रुद्र का एक नाम पशुपति भी है। पशुपति के पशु कौन हैं और जिन पाशों में वे पशुबद्ध हैं, वे पाश कौन से हैं? इत्यादि बातों का संक्षिप्त विवेचन यहां प्रस्तुत किया जा रहा है-
हिमशिखर धर्म डेस्क
डा. स्वामी श्यामसुन्दर दास
जीव पाप-पुण्य कर्म करता है और मलात्मक माया से आवृत होकर पुरुष नाम को धारण करता है। चेतन जीव को आवृत करने वाला अज्ञानमय पाश ही मल कहलाता है। उस अज्ञानमय माया के पाश से छुटकारा पाने पर जीव शिव-रूप परमब्रह्म में लीन हो जाता है। प्राकृतिक भोगों को भोगने के लिए किया गया कर्म ही उसका आवरण में कारण है। मल का नाश होने से वह पाश-बन्धन टूट जाता है। विद्या, कला, राग, काल तथा नियति इन्हीं को कला आदि कहते हैं। कर्म-फल का उपभोग करने के लिए जीव प्रकृति के पाश में फंसता है। पाश-बद्ध जीव को पुरुष पशु तथा शरीर रूपी पाश में आबद्ध अन्य सभी प्राणी भी पशु हैं।
कर्म दो प्रकार के हैं-पुण्य कर्म तथा पाप कर्म। पुण्यकर्मों से स्वर्ग आदि सुख प्राप्त होता है तथा पापकर्म से नरक आदि दुःख भोगना पड़ता है। फल का उपभोग करने लेने पर पापकर्म का नाश हो जाता है। यद्यपि शरीर आदि प्राकृतिक तत्व का चेतन से कोई सम्बन्ध नहीं है परन्तु अज्ञानवश जीवन ने उसे अपने आप में मान रक्खा है। यह प्रकृति है जो जीव को नचा रही है। यह जीव शरीर रूपी खोल में प्रवेश कर इन्द्रिय-द्वारों से भोगों को भोगता है। विद्या से ज्ञान-शक्ति को तथा कला से क्रियाशक्ति को वह अभिव्यक्त करता है।
अव्यक्त प्रकृति त्रिगुणात्मिका है, समग्र संसार इसी से उत्पन्न होता है और प्रलयकाल में इसमें लीन हो जाता है। ये त्रिगुण सत्व, रज और तम नाम से प्रख्यात हैं। सत्व प्रकाशमय तथा सुख रूप हैं। रज दुःखरूप तथा क्रियाशक्ति से युक्त हैं। तम मोह व जड़ता का हेतु है। सात्विक वृति वाले की ऊध्र्वगति होती है, तामसी वृति वाला अधोगति को प्राप्त होता है और राजसी वृति कामनाएं, वासनाएं व मध्यस्थिति को सूचित करता है।
शिवपुराण में उपर्युक्त तथ्य को निम्न श्लोकों में दर्शाया गया है-
स पश्यति शरीरं तच्छरीरं तन्न पश्यति।
तौ पश्यति परः कश्मितावुभौ तं न पश्यतः।।
शरीर रूपी पुर में अवस्थित जीव शरीर को देखता है पर शरीर इस जीव को नहीं देखता। शरीर और शरीरी इन दोनों को इनसे परे विद्यमान कोई अन्य ही देखता है। लेकिन ये दोनों उसे (ईश्वर को) नहीं देखते। माया के पाशों से बंधा यह जीव सुख-दुःखात्मक भोगों को भोगा करता है। यह पशु तो उस लीलाधर की लीला का साधन है। पिण्ड की दृष्टि से साग्नि-आत्मतत्व पशुपति है, प्राण पाश है, इन्द्रियां व स्थूल शरीर के अंगोंपांग पशु हैं। यह प्राण इन इन्द्रियों व स्थूल शरीर को परस्पर बांधे हुए हैं। वस्तुतः यह समग्र प्राणि जगत पशुकोटि में आ जाता है। इसका नियामक भगवान पशुपति है और इस प्राणिजगत को वह जिन साधनों से बांधता है वे सब पाशकोटि में आ जाते हैं।
वेदों व ब्राह्मणादि वैदिक ग्रंथों में पशु एक संज्ञा है जो कि एक विशिष्ट स्थिति में ईश्वर, जीव, प्रकृति व प्राकृतिक तत्वों
के लिए प्रयुक्त हुई है। सृष्टि यज्ञ के समय यह परमपुरुष नारायण भगवान भी पशु बना है यथा-
सप्तास्यासन् परिधयः त्रिः सप्तसमिधः कृताः।
देवा यद् यज्ञं तन्वाना अबघ्नन् पुरुषं पशुम्।। ऋ 10/90/15
अर्थात् देवों, ब्रह्माण्डगत शक्तियों ने जब सृष्टि-यज्ञ का विस्तार किया तो उसी परिधियां सात थी और 21 समिधाएं थीं और उनमें घृतादि यज्ञ-सामग्री के लिए पुरुष-पशु को बांधा।
यहां पुरुष-पशु परमपुरुष नारायण भगवान् हैं क्योंकि वे सर्वहुत बने हैं। निराकार परब्रह्म की आहुति क्या हो सकती है? अतः ये पुर में स्थित प्रत्यक्ष ब्रह्म हैं जिन्हें कि आहुति रूप में डाला गया है। एक स्थिति में निराकार परब्रह्म भी पशु हैं जिनको परम योगीजन भक्षण किया करते हैं अन्न पशु है (अन्न पशवः)।
कहने का तात्पर्य यह है कि वेदों में पशु शब्द आने मात्र से सामान्य सिंहादि पशु का ही ग्रहण करना उपयुक्त नहीं है। प्रकरण के आधार पर यह निश्चय करना होगा कि किस पशु का यहां प्रमुख रूप से वर्णन है।
रुद्र का वाहन है चूहा
चूहा रुद्र का वाहन माना जाता है, यह गणेश का भी वाहन है। गणेश का वाहन तो इसलिए है कि यह बड़ा बुद्धिमान् होता है, बड़े-बड़े मजबूत फन्दों को काट देता है। अपने बिल के कई मुख बनाकर रहता है। बलवान् शत्रु के आने पर किसी भी मुख से बाहिर जा सकता है। इसी प्रकार गणेश भी अपने गण को बलवान् शत्रु से बचाता है। लेकिन इसके विपरीत यह चूहा रुद्र का वाहन इसलिए है कि यह प्लेग आदि फैलाने में रुद्र का वाहन बनता है। रुद्र इस पर सवार हो प्लेग द्वारा नरसंहार करता है। चूहों द्वारा वह प्लेग अन्य मनुष्य आदि प्राणियों की मृत्यु में कारण बनता है।