हिमशिखर धर्म डेस्क
किसी नगर में एक धर्मपरायण व्यक्ति रहता था। वह सदैव ईश-भक्ति में लीन रहता और इस बात का हमेशा ख्याल रखता कि उसके द्वारा किसी का अहित न हो। उसे इस बात का भी पूरा भरोसा था कि यदि वह दूसरों का अहित नहीं करेगा तो उसका भी अहित नहीं होगा।
वह हमेशा भगवान से प्रार्थना करता कि उस पर कृपा बनाएं रखें और उसे कभी धर्म के मार्ग से अलग न होने दें। एक रात उस व्यक्ति ने एक अजीब सपना देखा। उसने देखा कि वह समुद्र किनारे अपने आराध्य देव के साथ चला जा रहा है और आकाश में उसके जीवन के तमाम दृश्य एक-एक करके दृष्टिगोचर हो रहे हैं।
हर दृश्य में समुद्र की रेत पर उसके पगचिह्नों के साथ एक और जोड़ी पदचिह्न भी पड़ते जा रहे थे। इसका मतलब था कि उसके आराध्य प्रभु भी उसके साथ चल रहे थे और दूसरी जोड़ी पदचिह्न उन्हीं के थे। धीरे-धीरे उसके जीवन का अंतिम पड़ाव आ गया। यह दृश्य उसकी आंखों के सामने से गुजरने पर जब उसने पलटकर रेती के पदचिह्नों को देखा तो यह देखकर हैरान रह गया कि उसके जीवन-पथ में अनेक जगहों पर एक ही जोड़ी पदचिह्न नजर आ रहे थे। उसे यह भी पता चला कि वे पदचिन्ह उसके जीवन की उन घड़ियों के थे, जब वह किसी संकट अथवा दु:खी अवस्था में था।
यह अनुभूति होने पर वह हैरान हो गया और उसने अपने आराध्य से पूछा – ‘प्रभु, मैं तो समझता था कि आपकी कृपा सदैव मेरे ऊपर बनी रही है और आप जीवन के प्रत्येक क्षण में मेरे साथ-साथ चले हैं। किंतु यह दृश्य तो मुझे विचलित कर रहा है। मैं देख रहा हूं कि जब-जब मेरे जीवन में कोई संकट या विपत्ति की घड़ी आई, तो मैं अकेला ही चला।
मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि जब मुझे आपकी सबसे अधिक आवश्यकता थी, तब आपने मेरा साथ कैसे छोड़ दिया? क्या मेरी भक्ति में कोई खोट रह गई प्रभु? यह सुनकर प्रभु ने कहा – ‘वत्स, तुम्हारा सोचना गलत है। मैं अपने भक्तों का साथ कभी नहीं छोड़ता।
दरअसल तुमने अपने संकट या दुख के अवसरों पर जो पदचिह्नों की एक जोड़ी देखी, वे दरअसल तुम्हारे नहीं मेरे पदचिन्ह हैं, जब मैं तुम्हें गोदी में उठाए चल रहा था। यह सुनकर भक्त को अपनी भूल को एहसास हो गया।
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