सावधान ! कहीं आप कटे-फटे कपड़े तो नहीं पहनते

Uttarakhand

पं. उदय शंकर भट्ट

हिम शिखर ब्यूरो
किसी मनुष्य के व्यक्तित्व में उसके कपड़ों का भी अहम किरदार होता है। वस्त्र न सिर्फ तन को ढंकते हैं बल्कि उनमें हमारे चरित्र, व्यवहार और आत्मविश्वास की भी झलक होती है। आज बदलते दौर में भारतीय संस्कृति पर पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव पड़ने लगा है। पाश्चात्य संस्कृति के चलते वर्तमान दौर में बहुत से लोग कटे-फटे कपड़े पहनते हैं या फिर कभी-कभी हम लापरवाही में कपड़ों की सिलाई खुल जाने के बाद भी उसको ठीक नहीं करते हैं। लेकिन भारतीय संस्कृति के अनुसार इसे शुभ नहीं माना जाता। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ऐसे कपड़ोें को पहनना अशुभ माना जाता है।

ज्योतिष शास्त्र में कटे-फटे कपड़े पहनना अशुभ
ज्योतिष शास्त्र हमारे प्राचीन शास्त्रों का महान परिशोध है। इसमें हमारे जीवन में घटने वाली घटनाओं, ग्रह-नक्षत्र और राशि को लेकर खास नियम बनाए गए हैं। ज्योतिष के अनुसार इन नियमों का पालन करने पर हमें कई लाभ की प्राप्ति होती है। लेकिन ज्योतिष के अनुसार ऐसे कपड़ों को पहनना अशुभ माना जाता है।
खंडित उपवस्त्रेण, नमः चव्चल जायते।
रोग, शोक, अनिष्टाणां, तत् कारणं प्रगल्भ्यते।।
यानी फटे हुए वस्त्र के प्रयोग से मन हमेशा चंचल बना रहता है। ये रोग, शोक एवं अनेक प्रकार के अनिष्टों को जन्म देने का कारण बनते हैं।

स्वास्थ्य के लिए नुकसान
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार फटे कपड़े पहनने से शारीरिक क्षमता और उर्जा नष्ट होती है। इससे हमारा शरीर अनेक प्रकार की बीमारियों से ग्रसित हो जाता है।

इसलिए फटे कपड़े पहनने से बचें
ज्योतिष शास्त्र में शुक्र ग्रह को सुख-शांति, प्रेम, दांपत्य जीवन का उत्तरदायी ग्रह माना जाता है। जीवन की गुणवत्ता का काम भी शुक्र ग्रह का होता है। इसलिए शुक्र ग्रह के प्रभाव से बचने के लिए हमको फटे कपड़े पहनने से बचना चाहिए।

भारतीय संस्कृति प्राचीन एवं समृद्ध
किसी भी देश का अपना इतिहास और परंपरा होती हैं। यदि देश को शरीर मानें तो संस्कृति उसकी आत्मा है। भारतीय संस्कृति व सभ्यता विश्व की सर्वाधिक प्राचीन एवं समृद्ध संस्कृति व सभ्यता है। इसे विश्व की सभी संस्कृतियों की जननी कहा जाता है। जीने की कला हो, विज्ञान हो या राजनीति का क्षेत्र सभी में भारतीय संस्कृति का सदैव विशेष स्थान रहा है।
भारतीय संस्कृति की यजुर्वेद के एक सूक्त में उसकी विशद व्याख्या करते हुए लिखा गया है-
‘‘सा प्रथमा संस्कृतिः विश्ववारा’’।।
अर्थात्-यह जो विश्व है, वह बड़ा विशाल है और एक नियामक, अधिपति और चैतन्य देवतत्व से वह संचालित है। उस परम-तत्व को जानने के लिए जिस ‘‘संस्कार संपन्न जीवन-प्रणाली’’ की आवश्यकता पड़ती है उसे ही संस्कृति कहा जा सकता है।

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