हिमशिखर शिक्षा डेस्क
एक गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करने वालों का अंतिम दिन था। विद्यार्थी घर लौटने के लिए काफ़ी उत्साहित थे।
सभी शिष्यों के एकत्रित होने पर गुरुदेव बोले, ‘प्रिय शिष्यो! आज इस गुरुकुल में आपका अंतिम दिन है। मैं चाहता हूं कि जाने से पहले आप सभी एक छोटी-सी परीक्षा देने के लिए एक दौड़ में भाग लें। इस दौड़ में कहीं आपको कूदना होगा, कहीं पानी में उतरना होगा एवं अंत में अंधेरी जगह से निकलना भी होगा। तो क्या आप तैयार हैं?’
सभी शिष्य बोले- ‘जी गुरुदेव! हम तैयार हैं।’
दौड़ आरम्भ होते ही सभी शिष्य तीव्र गति से भागने लगे। वे सभी बाधाओं को पार करते हुए अंत में एक ऐसी जगह पर पहुंचे जहां बहुत अंधेरा था।
शिष्य अंदर गए तो वहां स्थान-स्थान पर नुकीले पत्थर भी पड़े थे। पत्थरों के चुभने से सभी को असहनीय पीड़ा हो रही थी।
सभी ने जैसे-तैसे दौड़ समाप्त की और गुरुकुल पहुंचे।
गुरु ने कहा, ‘शिष्यों, मैं देख रहा हूं कि तुम लोगों में से कुछ ने दौड़ अतिशीघ्र पूर्ण कर ली और कुछ ने अधिक समय लिया, ऐसा क्यों?’
एक शिष्य ने कहा, ‘गुरुदेव हम सभी साथ-साथ ही दौड़ रहे थे परंतु अंधेरे स्थान पर पहुंचते ही अलग स्थिति आ गई। कोई एक-दूसरे को धक्का देकर आगे निकल रहा था तो कोई संभल-संभल कर आगे बढ़ रहा था। कुछ तो ऐसे भी थे जो कि पांव में चुभ रहे पत्थरों को उठा-उठाकर अपनी जेब में भर रहे थे, जिससे उनको समय लग रहा था। इसलिए सभी ने अलग-अलग समय पर दौड़ पूर्ण की।’
गुरु ने पूछा, ‘जिन शिष्यों ने पत्थर उठाए, वे कारण बताएं।’
उनमें से एक शिष्य ने कहा, ‘हमें लगा कि जो पीड़ा हमने सही वो पीछे आने वाले लोगों को न सहनी पड़े।’
गुरुदेव बोले, ‘ठीक है जिन्होंने पत्थर उठाए हैं वे आगे आएं और मुझे पत्थर दें।’
कुछ शिष्य सामने आए और वे जेब से पत्थर निकालने लगे किंतु निकालते समय उन्होंने देखा कि जिन्हें वे पत्थर समझ रहे थे, वे दरअसल बहुमूल्य हीरे थे। सभी आश्चर्य में पड़ गए और गुरुदेव की ओर देखने लगे। गुरु बोले, ‘शिष्यों, मैंने ही इन्हें अंधेरी जगह पर डाला था ताकि पता लग सके कि अपनी पीड़ा के साथ-साथ अन्य लोगों की पीड़ा को कौन समझ सकता है। जिन्होंने ऐसा किया उन्हें मेरी ओर से ये भेंट है।’