एक दिन श्रीकृष्ण ने सत्राजित से कहा, ‘आप ये मणि राजकोष में दे दीजिए, ताकि राज व्यवस्था के पास भी धन आ जाए।’ सत्राजित ने मणि देने से मना कर दिया तो श्रीकृष्ण ने कहा कि कोई बात नहीं।
सत्राजित का एक भाई था प्रसेनजित। उसने अपने भाई को बिना बताए वो मणि ले ली और जंगल में शिकार खेलने चला गया। जंगल में एक शेर प्रसेनजित को मारकर खा गया और मणि वही गिर गई।
सत्राजित ने पूरे द्वारिका में ये खबर फैला दी कि कृष्ण ने मेरी मणि चुराई है और मेरे भाई प्रसेनजित की हत्या कर दी है।
देखते ही देखते श्रीकृष्ण बदनाम हो गए। उन पर चोर और हत्यारा होने का कलंक लग गया। श्रीकृष्ण ने विचार किया कि इस कलंक को मिटाना होगा। मणि की खोज में वे जंगल की ओर गए।
जंगल में श्रीकृष्ण को शेर के पैरों के निशान दिखे और निशान के पास हड्डियों का ढेर दिखा। श्रीकृष्ण समझ गए कि प्रसेनजित को शेर ने मार दिया है और मणि यहीं कहीं गिर गई होगी।
श्रीकृष्ण मणि खोजने लगे। वहीं पास में एक गुफा के बाहर कुछ बच्चे मणि से खेल रहे थे, श्रीकृष्ण ने मणि देख ली। उस गुफा में जामवंत रहते थे। श्रीकृष्ण ने वह मणि जामवंत से लेकर सत्राजित को दे दी।
सत्राजित को अपनी गलती पर बहुत पछतावा हुआ। श्रीकृष्ण बोले, ‘सत्राजित, मैं कलंक लेकर जीना नहीं चाहता। जीवन में जब किसी को ऐसे काम का कलंक मिले जो उसने नहीं किया है तो बहुत दुख होता है। ऐसी स्थिति में निराश हो जाओ या आक्रामक हो जाओ, इन दो रास्तों के अलावा एक और रास्ता है बुद्धिमानी से उस गलत आरोप की जड़ में जाओ और वहां से खुद को निर्दोष साबित करो। इसमें धैर्य और समझ काम आती है।’
सीख – जीवन में जब कभी झूठे आरोप का सामना करना पड़े तो बुद्धिमानी से काम लेना चाहिए। समझदारी और धैर्य के साथ खुद को निर्दोष साबित करना चाहिए।