काका हरिओम्
हिम शिखर ब्यूरो।
हरिद्वार के कुंभ में स्थिति विस्फोटक है, कोविड-19 के केस बढ़ रहे हैं। ऐसे में क्या किया जाए, इस पर संतों-अखाड़ों की अलग-अलग प्रतिक्रिया है। परंपरा निर्वाह को लेकर कुछ इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि प्रतीक रूप में इसे आगे सम्पन्न किया जाए। विदित हो कि इस बारे में स्वयं पीएम नरेंद्र मोदी ने भी संतों को प्रतीक रूप में महाकुंभ को संपन्न करने का आग्रह किया है। श्रद्धालुओं पर रोक लगाने के पक्ष में भी संत पूरी तरह से तैयार होते नहीं दिख रहे हैं। चुनावों की भीड़ पर नियन्त्रण न होने का उनके द्वारा उदाहरण दिया जा रहा है।
इस पूरे मुद्दे पर मुझे लगता है कि, शास्त्रों में आपद् धर्म की भी चर्चा की गई है, जो नियम नहीं होता और न ही स्थिति के सुधरने पर पालनीय होता है। विद्वान संतों को इस दृष्टि से भी विचार करना चाहिए। श्रुतियों की आत्मा का संरक्षण करती हैं स्मृतियां, इस दृष्टि से भी ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की भावना की रक्षा सर्वोपरि होनी चाहिए।
स्वकर्म और स्वधर्म की दृष्टि से राजनीति या राजनेता हमारे आदर्श नहीं हैं। हमें अपने मार्ग का अनुसरण करना चाहिए और उसका अनुकरण करने की भक्तों को प्रेरणा भी देनी चाहिए।
और आखिर में, लोगों को हमने कितना तथा किस स्तर तक आत्मानुशासन के लिए प्रशिक्षित किया है, यह भी विचारणीय है। हमने भीड़ के मनोविज्ञान की उपेक्षा कैसे कर दी? लोगों ने हमारी कितनी बात को माना है और भविष्य में भी मानेंगे, इसका कितना विश्वास हम कर सकते हैं। बिना किसी पक्षपात के हम खुद से यह पूछें कि हम जिस दिशा में विचार कर रहे हैं ‘वह क्या सर्व हित’ की भावना से प्रेरित है।