पंडित हर्षमणि बहुगुणा
महाभारत से सीखा जा सकता है कि यदि समय रहते अपने बच्चों की अनुचित बातों को नहीं रोका तो परेशानी अवश्य होगी। महाभारत से अनेकों शिक्षाएं मिलती हैं जो आज के इस वैश्विक महामारी के समय स्पष्ट दिखाई दे रही है । बहुत पीड़ा है जब हमने न जाने कितने ही महापुरुषों को अकाल कवलित होते देखा है । असहनीय वेदना है , अकल्पनीय गमन है, पर है अपरिहार्य परिस्थिति, जिसे परिवर्तित नहीं किया जा सकता । न जाने कितने ही बुजुर्गों ने अनहोनियां देखी । कितनी ही माताओं की गोद सूनी हो गई , कितनी बहिनों ने अपने भाईयों को खो दिया। कितनी देवियों की मांग उजड़ गई । कितने ही अनाथ हो गए पर कोई कुछ भी नहीं कर सकता है न कुछ बदल सकता है । महामारी के अतिरिक्त भी तो अनहोनी घटना घटित हो जाती है फिर किसे दोष दिया जा सकता है , केवल और केवल अपने भाग्य को या अपने गलत संस्कारों को या कोई अन्य कारण ?
अब यदि इस प्रकार की अनहोनी घटना हो गई तो ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि जो दुर्घटना हमारे साथ हो गई वह किसी दूसरे के साथ न हो, मेरा बेटा, मेरा भाई, मेरा पति, मेरा पिता,माता,सगा,सम्बन्धी यदि भगवान को प्यारा हो गया है तो ‘ ऐसा ‘! किसी के साथ भी ना हो ।
ऐसी दुर्भावना मन में घर न करने पाय कि मेरा चमन उजड़ गया तो सबका चमन उजड़ जाय। यह सीख द्रोपदी से सीखें। अश्वत्थामा ने द्रोपदी के सोते पांचों सुपुत्रों को मौत के घाट उतार दिया था, द्रोपदी बार – बार उनके शवों के उपर मूर्छित होकर गिरती थी और अचानक शेरनी की तरह दहाड़ उठी कि मेरे पुत्रों को मारने वाला जीवित है ? और आप सब मुझे शोक त्याग का उपदेश दे रहे हैं ।
“अर्जुन ने अश्वत्थामा को पकड़ कर द्रोपदी और युधिष्ठिर के सम्मुख खड़ा कर कहा – यह है तुम्हारे पुत्रों का हत्यारा ! और श्री हीन अश्वत्थामा को लज्जा से सिर झुकाये देखना द्रोपदी को असह्य हो गया और हृदय में करुणा उमड़ पड़ी और बोली —
मुच्यतां मुच्यतामेष ब्राह्मणो नितरां गुरु: ।
ये आचार्य पुत्र हैं , इन्हें छोड़ दीजिए । मैं माता हूं, पुत्रों के मारे जाने से मुझे मर्मान्तक पीड़ा है, मैं नहीं चाहती कि ऐसी ही पीड़ा इनकी माता को भी हो । मेरे पुत्र तो अब जीवित नहीं हो सकते, अतः इनके बन्धन शीघ्र खोल दीजिए । यह एक मां की हृदय की पीड़ा थी जो करुणा से आर्द्र होकर छलकी । वास्तव में जो नहीं होना था वह तो हो गया अभी भी समय है आगे ऐसी अनहोनी को रोकने का यथासंभव प्रयास किया जाना जरूरी है।
आज इस महामारी ने रिश्तों को तार – तार कर दिया है , किसी को सम्बेदना के दो शब्द भी नहीं कह सकते हैं । परिजनों पर हाथ भी नहीं लगा सकते हैं। इस विकट घड़ी में एक दूसरे के साथ होना चाहिए था पर — ! दूसरे का धर्म यदि अच्छा भी लग रहा है और अपना धर्म गुण रहित भी है तब भी वह कल्याणकारी ही है। फिर मानव धर्म सर्वोपरि है, उसका पालन करना आवश्यक है ।
– गीता में भगवान श्री कृष्ण ने यही उपदेश तो दिया है —
श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।।
“अनहोनी के लिए समस्त मानव जाति दु:खी है और ईश्वर से प्रार्थना करती है कि इस महामारी से निपटने की शक्ति मिले और जो भी घटित हो गया है उसकी पुनरावृत्ति न हो । मां पुण्यासिनी जगदम्बा सबकी रक्षा व सुरक्षा करें प्रार्थना में अपार शक्ति है सब प्रार्थना करेंगे तो सफलता अवश्य मिलेगी ।
और यह भी तो कहा गया है —
उत्सवे व्यसने चैव दुर्भिक्षे राष्ट्रविप्लवे ।
राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धव: ।।