स्वामी रामसुख दासजी की वसीयत

 

Uttarakhand

स्वामी रामसुख दासजी महाराज मिति आषाढ़ कृष्ण 11 को रात्रि बिताकर दिनांक 3 जुलाई, 2005 को प्रात: लगभग 3 बजकर 40 मिनट पर परमधाम सिधार गए। स्वामी जी त्याग एवं वैराग्य की प्रतिमूर्ति थे, परन्तु वे अपनी प्रशंसा और बड़ाई के घोर विरोधी थे, अत: उनके सम्बंध में कुछ भी लिखना उचित नहीं है।

कुछ वर्ष पूर्व मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी (गीता जयन्ती) को उन्होंने एक वसीयत लिखी थी, जो साधकों के लिए अनुकरणीय है। यहां प्रस्तुत हैं इस प्रेरक वसीयत के संपादित अंश –

सेवा में विनम्र निवेदन (वसीयत)

(शरीर शान्त होने के बाद पालनीय आवश्यक निर्देश)

श्री भगवान की असीम, अहैतुकी कृपा से ही जीव को मानव शरीर मिलता है। इसका एकमात्र उद्देश्य भगवत्प्राप्ति ही है। परन्तु मनुष्य इस शरीर को प्राप्त करने के बाद अपने मूल उद्देश्य को भूलकर शरीर के साथ दृढ़ता से तादात्म्य कर लेता है और इसके सुख को ही परम सुख मानने लगता है। शरीर के सुखों में मान-बड़ाई का सुख सबसे सूक्ष्म होता है। इसकी प्राप्ति के लिए वह झूठ, कपट, बेईमानी आदि दुर्गुण-दुराचार भी करने लग जाता है। शरीर के नाम में प्रियता होने से उसमें दूसरों से अपनी प्रशंसा, स्तुति की चाहना रहती है। वह यह चाहता है कि जीवन पर्यन्त मेरे को मान-बढ़ाई मिले और मरने के बाद मेरे नाम की कीर्ति हो। वह यह भूल जाता है कि केवल लौकिक व्यवहार के लिए शरीर का रखा हुआ नाम शरीर के नष्ट होने के बाद कोई अस्तित्व नहीं रखता।

इस दृष्टि से शरीर की पूजा, मान-आदर एवं नाम को बनाए रखने का भाव किसी महत्व का नहीं है। परन्तु मनुष्य अपने प्रियजनों के साथ तो ऐसा व्यवहार करते ही हैं, जो सच्चे हृदय से जीवनभर भगवद्भक्ति में रहते हैं। अधिक क्या कहा जाए, उन साधकों का शरीर निष्प्राण होने पर भी उसकी स्मृति बनाये रखने के लिए वे उस शरीर को चित्र में आबद्ध करते हैं एवं उसको बहुत ही साज-सज्जा के साथ अन्तिम संस्कार-स्थल तक ले जाते हैं। विनाशी नाम को अविनाशी बनाने के प्रयास में वे उस संस्कार-स्थल पर छतरी, चबूतरा या मकान (स्मारक) आदि बना देते हैं। इसके सिवाय उनके शरीर से सम्बंधित एकपक्षीय घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर उनको जीवनी, संस्मरण आदि के रूप में लिखते और प्रकाशित कराते हैं। कहने को तो वे अपने-आपको उन साधकों का श्रद्धालु कहते हैं, पर काम वही करते हैं, जिसका वे साधक निषेध करते हैं।

श्रद्धातत्व अविनाशी है। अत: साधकों के अविनाशी सिद्धान्तों तथा वचनों पर ही श्रद्धा होनी चाहिए न कि उनकी विनाशी देह या नाम में।

वास्तव में महात्मा तो संसार में लोगों को भगवान की ओर लगाने के लिए आते हैं, न कि अपनी ओर लगाने के लिए। जो लोगों को अपनी ओर (अपने ध्यान, पूजा आदि में) लगाता है, वह तो भगवद्विरोधी होता है। वास्तव में महात्मा कभी शरीर में सीमित होता ही नहीं।

