पुण्य स्मरण – मैं आशावादी हूं : सुभाष सागर

Uttarakhand

हिमशिखर धर्म डेस्क

काका हरिओम्

सागर साहब से कब पहली मुलाकात हुई यह तो याद नहीं, लेकिन वह मेरे परिवार को इलाहाबाद से ही जानते थे. मैंने पांचवीं तक वहीं शिक्षा पाई थी. जब मैं उनसे आखिरी बार मिला, तो जैसा कि उनका स्वभाव था, अस्वस्थ होते हुए भी, गीता पर चर्चा शुरू कर दी. उन्हें जानकारी थी कि on line गीता स्वाध्याय का प्रकल्प स्वामी रामतीर्थ मिशन के तत्वाधान में चल रहा है इसलिए उसकी प्रैक्टिकल रिपोर्ट भी उन्होंने ली और उस पर सकारात्मक सुझाव भी सुझाव दिए. स्वामी राम की मस्ती और श्रीकृष्ण के अनासक्ति योग का अद्भुत सम्मिश्रण थे श्री सुभाष जी सागर. उनके व्यक्तित्व की झलक आपको इस बातचीत में मिलेगी, जो समय-समय पर उनके साथ हुई. उसे संजोने का प्रयास है यह पुण्य स्मरण…

आप बदलते वातावरण और सोच को किस नजरिए से देखते हैं? 

सब अच्छा है. परिवर्तन को आप रोक नहीं सकते. हां, उसमें आने वाली खामियों के प्रति थोड़ी-सी सावधानी बरत कर इसे ज्यादा उपयोगी बना सकते हैं. सुंदर फूल में अगर खुशबू भी आ जाए तो मुझे नहीं लगता किसी को कोई ऐतराज हो.

इसे स्पष्ट करें तो यह सूत्र खुलेगा. 

बात सीधी है.  मेरा मानना है कि यह परिवर्तन का युग है. सत्ययुग को मैं नए रूप में आता हुआ देख रहा हूं. भौतिक सम्पन्नता की आज कमी नहीं है. बस उन संपन्न लोगों को  इस बात को समझाने की जरूरत है कि सिर्फ अपने बारे में ही न सोचा जाए. दूसरों के अस्तित्व से ही उनका जीवन गहरे रूप में जुड़ा हुआ है़. इस वजह से अपना हित साधने के लिए उन्हें दूसरों के हित की भी चिंता करनी होगी.

इसे कार्य रूप कैसे दिया जाए, क्या सोचते हैं आप इस बारे में?

मैं निराशावादी नहीं हूं.  मैं चाहता हूं कि अध्यात्म शिक्षा का अभिन्न अंग बने. श्रीमद्भगवद्गीता की इस संदर्भ में महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है. क्योंकि किसी न किसी रूप में, सुनसुनाकर ही हम इसकी आत्मा से परिचित हैं. लेकिन इससे जो परिणाम मिलेंगे मैं उनके बारे में सन्तुष्ट नहीं हूं. मेरा मानना है मिट्टी जब एक बार कोई शेप ले लेती है तो उसे संस्कारित करना मुश्किल हो जाता है. अकसर result 70 प्रतिशत के आसपास रहता है.

तो….? 

अभिमन्यु की कथा याद करिए. उसने चक्रव्यूह का भेदन कब सीखा? प्रह्लाद को विष्णुभक्ति का संस्कार कब मिला? ऐसे कई उदाहरण हैं, जो संकेत करते हैं कि चरित्र का निर्माण किस समय होता है और इस महान् कार्य में किसकी विशेष भूमिका होती है.  अब तो विज्ञान भी पुष्टि करता है कि गर्भस्थ शिशु की ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेंन्द्रियों का विकास, वहीं कोख में ही हो जाता है.  इसीलिए मैं चाहता हूं कि बीज और धरती को निर्दोष और संशोधित किया जाए. यह ज्ञान हमारे प्राचीन ग्रंथों में है. 16 संस्कारों में इसकी विस्तार से विवेचना है.

इसे क्रियात्मक रूप कैसे देंगे? 

इस बारे में मैंने एक प्रयोग किया है. मैंने एक ऐसा ग्रुप बनाया, जिसमें उन कपल से, जिनकी शादी होने वाली थी, पूछा कि वो शादी क्यों करना चाहते हैं. अर्थात् क्या मकसद है शादी का. और आश्चर्य कि इस बारे में गंभीरता से उन्होंने सोचा ही नहीं था कभी. उनके और बच्चों के शादी से जुड़े सपनों में मुझे कोई अन्तर ही नहीं दिखाई दिया. सब अपने क्षेत्र में टॉप पर हैं. लाखों में कमा रहे हैं, लेकिन शादी को सही एंगल से कभी देखा ही नहीं.

इन कपल्स से कई सेशन्स में खुल कर बात की. पूरी सफलता मिली, ऐसा मैं नहीं कह सकता, लेकिन अपनी बात को उनके दिलो-दिमाग में डालने में मैं सफल रहा, इतना मैं जरूर कह सकता हूं. मुझे यह भी उम्मीद है कि वक्त आने पर वह अंकुर जरूर बनेंगे.

इस दृष्टि से मैं नारी शक्ति को आध्यात्मिक वातावरण बनाने का मुख्य टूल मानता हूं. उन पर मैं ज्यादा केंद्रित हूं.  मुझे वहां जीवन के बारे में ज्यादा गंभीरता दिखाई देती है.  मैं चाहता हूं कि उन्हें प्रशिक्षित किया जाए. वह बहुत बड़ा काम कर सकती हैं.

