हिम शिखर ब्यूरो।
नृसिंह पीठाधीश्वर स्वामी रसिक महाराज के अनुसार प्राचीन काल से ही भारत में प्रकृति के साथ संतुलन करके चलने का महत्वपूर्ण संस्कार है। भौतिक विकास के पीछे दौड़ रही दुनिया ने आज जरा ठहरकर सांस ली तो उसे अहसास हुआ कि चमक-धमक के फेर में क्या कीमत चुकाई जा रहीहै। आज ऐसा कोई देश नहीं है जो पर्यावरण संकट पर मंथन नहीं कर रहा है। भारत भी चिंतित है लेकिन जहां दूसरे देश भौतिक चकाचौंध के लिए अपना सबकुछ लुटा चुके हैं, वहीं भारत के पास आज भी बहुत कुछ है। प्रकृति संरक्षण का कोई संस्कार अखण्ड भारतभूमि को छोड़कर अन्यत्र देखने में नहीं आता है जबकि सनातन परम्पराओं में प्रकृति संरक्षण के सूत्र मौजूद हैं हिन्दू धर्म में प्रकृति पूजन को प्रकृति संरक्षण के तौर पर मान्यता है।
भारत में पेड़-पौधों, नदी-पर्वत, ग्रह-नक्षत्र, अग्नि-वायु सहित प्रकृति के विभिन्न रूपों के साथ मानवीय रिश्ते जोड़े गए हैं पेड़ की तुलना संतान से की गई है तो नदी को मां स्वरूप माना गया है। ग्रह-नक्षत्र, पहाड़ और वायु देवरूप माने गए हैं। प्राचीन समय से ही भारत के वैज्ञानिक ऋषि-मुनियों को प्रकृति संरक्षण और मानव के स्वभाव की गहरी जानकारी थी वे जानते थे कि मानव अपने क्षणिक लाभ के लिए कई मौकों पर गंभीर भूल कर सकता है। अपना ही भारी नुकसान कर सकता है। इसलिए उन्होंने प्रकृति के साथ मानव के संबंध विकसित कर दिए ताकि मनुष्य को प्रकृति को गंभीर क्षति पहुंचाने से रोका जा सके, यही कारण है कि प्राचीन काल से ही भारत में प्रकृति के साथ संतुलन करके चलने का महत्वपूर्ण संस्कार है।
यह सब होने के बाद भी भारत में भौतिक विकास की अंधी दौड़ में प्रकृति पददलित हुई है लेकिन यह भी सच है कि यदि ये परंपराएं न होतीं तो भारत की स्थिति भी गहरे संकट के किनारे खड़े किसी पश्चिमी देश की तरह होती सनातन परंपराओं ने कहीं न कहीं प्रकृति का संरक्षण किया है। सनातन धर्म का प्रकृति के साथ कितना गहरा रिश्ता है, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद का प्रथम मंत्र ही अग्नि की स्तुति में रचा गया है। प्रत्येक सनातन परम्परा के पीछे कोई न कोई वैज्ञानिक रहस्य छिपा हुआ है। इन रहस्यों को प्रकट करने का कार्य होना चाहिए, सनातन धर्म के संबंध में एक बात दुनिया मानती है कि सनातन दर्शन जियो और जीने दो के सिद्धांत पर आधारित है यह विशेषता किसी अन्य धर्म में नहीं है, सनातन धर्म का सह अस्तित्व का सिद्धांत ही सनातनियों को प्रकृति के प्रति अधिक संवेदनशील बनाता है।
वैदिक वाङ्मयों में प्रकृति के प्रत्येक अवयव के संरक्षण और सम्वर्द्धन के निर्देश मिलते हैं। रसिक महाराज ने बताया कि लगभग सभी परम्पराओं के पीछे जीव संरक्षण का संदेश हैण् सनातन धर्म गाय को मां कहता है, उसकी अर्चना करता है, नागपंचमी के दिन नागदेव की पूजा की जाती है। नाग-विष से मनुष्य के लिए प्राणरक्षक औषधियों का निर्माण होता है। नाग पूजन के पीछे का रहस्य ही यह है। सनातन धर्म का वैशिष्ट्य है कि वह प्रकृति के संरक्षण की परम्परा का जन्मदाता है। सनातनी संस्कृति में प्रत्येक जीव के कल्याण का भाव है। सनातन के जितने भी त्योहार हैं, वे सब प्रकृति के अनुरूप हैं, मकर संक्रान्ति, वसंत पंचमी, महाशिव रात्रि, होली, नवरात्रए गुड़ी पड़वा, वट पूर्णिमा, दीपावली, कार्तिक पूर्णिमाए छठ पूजा, शरद पूर्णिमा, अन्नकूट, देव प्रबोधिनी एकादशी, हरियाली तीज, गंगा दशहरा आदि सब पर्वों में प्रकृति संरक्षण का पुण्य स्मरण है।