हिमशिखर धर्म डेस्क
काका हरिओम्
प्रतीकरूप में मनाए जा रहे स्वामी रामतीर्थ मिशन, देहरादून के वार्षिकोत्सव–वेदांत सम्मेलन का आज चौथा दिन था.
प्रथम सत्र में श्रीमद्भगवद्गीता के माध्यम से आज पिछली चर्चा को आगे बढ़ाया गया. भगवान ने अर्जुन को संबोधित करते हुए कहा कि साधक का अंतःकरण पवित्र हो जाना ही पर्याप्त नहीं है. उसके बाद भी उसे प्रयत्न करना पड़ता है. कारण, वहां भी अहंकार अपने नए रूप में विराजमान रहता है. ध्यान रहे, सात्विक अहंकार भी योग साधक के लिए उतना ही घातक है, जितना तुच्छ अहंकार.
यहां श्रीकृष्ण यह भी संकेत करते हैं कि यद्यपि योग साधना का क्षय नहीं होता, वह नष्ट नहीं होती, लेकिन वह कब फलवती होगी, यह भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता. हो सकता है योगसिद्धि में अनेक जन्म लग जाएं. समय की सीमा में इसे नहीं बांधा जा सकता. और सच्चा योगी इस बारे में सोचता भी नहीं है. वह तो अपनी पूरी ईमानदारी से साधना करता है, बिना किसी फल की आकांक्षा के.
द्वितीय सत्र क्योंकि परमहंस स्वामी राम के जीवन-दर्शन को समर्पित है, इसलिए इसमें विचार किया स्वामी जी के जीवन में दिखाई देने वाले विरोधाभासों पर.
विदित हो कि जब भी किसी विलक्षण तत्व की आप व्याख्या करेंगे तो ऐसी परिस्थिति आपके समक्ष आकर खड़ी हो जाएगी, जिसमें सही निर्णय ले पाना आपके लिए मुश्किल हो जाएगा. महापुरुषों को समझ पाना इसीलिए अकसर मुश्किल हो जाता है.
परमहंस स्वामी राम एक जगह संन्यास की मर्यादा का पालन करने के लिए अपने परिवार-पूर्वाश्रम की पत्नी, विमाता और पुत्र से मिलने को मना कर देते हैं तो दूसरी जगह कहते हैं कि राम जब भी पहाड़ से नीचे उतरेगा तो सबके सामने इन गैरिक वस्त्रों को फाड़ फेंकेगा क्योंकि अब इसे गुलामों ने भी पहनना शुरू कर दिया है. इन वाक्यों को पढ़-सुन कर ऐसा लगता है मानो उनका मन उहापोह की स्थिति में है. वह अपने लिए गए निर्णय के प्रति विद्रोह कर रहे हैं.
कुछ ऐसी ही विद्रोही आवाज हमें आदिशंकर के जीवन में भी दिखाई देती है, जब वह कहते हैं- जटाएं बढ़ाई हों, मुंडन किया हो, बालों को नोंचा हो या फिर काषाय आदि अलग अलग रंग के वस्त्र पहने हों, लेकिन यदि वह संसार को देखते हुए भी नहीं देखता है, तो समझना चाहिए यह सारा तामझाम दिखावे के लिए है, पेट को भरने के लिए है बस.
Wanted to join but COULD’NT excess