तप बल से ही ब्रह्मा जगत को रचते हैं। तप के बल पर ही विष्णु संसार का पालन करते हैं। तप ही के बल से रुद्र संहार करते हैं। इतिहास के महामानवों, ऋषियों, तत्वदर्शियों, देवदूतों की महत्ता उसके तप के कारण ही प्रकाशवान हुई है। लौकिक जीवन में पग-पग पर कठोर श्रम, पुरुषार्थ, साहस, मनोयोग की महत्ता स्पष्ट है। मनुष्य के लिए तो अभीष्ट उपलब्धियों के लिए भी तप ही एकमात्र मार्ग है।
हिम शिखर ब्यूरो
तप की शक्ति अपार है। सूर्य तपता है, इसलिए ही वह समस्त संसार को जीवन प्रदान करने लायक प्राण भंडार का अधिपति है। ग्रीष्म की उर्जा ऊर्जा से जब वायु मंडल भली प्रकार तपता है तो वर्षा होती है। सोना तपता है तो खरा, तेजस्वी और मूल्यवान बनता है। जितनी भी धातुएं हैं, वे सभी खान से निकलते समय दूषित, मिश्रित व दुर्बल होती हैं, पर जब उन्हें कई बार भट्टियों में तपाया, पिघलाया और गलाया जाता है तो वे शुद्ध एवं मूल्यवान बन जाती है।
तप आधार सब सृष्टि भवानी यह लिखकर संत तुलसीदास ने इसे महिमा मंडित किया है। तपस्वी अपने जीवन की दशा स्वयं निर्धारित करते हैं, जबकि सामान्य व्यक्तियों को पूर्णतः परिस्थितियों के अधीन होता है। तपस्वी तप की उर्जा से परिस्थिति की प्रतिकूलता को भी अपने अनुकूल बना लेते हैं।
संसार के पापों को हरने के लिए स्वर्ग लोक से उतर कर गंगा जी का पृथ्वी लोक पर अवतरण के पीछे राजा भगीरथ की तपस्या ही प्रधान है। भगवान श्रीराम के द्वारा असुरों का शमन हुआ। लेकिन राम जन्म के पीछे स्वयंभू मनु और शतरूपा का तप और दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ ही प्रधान है। सीता जन्म के संबंध में कथा है कि ऋषियों ने अपना थोड़ा-थोड़ा खून एक घड़े में जमा करके भूमि में गाढ़ा। वह रक्त ही कालान्तर में परिपक्व होकर सीता के रूप में जनक को हल जोतते समय मिला। ऋषियों का रक्त ही सीता बनकर असुरों के विध्वंस का कारण बना। भगवान श्रीकृष्ण को जन्म देने के लिए वासुदेव देवकी ने कठोर तप किया। इतना ही नहीं धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश करने वाली अवतारी आत्माएं यों ही अवतरित नहीं होती। उनके पीछे तपस्वियों की तप की शक्ति होती है। इस प्रकार के असंख्या उदाहरण इतिहास पुराणों में उपलब्ध हैं।
वस्तुतः तप करना या तपश्चर्या एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिसकी कुछ मर्यादाएं हैं। सनक में आकर कुछ भी करते रहने का नाम तप नहीं है। नमक न खाना, नंगे पांव चलना, भूखे रहना आदि से शारीरिक कष्ट तो होता है, किंतु आध्यात्मिक लाभ प्राप्त नहीं होता है। सुनिश्चित संकल्प के साथ तपश्चर्या पर अमल गुरु के निर्देशन में ही करना चाहिए। तप से हमारे सुप्त संस्कारों का जागरण होता है और यह जागरण हमारे आध्यात्मिक विकास को गति देता है। तप का उद्देश्य मात्र उर्जा का अर्जन ही नहीं, उस उर्जा का संरक्षण व सुनियोजन भी है। जो अपनी उर्जा को संरक्षित कर लेता है वह सामथ्र्यवान हो जाता है।तपश्चर्या कोई चमत्कार न होकर स्वयं का परिष्कार है। जहां परिष्कार है वह चमत्कार स्वतः होते हैं, क्योंकि परिष्कार से चित्त उर्जावान होता है। अहंकार तप के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है।
पौराणिक कथाओं से यह पता चलता है कि तपस्या करने में असुर सबसे आगे रहे हैं। तपस्या के द्वारा वे भगवान से मनचाहा वरदान प्राप्त करते रहे हैं। आलस्य को त्यागकर वर्षों तक कठोर तपस्या करने का साहस उनमें होता है, किंतु अपने अहंकार का त्याग न कर पाने के कारण वे तप से प्राप्त उर्जा का दुरुपयोग करते थे। हमें इनका सदुपयोग चित्त-शुद्धि के लिए करना चाहिए। चित्त जितना शुद्ध होगा उसी अनुपात में मन स्थिर होता है। मन के स्थिर होने पर संस्कार शुद्ध होते हैं। तपस्या किए बगैर किसी को सिद्धि प्राप्त नहीं होती। इतिहास साक्षी है कि जैन धर्म के तीर्थंकर महावीर स्वामी और बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति कठोर तपस्या के बाद ही हुई थी।
इस दौर में ऐसे हथियार तो बन रहे हैं, जो विपक्षी देशों को नष्ट करके अपनी विजय पताका फहरा सके, लेकिन ऐसे अस्त्र नहीं बन पा रहे हैं जो लगाई गई आग को शांत कर सके। जिनके दिलों और दिमागों में नृशंसता की आग जलती है, उनमें शांति एवं सौहार्द प्रवाहित कर सके। ऐसे शांति अस्त्रों का निर्माण वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में नहीं हो सकता है। प्राचीन समय में जब भी इस प्रकार की आवश्यकता की जरूरत महसूस हुई तो वनों में तप साधना के महान प्रयत्नों के द्वारा ही शांति अस्त्र तैयार किए गए हैं। वर्तमान काल में भी अनेक पुण्य आत्माएं इसी प्रयत्न के लिए कंदराओं में घन-घोर तप में लगी हुई हैं।