वास्तविक जीवनी या चरित्र वही होता है जो सांगोपांग हो अर्थात जीवन की अच्छी-बुरी (सद्गुण दुर्गुण,सदाचार, दुराचार आदि) सब बातों का यथार्थ रूप से वर्णन हो। आजकल जो जीवनी लिखी जाती है, उसमें दोषों को छिपाकर गुणों का ही मिथ्यारूप से अधिक वर्णन करने के कारण वह सांगोपांग तथा पूर्णरूप से सत्य होती नहीं है। वास्तव में मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के चरित्र से बढ़कर और किसी का चरित्र क्या हो सकता है। अत: उन्हीं के चरित्र को पढ़ना-सुनना चाहिए और उसी के अनुसार अपना जीवन बनाना चाहिए। जिसको हम महात्मा मानते हैं, उनका सिद्धान्त और उपदेश ही श्रेष्ठ होता है, अत: उन उपदेशों के अनुसार अपना जीवन बनाने का यत्न करना चाहिए।

उपर्युक्त सभी बातों पर विचार करके मैं सभी परिचित संतों तथा सद्गृहस्थों से एक विनम्र निवेदन प्रस्तुत कर रहा हूं। इसमें सभी बातें मैंने व्यक्तिगत आधार पर प्रकट की हैं अर्थात् मैंने अपने व्यक्तिगत चित्र, स्मारक, जीवनी आदि का ही निषेध किया है। मेरी शारीरिक असमर्थता के समय तथा शरीर शान्त होने के बाद इस शरीर के प्रति आपका क्या दायित्व रहेगा- इसका स्पष्ट निर्देश करना ही इस लेख का प्रयोजन है।

1. यदि यह शरीर चलने-फिरने, उठने-बैठने आदि में असमर्थ हो जाए एवं वैद्यों-डाक्टरों की राय से शरीर के रहने की कोई आशा प्रतीत न हो तो इसको गंगाजी के तटवर्ती स्थान पर ले जाया जाना चाहिए। उस समय किसी भी प्रकार की औषधि आदि का प्रयोग न करके केवल गंगाजल तथा तुलसीदल का ही प्रयोग किया जाना चाहिए। उस समय अनवरत रूप से भगवन्नाम का जप तथा कीर्तन और श्रीमद्भगवद्गीता, श्रीविष्णुसहरुानाम, श्रीरामचरितमानस आदि पूज्य ग्रंथों का श्रवण कराया जाना चाहिए।

2. इस शरीर के निष्प्राण होने के बाद इस पर गोपीचन्दन एवं तुलसीमाला के सिवाय पुष्प, इत्र, गुलाल आदि का प्रयोग बिल्कुल नहीं करना चाहिए। निष्प्राण शरीर को साधु परम्परा के अनुसार कपड़े की झोली में ले जाया जाना चाहिए न कि लकड़ी आदि से निर्मित वैकुण्ठी (विमान) आदि में।

जिस प्रकार इस शरीर की जीवित-अवस्था में मैं चरण-स्पर्श, दण्डवत प्रणाम, परिक्रमा, माल्यार्पण, अपने नाम की जयकार आदि का निषेध करता आया हूं, उसी प्रकार इस शरीर के निष्प्राण होने के बाद भी चरण-स्पर्श, दण्डवत प्रणाम, परिक्रमा, माल्यार्पण, अपने नाम की जयकार आदि का निषेध समझना चाहिए। इस शरीर की जीवित-अवस्था के, मृत्यु-अवस्था के तथा अंतिम संस्कार आदि के चित्र (फोटो) लेने का मैं सर्वथा निषेध करता हूं।

3. मेरी हार्दिक इच्छा यही है कि अन्य नगर या गांव में इस शरीर के शान्त होने पर इसको वाहन में रखकर गंगाजी के तट पर ले जाना चाहिए और वहीं इसका अन्तिम संस्कार कर देना चाहिए। यदि किसी अपरिहार्य कारण से ऐसा होना कदापि सम्भव न हो सके तो जिस नगर या गांव में शरीर शान्त हो जाए, वहीं गायों के गांव से जंगल की ओर जाने-आने के मार्ग में अथवा नगर या गांव से बाहर जहां गायें विश्राम आदि किया करती हैं, वहां इस शरीर का सूर्य की साक्षी में अन्तिम संस्कार कर देना चाहिए।

इस शरीर के शान्त होने पर किसी को प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। अन्तिम संस्कारपर्यन्त केवल भजन-कीर्तन, भगवन्नाम-जप आदि ही होने चाहिए और अत्यंत सादगी के साथ अन्तिम संस्कार करना चाहिए।

4. अन्तिम संस्कार के समय इस शरीर की दैनिकोपयोगी सामग्री (कपड़े, खड़ाऊं, जूते आदि) को भी इस शरीर के साथ ही जला देना चाहिए तथा अवशिष्ट सामग्री (पुस्तकें, कमण्डलु आदि) को पूजा में अथवा स्मृति के रूप में बिल्कुल नहीं रखना चाहिए, प्रत्युत उनका भी सामान्यतया उपयोग करते रहना चाहिए।

