हिमशिखर धर्म डेस्क
काका हरिओम्
आज on line स्वाध्याय प्रकल्प के माध्यम से स्वामी रामतीर्थ मिशन देहरादून के प्रतीकरूप सम्मेलन-वार्षिकोत्सव का छठा दिन था.
प्रथम सत्र में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 6 के अन्तिम श्लोक को समझने का प्रयास किया गया. इस श्लोक में साधना में समर्पण की भूमिका का भगवान् ने विवेचन किया है.
माना कि योग की साधना में विधि, प्रक्रिया और युक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका है, लेकिन यही पर्याप्त नहीं है. साधक को चाहिए कि वह इस तथ्य पर विचार करे और स्वीकार करे कि कौन है, जो उसे साधना करने का बल दे रहा है. उस पर विश्वास करना, उस विराट् के अस्तित्व को स्वीकार करना ही तो श्रद्धा है. यह भी जरूरी है, जिससे सिद्धि प्राप्त होती है. भगवान् की स्वीकृति और प्रत्येक क्षण यह विश्वास कि वह सदैव मेरे पास है, साधक को असीम बल देता है.
इस श्लोक के माध्यम से इस ओर भी भगवान् ने ध्यान दिलाया कि साधना में निखार तब आता है जब जीव विराट्-पुरुष की कृपा का अनुभव करता है.
मेरा आपकी कृपा से सब काम हो रहा है-यह सिर्फ गाने से काम नहीं बनेगा, इस परम सत्य को जीवन में उतारना होगा.
इसी विवेचन के साथ आज आत्मसंयम योग नामक इस छठे अध्याय की पूर्णाहुति हुई.
‘सौभाग्यशाली हूं जो आज एक ऐसे महान व्यक्तित्व के बारे में कुछ कहने का अवसर मुझे मिला है. रोमांचित हूं बादशाह राम का नाम सुनकर. न जाने क्या हो जाता है जब उनका नाम मेरे कानों में पड़ता है या फिर आंखें किसी पुस्तक के पन्ने पर शब्दों को पार करके जब उनकी आन्तरिक दिव्यता का साक्षात् दर्शन करती है’, ये शब्द थे आचार्य शिवेन्द्र जी नागर के, जो उन्होंने आज स्वाध्याय के द्वितीय सत्र में रामप्रेमियों को सम्बोधित करते हुए कहे. वह स्वामी राम के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाल रहे थे.
आचार्यप्रवर ने चैतन्य महाप्रभु के जीवन के साथ उनकी सकारात्मक तुलना करते हुए कहा कि महाप्रभु की जीवनयात्रा शास्त्रज्ञान और पांडित्य से समर्पण की है, जबकि स्वामी जी की कृष्णभक्ति रूप पवित्र गंगधारा ज्ञान के महासमुद्र में समा जाती है.
आचार्य शिवेन्द्र जी ने उन सभी स्थानों के बारे में जानकारी दी जहां विदेश में स्वामी जी ने व्याख्यान दिये थे. आचार्य जी ने स्वामी राम द्वारा प्रतिपादित चेतना के उन चार स्तरों की व्याख्या की जिनमें समूची मानव जाति का विभाजन किया जा सकता है. इसका विवेचन स्वामी जी ने अपने व्याख्यान ‘आत्मा का विकास’ में किया है.
आचार्य जी ने स्वामी जी की दूरदृष्टि की ओर भी इशारा किया. उन्होंने उसी समय भविष्यवाणी कर दी थी कि भारत 1950 से पहले अपनी गुलामी की जंजीरों तोड़ फेंकेगा. उन्होंने कई क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों को प्रेरणा दी-सरदार भगत सिंह भी उनमें से एक हैं.
जनसंख्या नियन्त्रण, नारी शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को उन्होंने उस समय उठाया जब इनके बारे में सोचना अपराध माना जाता था. इसी तरह जब समुद्र पार जाना पाप माना जाता था तब उन्होंनेे कहा कि भारत के युवकों को चाहिए कि वह विदेश जाएं, और वहां से शिक्षा प्राप्त करके अपने देश को समृद्ध करें. कूप मंडूक बनने से किसी का हित नहीं होता. कुएं का मेढक वहीं पैदा होता है और फिर वहीं अपनी जान गंवा देता है.
स्वामी जी ने देशभक्ति को ईशभक्ति का महत्वपूर्ण चरण बताया अर्थात् जो देशभक्त नहीं है वह ईशभक्ति क्या करेगा? यह बिलकुल ऐसे ही जैसे बीए में प्रवेश पाने के लिए 12वीं पास करना जरूरी है.
अन्त में आचार्य प्रवर ने अपने सद्गुरुदेव पूज्य पार्थसारथी जी के श्रीचरणों में कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहा कि उन्होंने यदि बादशाह राम जैसे महान् व्यक्तित्व से परिचित न कराया होता तो जीवन मानो अधूरा रह जाता, फिर नकद धर्म के रूप को न समझ पाता, न ही इस रूप में आपके सामने उपस्थित होता.
नमन है-कोटिशः नमन है.