अपनी उपयोगिता को पहचानिए, समाज की जरूरत बनिए

Uttarakhand

हिमशिखर धर्म डेस्क

कल शाम सीनियर सिटिजन्स सोसायटी, प्रेमनगर, देहरादून (उत्तराखंड) ने हिन्दुत्व के मूल तत्व को समझने और इसके अनुसार 60 वर्ष से बड़ी आयु के नागरिकों की समाज के निर्माण में भूमिका पर एक वेबिनार का आयोजन किया था, जिसमें आचार्य श्री काका हरिओम् – स्वामी रामतीर्थ एजुकेशन सोसायटी, दिल्ली के उपाध्यक्ष ने उपस्थित श्रोताओं को संबोधित किया.

काका जी का कहना था कि अपने अपने कार्यक्षेत्र में लंबे अनुभवों को समेटे आप सब महानुभावों के सामने अपने अनुभवों को साझा करते हुए मुझे हार्दिक प्रसन्नता हो रही है.

हिन्दुत्व के बारे में काकाजी का कहना था कि इसका एक रूप आसिंधु सिंधु पर्यन्त है, तो दूसरा है इसका अनंतरूप. इसे सनातन धर्म भी कहा गया है. यह जीवन के मूलभूत प्रश्नों पर विचार करता है और इस जीवन में ऐश्वर्य प्रदान करता हुआ आत्मतत्व से जोड़ता है, जिससे अमरता का अनुभव होता है. इस प्रकार हिन्दू होने का अर्थ है, एक ऐसी विशेष जीवनशैली को अपनाना, जिसमें अनेकता में एकता, विभिन्नता में अभिन्नता की व्यापक दृष्टि छिपी है.

जब भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की बात की जाती है, तो प्रश्न उठता है, इससे पक्षपात होगा. ऐसे लोग भूल जाते हैं कि संपूर्ण वसुधा को अपना परिवार मानने की भावना हिन्दुत्व है, सबके सुख की कामना हिन्दू करता है, सबमें ईश्वर के दर्शन की बात हिन्दू धर्मशास्त्रों में ही की गई है. जहां तक खामियों का सवाल है, तो किस विचारधारा में नहीं हुई है. तथाकथित बुद्धिजीवी दूसरों से अपेक्षा करते हैं सौ प्रतिशत की और जब अपनी बारी आती है, तो कारणों को गिनाकर कन्नी काट जाते हैं. हिन्दू धर्मग्रंथ ने समय समय पर unpractical बातों को हटाया है. इनका लक्ष्य है प्राणिमात्र का कल्याण. श्रुतरिवार्थं स्मृतिरन्वगच्छत्.  इसीलिए यह नारा नहीं है-‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं.’ यह यथार्थ है.

बढ़ती उम्र को कैसे सही शेप दिया जाए, इस बारे में काका जी ने कुछ सुझाव दिए-

  • हम अपनी ऐसी आदतों को सुधारें, जो हमारी प्रसन्नता में रुकावट पैदा करती हैं, हमें अपने हितैषियों से दूर ले जाती हैं. यह हममें से किसी से छुपी हुई नहीं हैं. लोगों का मानना है पक्की आदतें छूटती नहीं हैं. लेकिन मैं इस बात से सहमत नहीं हूं. आदमी चाहे तो क्या हो नहीं सकता. ऐसा हुआ है. कई उदाहरण हैं इसके. थोड़ी हिम्मत चाहिए बस. अपने भीतर छिपी संभावनाओं को पहचानने की जरूरत है बस.
  • अपनी सार्थकता को पहचानिए. जब आप स्वयं ही खुद को अनुपयोगी मान लेंगे, तो आपकी अहमियत खत्म हो जाएगी. अपनी दुर्गति के लिए आप खुद दोषी हैं.
  • खुद को व्यस्त रखिए. ऐसी संस्थाओं और प्रकल्पों के साथ जुड़िए जहां आपकी जरूरत है. हिन्दू  मंदिर और संस्थाओं  को आप से अनुभवी लोगों की जरूरत है. आपको सम्मान मिलेगा, संतुष्टि मिलेगी, प्रसन्नता का अनुभव होगा और निश्चित रूप से आपके योगक्षेम का जिम्मा भगवान् स्वयं लेंगे.
  • पार्कों में बैठकर ताश फेंटने से आप अपनों से और अच्छे लोगों से कट जाएंगे. फिर आप अपनी नई पौध को क्या संदेश देंगे?
  • इसी तरह राजनीति की फूहड़ बहस को भी अपने से दूर रखिए. अपनी ऊर्जा को आप जैसे खेत में बोएंगे, वैसी ही फसल काटेंगे. मस्त रहिए, तंदुरुस्त रहिए.
काकाजी ने अपने उद्बोधन में युवा शक्ति की भी बात की. उनका कहना था कि अनुभव और प्रबल ऊर्जा का यदि साथ बन जाए, तो असंभव भी संभव हो सकता है. इस प्रकार बुजुर्गों को चाहिए कि वह अपनी अनुभव रूप संपत्ति को बांटें और युवाओं को चाहिए कि वह कृतज्ञतापूर्वक उसे आत्मसात्  करें.

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