5. जिस स्थान पर इस शरीर का अन्तिम संस्कार किया जाए, वहां स्मृति के रूप में कुछ भी नहीं बनाना चाहिए, यहां तक कि उस स्थान पर केवल पत्थर आदि को रखने का भी मैं निषेध करता हूं। अन्तिम संस्कार से पूर्व वह स्थल जैसा उपेक्षित रहा है, इस शरीर के अन्तिम संस्कार के बाद भी वह स्थल वैसा ही उपेक्षित रहना चाहिए। अन्तिम संस्कार के बाद अस्थि आदि सम्पूर्ण अवशिष्ट सामग्री को गंगाजी में प्रवाहित कर देना चाहिए।

मेरी स्मृति के रूप में कहीं भी गोशाला, पाठशाला, चिकित्सालय आदि सेवार्थ संस्थाएं नहीं बनानी चाहिए। अपने जीवनकाल में भी मैंने अपने लिए कभी कहीं किसी मकान आदि का निर्माण नहीं कराया है और इसके लिए किसी को प्रेरणा भी नहीं दी है। यदि कोई व्यक्ति कहीं भी किसी मकान आदि को मेरे द्वारा अथवा मेरी प्रेरणा से निर्मित बताये तो उसको सर्वथा मिथ्या समझना चाहिए।

6. इस शरीर के शान्त होने के बाद सत्रहवीं, मेला या महोत्सव आदि बिल्कुल नहीं करना चाहिए और उन दिनों में किसी प्रकार की कोई मिठाई आदि भी नहीं प्रयोग करनी चाहिए। साधु-संत जिस प्रकार अब तक मेरे सामने भिक्षा लाते रहे हैं, उसी प्रकार लाते रहने चाहिए। अगर संतों के लिए सद्गृहस्थ अपने-आप भिक्षा लाते हैं तो उसी भिक्षा को स्वीकार करना चाहिए जिसमें कोई मीठी चीज न हो।

7. इस शरीर के शान्त होने पर शोक अथवा शोक-सभा आदि नहीं करनी चाहिए, प्रत्युत सत्रह दिन तक सत्संग, भजन-कीर्तन, भगवन्नाम-जप, गीतापाठ, श्रीरामचरितमानसपाठ, संतवाणी-पाठ, भागवत-पाठ आदि आध्यात्मिक कृत्य ही होते रहने चाहिए। सनातन हिन्दू संस्कृति में इन दिनों के ये ही मुख्य कृत्य माने गए हैं।

8. इस शरीर के शांत होने के बाद सत्रहवीं आदि किसी भी अवसर पर यदि कोई सज्जन रुपया-पैसा, कपड़ा आदि भेंट करना चाहे तो नहीं लेना चाहिए अर्थात् किसी से भी किसी प्रकार की कोई भेंट बिल्कुल नहीं लेनी चाहिए। जब सत्रहवीं का भी निषेध है तो फिर बरसी (वार्षिक तिथि) आदि का भी निषेध समझना चाहिए।

9. इस शरीर के शान्त होने के बाद इस (शरीर) से सम्बन्धित घटनाओं की जीवनी, स्मारिका, संस्मरण आदि किसी भी रूप में प्रकाशित नहीं किए जाने चाहिए।

अन्त में मैं अपने परिचित सभी संतों एवं सद्गृहस्थों से विनम्र निवेदन करता हूं कि जिन बातों का मैंने निषेध किया है, उनको किसी भी स्थिति में नहीं किया जाना चाहिए। इस शरीर के शान्त होने पर इन निर्देशों के विपरीत आचरण करके तथा किसी प्रकार का विवाद, विरोध, मतभेद, झगड़ा, वितण्डावाद आदि अवाञ्छनीय स्थिति उत्पन्न करके अपने को अपराध एवं पाप का भागी नहीं बनाना चाहिए प्रत्युत अत्यन्त धैर्य, प्रेम, सरलता एवं पारस्परिक विश्वास, निश्छल व्यवहार के साथ पूर्वोक्त निर्देशों का पालन करते हुए भगवन्नाम-कीर्तनपूर्वक अन्तिम संस्कार कर देना चाहिए। जब और जहां भी ऐसा संयोग हो, इस शरीर के सम्बंध में दिए गए निर्देशकों का पालन वहां उपस्थित प्रत्येक सम्बंधित व्यक्ति को करना चाहिए।

रामसुखदास

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