अनुकरणीय व्यक्तित्व के मालिक थे-स्वामी रामतीर्थ

Uttarakhand

सन्न्यिम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धय:।

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता: ।।

परमहंस स्वामी रामतीर्थ ने देवभूमि उत्तराखंड के टिहरी शहर को अति महत्वपूर्ण बना दिया। भगवती भागीरथी और भिलंगना के संगम स्थल के सन्निकट सिमलासू को अपने निवास से पवित्र करके उसी के पास जल समाधि ले ली।

महाराज कीर्ति शाह जी जिनकी प्रकृति तर्क प्रधान थी ने स्वामी रामतीर्थ से जीवन के विभिन्न प्रश्नों के सहज समाधान पाकर उनके अनन्य भक्त बन गए और स्वामी रामतीर्थ से सिमलासू के पास गोल कोठी के चन्द्र भवन में रुकने का आग्रह किया। स्वामी रामतीर्थ जिनका जन्म (22 अक्टूबर) के दिन पंजाब प्रांत के गुजरांवाला जिले के मुरारी वाला गांव के पण्डित हीरालाल व निहाल देई के यहां सन् 1873 (22-10-1873) को हुआ था।

बचपन कठिनाई से व्यतीत हुआ, आर्थिक परिस्थितियां ठीक न होने से, मां का जल्दी ही निधन होने से, बुआ श्रीमती धर्म कौर और वृद्धा चाची ने लालन-पालन किया। घरेलू खर्च पौरोहित्य कर्म व खेती बाड़ी से मन्द गति से चलता था। पांच साल की उम्र में प्राइमरी स्कूल में भर्ती करवाया पर आप अति विशिष्ट अद्भुत व्यक्तित्व के धनी निश्चित उज्ज्वल भविष्य के नायक थे ऐसा प्रतीत हुआ आपके मुस्लिम शिक्षक को और आपको संवारने का काम भी उन्होंने किया।

बालपन में ही बालक तीर्थ राम का विवाह विरोक गांव के ब्राह्मण परिवार की बेटी ‘शिवो देवी ‘ के साथ हुआ। गुजरांवाला से मार्च सन् 1888 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर फारमैन क्रिश्चियन कॉलेज, लाहौर से बी- ए- व एम- ए- की उपाधि प्राप्त की। स्कूली शिक्षा के समय योगबशिष्ठ का स्वाध्याय किया, बहिन की अकाल मृत्यु ने संसार की असारता को आपके मन मेंं (जो इस संसार) असत्य सांसारिकता के विषयक जानकारी घर कर गई। धनार्जन के लिए प्रयासरत रहे व आखिरकार 21 दिसम्बर 1895 को अपने ही कालेज में गणित के प्रोफेसर बन गए , कुछ दिन छात्रावास के सुपरिटेंडेंट भी रहे।

पांच नवंबर सन् 1897 को स्वामी विवेकानन्द ने लाहौर में हिन्दू धर्म, भक्ति व वेदान्त विषयों पर भाषण दिया जिसका प्रभाव आप पर पड़ा व आपके मानसिक वैराग्य को पंख मिल गये। इसी बीच जीवन के सत्य को खोजने के लिए लाहौर से हरिद्वार जो प्रति बारह वर्ष बाद कुम्भ पर्व से ही नहीं बल्कि जहां एक तरफ चण्डी मां व दूसरी ओर मन इच्छा पूरी करने वाली मनसा देवी विराजमान हैं में आखिर अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हुए। क्या अद्भुत प्रेरणा थी कि दीपावली के दिन 25 अक्टूबर सन् 1898 को अपने पिता को अपने आत्म साक्षात्कार को सर्व श्रेष्ठ कर्त्तव्य बताते हुए पत्र लिखा।

धीरे धीरे यह सिलसिला जारी रहा और एक जनवरी सन् 1901 को आपने भिलंगना को साक्षी मान कर गेरुवे वस्त्र धारण किए , संन्यास लेने के बाद देवभूमि उत्तराखंड के विभिन्न स्थानों पर घूमते रहे। अद्वितीय सन्त व विद्वान आप जापान व अन्य विदेशों में अपने प्रवचनों हेतु गये , जहां दो वर्षों तक आपका प्रवास रहा विदेश यात्रा का प्रबन्ध स्वयं महाराज कीर्ति शाह जी ने किया । पश्चिमी देशों के जिज्ञासुओं को वेदान्त का सार तत्व समझाने के बाद स्वदेश लौटे। जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के बाद आखिरकार वह घड़ी भी आ गई जब सत्रह अक्टूबर सन् 1906 को स्नान के बहाने जल समाधि ली, वह दीपावली का दिन था । क्या अहो भाग्य था टिहरी का कि भिलंगना की जलधारा ने एक सन्त को आत्म सात् किया तो उसके अड़तीस वर्ष बाद एक देश प्रेमी को भी अपनी गोद में बुलाकर आत्मसात् किया।

शायद स्वामी राम तीर्थ को अपनी यात्रा का पूरा अनुमान था, तभी तो स्नान जाने से पहले यह लिख रहे थे — ‘ओ, मौत! बेशक उड़ा दे इस एक जिस्म को, मेरा यह शरीर ही मुझे कुछ कम नहीं। मौत को मौत आ न जाएगी। भगवान श्री कृष्ण ने इस संसार में 125 वर्ष व्यतीत कर आतताइयों का सफाया किया तो आपने तैंतीस वर्ष इस देश में रह कर धर्म की जो मिशाल कायम की वह हमारे लिए एक प्रेरणा है। भगवान क्या हैं चारों वेद जिसकी कीर्ति बखानते हैं, उसे साधारण ग्वालिन खरीद लेती हैं। प्रेम के कारण ईश्वर सब के हो जाते हैं। तभी तो कहा है कि—

आराधितो यदि हरिस्तपसा तत: किं,

नाराधितो यदि हरिस्तपसा तत:किम्।

अन्तर्बहिर्यदि हरिस्तपसा तत:किं

नान्तर्बहिर्यदि हरिस्तपसा तत:किम् ।।

“भगवान नाम स्मरण सभी संकटों से मुक्त होने का श्रेष्ठतम साधन है। धैर्य धारण करना ही श्रेष्ठ है। दु:ख एवं सुख दिन रात की तरह आने जाने वाले हैं। स्वयं भगवान अवतरण काल में संकट सहन कर अपने भक्तों को शिक्षित करते हैं । “

ना मन्दिर में, ना मस्जिद में, ना गिरजे के आसपास में ।

खोज ले कोई राम मिलेंगे, दीन जनों की भूख प्यास में।।

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