन्हें देखना चाहते हैं, उन्हें स्नान कराना चाहते हैं, उन्हें भोजन अर्पित करना चाहते हैं, उन्हें फूलों और आभूषणों से सजाना चाहते हैं, इत्यादि। उनके विग्रह अवतार में यह सब संभव हो पाता है। भगवान के साकार स्वरूप पारकर, भक्त उनको अपना साथी, मार्गदर्शक, मित्र, रक्षक और प्रेम और स्नेह के दाता के रूप में अनुभव कर पाता है। ऐसी भक्ति का एक प्रसिद्ध उदाहरण है – मीरा बाई। जब उनकी शादी हुई, तो उन्होंने अपने आराध्य गिरिधर गोपाल को अपना प्रियतम मानकर, उनकी मूर्ति को मासूमियत से अपने ससुराल ले आईं।
मूर्तियाँ पत्थर, लकड़ी, धातु और अन्य सामग्रियों से बनाई जाती हैं। इन मूर्तियों की स्थापना बड़े विश्वास और भक्ति के साथ की जाती है। इस प्रतिष्ठा प्रक्रिया को प्राण प्रतिष्ठा समारोह के रूप में जाना जाता है, जिसमें भगवान से उस मूर्ति में प्रकट होने की प्रार्थना की जाती है, ताकि भक्त अपनी अर्पण सामग्री भेंट कर सकें। प्रतिष्ठा समारोह के पश्चात्, मूर्ति को अर्चावतार माना जाता है। भगवान हर जगह उपस्थित हैं, तो वे अपने विग्रह में क्यों नहीं होंगे? भक्त के प्रेम के प्रत्युत्तर स्वरूप, भगवान विग्रह में निवास करते हैं और सेवा करने के अवसर एवं अनुमति प्रदान करते हैं। यह भी भगवान की कृपामयी एवं प्रेममयी लीला की प्रकृति