- देश के कई महानगरों में कोरोना की दूसरी लहर के बीच आक्सीजन सिलेंडर को लेकर खूब मारामारी मची हुई है। कभी किसी ने यह सोचा भी नहीं होगा कि कोराना इस कदर कहर बरपाएगा कि लोग एक आक्सीजन सिलेंडर तक के मोहताज हो जाएंगे। हैरानगी की बात यह है कि जहां पहले पेड़ों से आक्सीजन मिलती थी, वहीं अब फैक्टरी में भी इसका निर्माण तेजी से होने लगा है। जबकि सच्चाई यह है कि अगर दुनिया में पेड़ ही ना हों, तो कितनी भी फैक्ट्री लगा दी जाए, आक्सीजन की कमी तो होगी ही। ऐसे में संकट के दौर में 1970 के दशक में हिमालय की पहाड़ियों में शुरू हुआ चिपको आंदोलन आज अधिक प्रासंगिक हो जाता है।
विनोद चमोली
हिमशिखर ब्यूरो
भारतीय संस्कृति में प्रकृति के प्रति जागरुकता आदि काल से ही रही है। पंच तत्वों (भूमि, जल, पृथ्वी, अग्नि, वायु) की उपासना हमारे ऋषि-मुनि करते रहे हैं। वेद-पुराण, श्रीमद्भावगत, रामायण, महाभारत आदि में प्रकृति की पूजा के प्रमाण मिलते हैं। लेकिन आधुनिक युग में पृथ्वी पर जनंसख्या वृद्धि के कारण तीव्र गति से मनुष्य की आवश्यकताएं भी बढ़ रही हैं। यहीं से शुरू होती है प्रकृति के साथ सहयोग की जगह संघर्ष की दास्तां। चिपको आंदोलन वनों के संरक्षण की दिशा में बड़ा कदम है।
यह बात 1970 के दशक की है जब सुंदर लाल बहुगुणा ने हिमालय की पगडंडियों को पैदल नापना शुरू किया। उनका लक्ष्य था वन विनाश के परिणामों और वन संरक्षण के फायदों को समझना। उन्होंने देखा कि पेड़ों में मिट्टी को बांधे रखने और जल संरक्षण की क्षमता है। अंग्रेजों के फैलाए चीड़ और इसी से जुड़ी वन विभाग की वनों की परिभाषा जंगलों की देन लकड़ी और लीसा और व्यापार भी उनके गले नहीं उतरी।
इस तरह हुआ चिपको आंदोलन के नारे का जन्म
उनका मानना था कि वनों का पहला उपयोग लोगों के पास रहना चाहिए। उससे उन्हें जरूरी चीजों के साथ ही चारा, लकड़ी, घास घर के पास ही सुलभ हो जाएगी। उन्होंने कहा कि वनों की असली देन तो मिट्टी पानी और हवा है। उनकी इसी सोच से बाद में चिपको आंदोलन के नारे ‘‘ष्क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी पानी और वयार, मिट्टी पानी और बयार जिंदा रहने के आधार’’ का जन्म हुआ।
शहादत दिवस को वन दिवस के रूप में मनाने का लिया फैसला
सुंदर लाल बहुगुणा ने वन अधिकारों के लिए बड़कोट के तिलाड़ी में शहीद हुए ग्रामीणों के शहादत दिवस 30 मई को वन दिवस के रूप मे मनाने का 30 मई 1967 में निश्चय किया। इसमें अपने सर्वोदयी साथियों के अलावा सभी से शामिल होने की उन्होंने अपील की। 1968 में सुंदर लाल बहुगुणा ने इस दिवस को मनाने के लिए पुस्तिका निकाली जिसे नाम दिया गया पर्वतीय क्षेत्र का विकास और वन नीति। इसमें कहा गया था कि वन, कृषि, पशुपालन और कुटीर उद्योग से लोगों को वर्ष भर में कम से कम 300 दिन का रोजगार मिलना चाहिए।
शराबबंदी आंदोलन में कूद गए बहुगुणा
1969 में तिलाड़ी में शहीद स्मारक की स्थापना के साथ ही सुंदर लाल बहुगुणा ने अपने सर्वोदयी साथियों के साथ वन संरक्षण की शपथ ली। इस बीच सुंदर लाल बहुगुणा 1969 से 1971 तक सफल शराब बंदी के लिए गढ़वाल से लेकर कुमाऊं के बीच दौड़ भाग करते रहे। 1971 के सफल आंदोलन के बाद जब पहाड़ में सरकार ने शराबबंदी लागू कर दी तो बहुगुणा ने वन आंदोलन का बीड़ा दोबारा से उठाया।
घनश्याम सैलानी के गीत ने धार दी वन आंदोलन को
11 दिसंबर 1972 को वन व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन के लिए 11 दिसंबर को पहला जुलूस बड़कोट के पास पुरोला कस्बे में निकला। इसमें बड़ी संख्या में ग्रामीणों ने शिरकत की। अगले दिन उत्तरकाशी में विशाल जुलूस निकला। सुंदर लाल बहुगुणा के नेतृत्व में निकले इस जुलूस में जनकवि घनश्याम सैलानी और चंडी प्रसाद भट्ट भी शामिल थे। 13 दिसंबर की सुबह सुंदर लाल बहुगुणाए चंडी प्रसाद भट्ट और धनश्याम सैलानी एक किराए की जीप लेकर गोपेश्वर के लिए निकले। रात में तीनों रुद्रप्रयाग खादी कमीशन के दफ्तर में रुके। यहां घनश्याम सैलानी ने एक कविता लिखी : इसके बोल थे खड़ा उठा भै बंधु सब कट्ठा होला सरकारी नीति से जंगलू बचौला, चिपका पेड़ों पर अब न कट्यण द् याए जंगलू की संपत्ति अब न लुट्यण द् या। घनश्याम सैलानी के इस गीत ने वन आंदोलन को धार देने का काम किया। 15 दिसंबर 1972 को गोपेश्वर के विशाल जुलूस में सैलानी का यह गीत पहली बार गूंजा तो लोगों और फिर वन आंदोलन का प्रमुख गीत बन गया।