पं. विजयशंकर मेहता
एक नाम अगर श्रद्धा से लिख दो तो पानी में पत्थर भी तैर जाते हैं। ऐसा हमारा इतिहास रह चुका है। लंका पर सेतु यूं ही नहीं बन गया था। समर्पित कर्म का बहुत बड़ा उदाहरण था वह। इसलिए जब कर्म के सिद्धांत पर विचार करें तो ध्यान देना होगा कि उसमें ‘मैं’ का भाव कितना है। कई बातों में एक-दूसरे से विरोध के बाद भी हर धर्म, कर्म के सिद्धांत पर सहमत है।
बिना काम किए तो कोई रह नहीं सकता, पर कर्म में जब ‘मैं’ का भाव न्यूनतम या समाप्त हो जाए, तो फिर परमात्मा के अधिक निकट हो जाते हैं। दशहरा बीता, अब धीरे-धीरे त्योहारों की शृंखला शुरू हो रही है। कई बंदिशें भी हैं। इन सबके बीच हमें अपने कर्म का मार्ग निकालना होगा। कुछ दार्शनिक कहते थे धर्म एक जेल है।
बाद में कुछ लोगों ने कहा खुली जेल है। इस समय हमारा जीवन भी एक खुली जेल की तरह है। स्वतंत्र हैं, पर कई मामलों में कुछ बंधे हुए भी हैं। इस जेल की चहारदीवारी हमें तब ही रोक सकेगी जब प्रकृति के नियम तोड़ेंगे। अपनी जीवनशैली को अपने परिवार, अपनी जिम्मेदारियों, अपने स्वास्थ्य से जोड़कर चलिए और आने वाले उत्सवों का आनंद उठाइए।
दूसरे क्या कर रहे हैं, इस पर बहुत अधिक न टिकें। दूसरे की चिट्ठी पढ़कर क्या मिलेगा, अपने खत को दिल लगाकर पढ़िए। एक-एक कदम बहुत सावधानी से उठाइए। बीमारी दिख नहीं रही है, पर धोखा दे सकती है।