मैंने देखा है कि लोगों को गिफ्ट के रूप में आप पुस्तकें देते हैं. एक तो अब ई बुक्स का समय है, दूसरे लोगों में पढ़ने का शौक नहीं रहा. क्या सार्थकता समझते हैं आप इसकी, जो आप कर रहे हैं?

मैं पूरी तरह से इस बात से, जो कही गई, सहमत नहीं हूं.  मुझे लगता है कि पुस्तकें आज भी अर्थहीन नहीं हुई हैं. जब आप पुस्तक पढ़ते हैं, तो केवल शब्द ही आपके मस्तिष्क को तरंगित नहीं करते, उसका स्पर्श भी बहुत गहरे में अपना प्रभाव डालता है.

आपको यदि ध्यान हो, तो एक समय ऐसा आया था कि मां की भूमिका भी मशीन करने लगी थी.  कुछ चीजें मशीन हमसे ज्यादा बेहतर कर सकती है. पशु-पक्षियों की बराबरी हम कई मायनों नहीं कर सकते हैं. बया का घोंसला बनाना, कठफोड़ का सख्त लकड़ी को सही गोलाई में काटना, आज भी मनुष्य की सोच से परे हैं. तो मशीन ज्यादा एक्यूरेट है हमसे. लेकिन बाद में मनोवैज्ञानिकों को लगा कि कुछ गड़बड़ हो रहा है मां और उसकी संतान के बीच. ‘टच’ मिस हो रहा था. स्पर्श के जरिए दोनों में जो आत्मीयता विकसित होनी चाहिए थी, वह मिस कर रही थी. अर्थात् दोनों मशीन बन गए थे. अब भला मशीन से मानवीय सद्गुणों की आप कैसे अपेक्षा कर सकते हैं. विज्ञान स्वीकार करने लगा है कि स्पर्श भी आपकी मैमोरी का एक महत्वपूर्ण टूल है.

तो पुस्तक हाथ में लेकर पढ़ने का एक अपना आनंद है. वह आपको  ई बुक्स से नहीं मिलने वाला. इसीलिए आज नहीं तो कल फिर पुस्तकों की ओर लोगों को मुड़ना ही होगा.

एक बात और देखने में आई है कि लोग किताबों से अपनी शैल्फ सजाते हैं, पढ़ते नहीं हैं उन्हें. मुझे इसमें भी कोई ऐतराज नहीं है. सामने रखी पुस्तक को कोई पता नहीं कब उठाने का मन कर जाए. बस वही क्षण खास हो सकता है. उसी से जीवन की दशा और दिशा बदल सकती है.

आपने सुना होगा महापुरुषों से कि ग्रंथों के दर्शन से भी पुण्य होता है. यही रहस्य है इसका. जिसको आप रोज देखते हैं, रोज मिलते हैं, तो संभावना है उससे बातचीत करने का भी मन हो जाए. और होता है ऐसा ही.

अपने विचारों को क्रियात्मक रूप देने के लिए आप क्या सोचते हैं? 

बात बड़ी साफ है. इसके लिए भीड़ की जरूरत नहीं है. हां, ऐसे लोग चाहिए जो इस सोच को पहले समझें. पूरी तरह से समझें. कोई शंका नहीं रहनी चाहिए. फिर छोटे-छोटे ग्रुप्स में दूसरे लोगों तक पहुंचाएं. इसका रिजल्ट मैं जानता हूं 100 प्रतिशत मिलने वाला नहीं है, लेकिन जितना भी मिलेगा, वह समाज को, देश को, पूरी मानवता को ठोस आधार देगा.

मेरा मानना है कि शिक्षक इस काम को बखूबी कर सकते हैं. उन्हें इस कॉन्सेप्ट को किस तक, कब और कैसे पहुँचाया जाए इसके लिए अलग से प्रयास करने की जरूरत नहीं है. उनके पास सब है. बस उन्हें यह घुट्टी बड़े तरीके से भावी पीढ़ी को पिलानी है. आज मानवता को इसकी बहुत आवश्यकता है. जब हम जीवन के इस पहलू पर विचार करेंगे, तो सत्ययुग को दस्तक देनी होगी, वह आए बिना नहीं रह सकता.  ईश्वर को सदैव अपने आसपास महसूस करें, बात बन जाएगी.

मैंने देखा है आप घर और ऑफिस में काम करने वालों से भी आध्यात्मिक चर्चा करते हैं?

जरूरी है यह. कहावत सुनी होगी, ‘दिया तले अंधेरा.’ आप जब उनका खयाल खाने, पीने, रहने, स्वास्थ्य आदि के बारे में रखते हैं, तो इस बारे में क्यों नहीं कि उनके चरित्र का निर्माण हो.  मैंने देखा है कि ऐसे संस्थान, NGO, आश्रम, जो समाज के उद्धार की बात सोचते हैं, अपने सहयोगी सेवकों के साथ इस बारे में सौतेला व्यवहार करते हैं.  मैं अपने यहां काम करने वाले के साथ थोड़ा टाइम बिताता हूं. इसमें काम की बात नहीं होती. इन बैठकों में औपचारिकता नहीं रहती. उनका दोस्त बनने की कोशिश करता हूं ताकि बातचीत करते समय उनमें किसी तरह की कोई हिचक न हो. इससे उनमें आत्मविश्वास जगा है, ईमानदारी आई है, कर्म के प्रति निष्ठा पैदा हुई है. जीवन को देखने का नजरिया बदला है.

यह एक ऐसी प्रयोगशाला है, जिसमें आपको परिणाम तत्काल, बिना किसी देरी के मिलते हैं.  हम अक्सर शिकायत करते हैं अच्छे लोग नहीं मिलते. मिलेंगे  नहीं, तैयार करने पड़ेंगे.

 

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *