परमात्मा को अपना बनाने का प्रयास ही भक्ति है, और यह प्रयास हमें स्वयं करना पड़ेगा। इसका दूसरा पक्ष यह है कि परमात्मा तो हमें अपना बना चुका है। उसने तो जिस दिन हमें इस संसार में भेजा, अपना बनाकर ही भेजा था। लेकिन, दुनिया के इस भीड़भरे झूले के चक्कर में उलझकर हम भूल जाते हैं कि अब उसे अपना बनाएं।
दुनिया में बहुत-सी चीजें बनाना पड़ती हैं। लेकिन, भगवान को बनाना नहीं पड़ता। वह बना-बनाया है। बस, उसे तो अपना बनाना है। हमारे लोकजीवन में दो शब्द बड़े प्यारे हैं- बन्ना-बन्नी, जो दूल्हा-दुल्हन के लिए प्रयोग किए जाते हैं। दूल्हा-दुल्हन बनते हैं, होते नहींं। बनाया और अपने उद्देश्य के बाद फिर खत्म। इसीलिए उनको बन्ना-बन्नी कहा जाता है। भगवान को अपना बनाना हो तो चौबीस घंटे में कुछ समय मौन जरूर साधिए।
मौन दो प्रकार का होता है। एक मौन में हम बाहर से तो बोलना बंद कर देते हैं, लेकिन आंतरिक आयोजन चलते रहते हैं। यह मौन नहीं, चुप्पी है। वास्तविक मौन वह होता है जिसमें भीतर भी सब रुक जाता है। यानी मानसिक विश्राम। जैसे ही यह मौन घटता है, परमात्मा बहुत स्पष्ट दिखने लगता है और उसी समय हमें उसे अपना बना लेना चाहिए। जिसने परमात्मा को अपना बना लिया, उसको सारे संघर्षों के बीच भी एक उम्मीद मिल जाती है कि कोई और है, जो मदद करेगा।