हिम शिखर ब्यूरो
नई दिल्ली
जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय श्रृंखला में बर्फ और ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, हिमालय-काराकोरम (एचके) श्रृंखला में सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों में जल आपूर्ति में बदलाव हो रहा है।
दक्षिण एशिया के एचके क्षेत्र, जिसे अक्सर एशिया का वाटर टावर या थर्ड पोल कहा जाता है, पृथ्वी का सबसे ज्यादा ग्लेशियर वाला पर्वतीय क्षेत्र है। जलवायु परिवर्तन पर एचके नदियों की प्रतिक्रिया को समझना लगभग 1 अरब आबादी के लिहाज से काफी अहम है, जो काफी हद तक इन जल संसाधनों पर निर्भर है।
पत्रिका ‘साइंस’ में प्रकाशित एक शोध “ग्लेसियो-हाइड्रोलॉजी ऑफ द हिमालया-काराकोरम” के अनुसार, कुछ अपवादों और भारी अनिश्चितताओं के साथ इन नदियों में कुल नदी अपवाह, ग्लेसियर के पिघलने और मौसमी प्रवाह में 2050 तक बढ़ोतरी का अनुमान है।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, इंदौर के सहायक प्रोफेसर डॉ. मोहम्मद फारुक आजम की अगुआई में हुए शोध में क्लाइमेट, वर्षा परिवर्तन और ग्लेशियरों के सिकुड़ने के बारे में ज्यादा सटीक समझ- काफी हद तक आम सहमति के करीब- तक पहुंचने के लिए 250 से ज्यादा शोध पत्रों के परिणामों को इकट्ठा किया गया।
शोध से पता चलता है कि गंगा और ब्रह्मपुत्र बेसिनों की तुलना में सिंधु के लिए ज्यादा जल विज्ञान संबंधी महत्व के साथ ग्लेशियर और बर्फ का पिघलना एचके नदियों के अहम घटक हैं।
डॉ. आजम ने कहा, “हिमालयी नदी बेसिन में 27.5 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र आता है और इसका 5,77,000 वर्ग किलोमीटर का सबसे बड़ा सिंचित क्षेत्र है, और 26,432 मेगावाट की दुनिया की सबसे ज्यादा स्थापित पनबिजली क्षमता है। ग्लेशियरों के पिघलने से क्षेत्र की एक अरब से ज्यादा आबादी की पानी की जरूरतें पूरी होती हैं, जो इस सदी के दौरान ग्लेसियरों के टुकड़ों के पिघलने से काफी हद तक प्रभावित होगी और धीरे-धीरे जरूरी पानी आपूर्ति रुक जाएगी।”
उन्होंने कहा कि “क्षेत्रवार, हर वर्ष की जल आपूर्ति पर कुल प्रभाव अलग-अलग होता है। ग्लेशियर से पिघलने से निकला पानी, ग्लेसियरों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव गंगा और ब्रह्मपुत्र घाटियों की तुलना में सिंधु घाटी के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है, जो मुख्य रूप से मानसून की वर्षा से पोषित होती हैं और वर्षा के पैटर्न में बदलाव के कारण मुख्य रूप से प्रभावित होती हैं।”
डॉ. आजम की एक पीएचडी छात्रा स्मृति श्रीवास्तव और शोध की सह-लेखिका ने कहा, “21वीं सदी के दौरान नदी अपवाह की मात्रा और मौसमी तत्व में अनुमानित रुझान जलवायु परिवर्तन परिदृश्यों की एक पूरी श्रृंखला के अनुकूल है। कुल नदी अपवाह, ग्लेसियर पिघलना और मौसमी प्रवाह 2050 के दशक तक कुछ अपवादों व अनिश्चितताओं के साथ बढ़ने और फिर घटने का अनुमान है।”
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी (डीएसटी) विभाग, भारत सरकार द्वारा वित्तपोषित इन्सपायर फैकल्टी फेलोशिप समर्थित कार्य में हिमालयी जल संसाधनों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को समझने से जुड़ी खामियों की पहचान की है और इन खामियों को दूर करने के संभावित समाधानों को रेखांकित किया है।
नीति निर्माताओं को कृषि, पनबिजली, पेयजल, स्वच्छता और खतरनाक स्थितियों के लिए टिकाऊ जल संसाधन प्रबंधन को नदियों की वर्तमान स्थितियों और भविष्य में संभावित बदलावों के आकलन की जरूरत है।
लेखकों ने चिह्नित खामियों को दूर करने के लिए एक चरणवार रणनीति की सिफारिश की है :
चरण-1 में निगरानी नेटवर्क का विस्तार शामिल है, जो चुनिंदा ग्लेसियरों पर पूर्ण रूप से ऑटोमैटिक मौसम केंद्रों पर लागू किया जाए। वे ग्लेसियर क्षेत्र और मात्रा, ग्लेसियर के स्वरूप, पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने और स्नो व आइस बढ़ाने की प्रक्रिया की जांच के लिए तुलनात्मक परियोजनाओं के विकास का भी सुझाव देती है।
इसके अलावा, चरण-2 इन अध्ययनों की जानकारी को भावी बदलाव के अनुमानों में अनिश्चितता की कमी के लिए ग्लेशियर हाइड्रोलॉजी के विस्तृत मॉडलों में लागू करने की सिफारिश करता है।