केदारनाथ आपदा की 9वीं बरसी : केदारनाथ आपदा का आध्यात्मिक दृष्टिकोण

हिमशिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand

मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्। इस उक्ति के आधार पर परमेश्वर की अध्यक्षता में ही प्रकृति (माया, त्रिगुणात्मिका) चराचर जगत की सृष्टि, स्थिति और संहार करती है। संसार में प्रत्येक वस्तु या प्राणी समूह जब पैदा हुए हैं, तो उनके पैदा होने के साथ ही उनका नाश भी निश्चित है (जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च)। सामान्य कीट से लेकर मानव को अवश्य ही मरना पड़ेगा।

संसार में प्रत्येक वस्तु बनने से पहले प्राणियों के सामूहिक प्रारब्ध उसमें कारण होते हैं अर्थात् उस वस्तु से किस प्राणी को सुख या दुःख मिलेगा, यह पहले से ही तय है। इसलिए एक ही वस्तु या परिस्थिति में किसी को सुख या लाभ और किसी को दुख या हानि पहुंचती है। प्रत्येक प्राणी के जन्म से पहले उसके भाग्य का निर्धारण होता है। शास्त्रों के अनुसार अनादि संसार चक्र में हम सभी प्राणी समूह अनंतवार जन्म-मृत्यु को प्राप्त कर सुख-दुख को भोगकर स्वर्ग नरक का अनुभव कर चुके हैं। उसमें से जब-जब मनुष्य ने जन्म लिए हैं, उस समय जो पुण्य या पाप कर्म किए हैं, उसके भोग के लिए मानव जन्म लिया है। क्योंकि पुण्यों के फलस्वरूप स्वर्गादि सुख और मनुष्य जन्म में ऐश्वर्य सुख समृद्धि और पाप के फलस्वरूप नरक आदि दुख प्राप्त होता है। इसलिए अपने कर्मों के अनुसार सुख और दुःख प्राप्त होता है।

कभी-कभी मनुष्य अपने सुख समृद्धि का कारण अपने कर्म को मानकर अहंकार करता है। किंतु दुख प्राप्त होने पर ईश्वर के ऊपर दोषारोपण करता है कि भगवान ने मुझको दुःख दिया है। यह उसकी अज्ञानता का परिचय है। जैसे कि 2013 के परिप्रेक्ष्य में देवभूमि उत्तराखंड में प्राकृति विपर्यय हुआ, जिसमें हजारों जानें गई, अरबों का नुकसान हुआ, जिसकी भरपाई होना कठिन है। प्राकृतिक आपदाएं सदियों से होती आ रही हैं। यह कोई नई बात नहीं है। विश्व में ऐसा कोई प्रांत नहीं है जहां बाढ़, तूफान, भूकंप, सूखा आदि न हुआ हो। ये आपदा आने के बाद मनुष्य उसको अच्छी तरह निपटकर पुनः व्यवस्थित हो जाता है। किंतु यह धार्मिक देश भारत में धर्म के आधार पर तीर्थ स्थल या मंदिर के पास जब कोई आपदा आती है तो अज्ञानी मनुष्य तुरंत उन देवी-देवताओं को दोषारोपण करने लगता है कि उनमें कोई सामथ्र्य नहीं है। किंतु वस्तु स्थिति यह है कि प्रारब्ध कर्मों के अनुसार जन्म, मृत्यु, भोग आयु सब निश्चित है। इस पर अज्ञानी नास्तिकों का विश्वास नहीं हो पाता।

तीर्थ स्थल में धार्मिक व्यक्ति जाकर शास्त्रीय नियमानुसार पिंड, श्राद्ध आदि कर्म करके अपने किए हुए पापों का प्रायश्चित करता है, जिससे उसका अंतःकरण शुद्ध होकर भगवद्भजन में मन लगता है। वैराग्यादि के प्राप्त होने से मोक्ष मार्ग में अग्रसर होता है। योग वशिष्ठ में प्रमाण है कि भगवान श्रीराम को तीर्थ से लौटने के बाद वैराग्य उत्पन्न हुआ और वे राजकार्य को तुच्छ, संसार को असार समझने लगे। तब वशिष्ठजी ने उनको तत्वज्ञान का उपदेश कराकर ज्ञान को प्राप्त कराया। किंतु आज के भोगी अज्ञानी मनुष्य तीर्थों में भोग-विलास करने जाने लगे हैं। उन लोगों का धन तो खर्च होेता है, किंतु सद्मार्ग में नहीं। ऐसे में तीर्थ स्थान भी अपवित्र होता है, जिससे प्रकृति के कोप का भाजन प्राणी को कर्मानुसार सही समय होता है। जिससे मनुष्य को कुछ सीख भी मिलती है और साथ ही नुकसान भी उठाना पड़ता है।

परमात्मा के द्वारा इन्सान को दिया गया एक अनमोल उपहार है प्रकृति। प्रकृति से हमें जल, अग्नि, वायु, रोशनी आदि सभी वह तत्व मिलते है, जो जीवन का मूल आधार है। इन तत्वों के बगैर जीवन सम्भव ही नहीं है। प्रकृति हमसे कुछ लेने की इच्छुक नही, वह तो सिर्फ देना जानती है। प्रकृति की रक्षा से ही जीवन सुरक्षित रह सकता है। इन्सान अपनी बढ़ती लिप्साओं को पूर्ण करने के लिए प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर रहा है और जिसके परिणाम भयावह रहें है। प्रकृति कभी भी असन्तुलन बर्दास्त नहीं कर सकती है इसलिए वह जब पुनः सन्तुलन स्थापित करने का प्रयास करती है, तो एक भयावह नजारा सामने आता है।

परमात्मा के अस्तित्व के विषय में हमारे धर्म में दो प्रकार के मत हैं। पहला मत कहता है कि ईश्वर की कोई प्रतिमा नहीं है, वह सर्वव्यापक, अविनाशी व अखंड है। दूसरा मत कहता है कि ईश्वर का सर्वव्यापकत्व आधार बिना ज्ञात नहीं किया जा सकता, इसलिए परमात्मा को सगुण, साकार माना गया है। केदारखंड की विभीषिका में भी ईश्वर के सगुण, साकार, स्वरूप को लेकर जन-जन में व्याप्त आस्था के चिन्ह दिखाई दिए हैं। अचानक मंदिर के पीछे आकर चट्टान का रुक जाना, शिवलिंग को क्षति न पहुंचना, नंदी को पकड़े लोगों का बच जाना इनके पुष्ट प्रमाण हैं।
तीर्थ तपस्या से बनता है, वैभव और ऐश्वर्य से नहीं। उत्तराखंड के तीर्थ तपस्यारत देव ‍शक्तियों की तपस्थली है। शास्त्र के अनुसार तप यहां आज भी सुरक्षित है। धर्म क्षेत्रों में पर्यटन की दृष्टि से जाना उचित नहीं है। पुण्य क्षेत्रों में लोगों को शांति और ईश्वर के दर्शन के उद्देश्य से जाना चाहिए।
अन्य क्षेत्रे कृतं पापं पुण्यक्षेत्रे विनश्यति….
पुण्यक्षेत्रे कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति!
अन्यत्र किसी भी स्थान पर किए गए पाप तीर्थ स्थानों में जाकर नष्ट हो जाते हैं परन्तु पुण्य तीर्थों में किया हुआ पाप वज्र के समान जीव का पीछा करता है….।।

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