डाॅ स्वामी श्यामसुन्दरदास
सृष्टि-स्थिति-प्रलयकर्ता वह भगवान् अपनी विविध विभूतियों व शक्तियों के कारण वेदों में अग्नि, इन्द्र, वरुण व सोम आदि नाना नामों से स्मरण किया गया है। वही भगवान् अनेक मंत्रों में रुद्र नाम से भी सम्बोधित हुआ है। भगवान् का रुद्र रूप उसकी उग्रता, तीक्ष्णता व भयंकरता के कारण है। वह संसार का संहार करता है। उसका यह संहारकारी रूप आवश्यक नहीं कि मनुष्यों के प्रति ही हो। प्रत्युत विषैले जीव-जंतुओं, कृमि-कीटों, चोर व डकैटों तथा अन्य रोगाणुओं के प्रति भी हो सकता है।
व्यावहारिक दृष्टि से हम यह कह सकते हैं कि जब रुद्र का व्याधिजनक व संहारकारी रूप मनुष्यों के प्रति प्रकट होता है तब वह घोर है और जब वह रौद्र रूप मनुष्यों के प्रति न होकर मनुष्यों के हिंसक प्राणियों, व्याधिजनक कृमि-कीटों व चोर डकैटों के प्रति होता है तब वह शिव कहलाता है। परन्तु यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए तो रुद्र, रुद्र ही हैं वह शिव नहीं है। क्योंकि कभी-कभी उसका रुद्र रूप मानव-शत्रुओं के प्रति प्रकट हो रहा होता है, इससे मनुष्यों का कल्याण हो जाता है इसलिए उन्हें शिव कह देते हैं। यदि हम और सूक्ष्मता में जायें तो किसी विशेष अवस्था में मनुष्यों का संहार करना भी उसका शिव अर्थात् कल्याणकारी रूप है। वेद में आता है कि बहुप्रजा निऋतिमाविवेष (ऋग्वेद) यानी पृथिवी पर जब प्रजा बहुत बढ़ जाती है, आबादी सीमा को लांघ जाती है तब वह निऋति में जा पहुंचती है। ऐसी अवस्था में प्रजा का युद्ध व महामारी आदि व्याधियों द्वारा विनाश कर देना ही भगवान् का कल्याणकारी रूप है। यह सम्भव है कि इस विवेचन से कई असहमत हों पर यह सत्य है।
दूसरे रूप में रुद्र मनुष्यों को रुलाकर उनका कल्याण ही करते हैं। प्रायः मानव पर दुःख व विपत्ति के पहाड़ टूटकर गिरते रहते हैं। महान् विपत्ति के आने पर यदि वह रोये नहीं तो वह दुःख हृदय पर घातक प्रभाव डालता है, इससे मृत्यु तक हो जाती है। रोकर मानव अपने दुःख को बाहर कर देता है। इसलिए इस दृष्टि से रुद्र रुलाने के कारण मानवों का कल्याण ही करते हैं। उस सर्वशक्तिमान परमात्मा के जिस प्रकार अग्नि, आदित्य, वायु तथा चन्द्रमा आदि विविध रूप व शक्तियों हैं उसी प्रकार रुद्र भी एक रूप है और यह अग्नि का ही एक विशिष्ट रूप है। आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक किसी भी क्षेत्र की अग्नि जब उग्र रूप धारण कर लेती है तब वह रुद्र नाम से संबोधित की जा सकती है। अग्नि की यह उग्रता व तीक्ष्णता जब रोने व रुलाने का कारण बनती है तब वह रुद्र है। भगवान् का यह आग्नेय रौद्र रूप सर्वत्र अभिव्याप्त है। अथर्ववेद में आता है-
यो अग्नौ रुद्रो यो अप्स्वन्तर्य औषधीवीरुध आविवेष।
य इमा विश्वा भुवनानि वाक्लृ पे तस्मै रुद्राय नमोस्त्वग्नये।। (अथर्ववेद)
यानी जो रुद्र रूप अग्नि, जल, औषधि, वनस्पति आदि पदार्थों में अभिव्याप्त हैं, जो इन समस्त भुवनों को सामथ्र्यवान बनाता है उस अग्निरूप को मेरा नमस्कार है।
रुद्र देव की उग्रता केवल हिंसा व विनाश को ही नहीं द्योतित करती अपितु संसार के पालन-पोषण में सहायक होती है। ऋग्वेद में रुद्रदेव को ‘विश्वरूपम्’ कहा गया है। वह सज्जनों को हिंसा से बचाता है, हिंसक का नाश करता है।