कर्मफल: ऋण क्या है ? ऋण से मुक्ति क्या है ?

Uttarakhand

पंडित हर्षमणि बहुगुणा

आज व्यक्ति ईश्वर की आराधना व तलाश में दर-दर भटक रहा है, पर ईश्वर मिलता नहीं है। ईश्वर की कृपा यदि हम चाहें तो वह हम पर हो सकती है अर्थात् ईश्वर की प्राप्ति तब होगी जब हम – काम, क्रोध, लोभ, मोह, लालच, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष, सुख – दु:ख भली – बुरी वृत्तियों को त्याग कर मन को खाली रख कर ईश्वर आराधना उसकी कृपा प्राप्ति हेतु करते रहें।

हम प्राय: ईश्वर को चाहते हैं पर मन को विकारों से मुक्त नहीं रखते हैं । ऐश व आराम की जिंदगी जीने के लिए कर्ज लेकर झूठी शान करते हैं व उस ऋण को चुकाने में आना कानी करते हैं व इस संसार को छोड़कर चले जाते हैं परन्तु वह कर्ज चुकाने के लिए कई जन्म लेने पड़ते हैं व जब तक वह कर्ज नहीं चुका पाते तब तक ऋण मुक्त नहीं हो सकते।

ऐसा ही अपनी झूठी शान बनाने के लिए लोगों के सम्मुख गिड़गिड़ाते हुए अपना महत्वपूर्ण समय व्यर्थ नष्ट करते हैं। इससे अच्छा तो यह है कि हम परमात्मा के सम्मुख गिड़गिड़ाते हुए अपना शरीर छोड़ कर उसी में लीन हो जाएं तो यह मानव जीवन धन्य हो सकता है। कितना अच्छा होता कि हम गरीब निवाज बन सकते।

कितना अच्छा होता कि हम कभी भी बेइमानी से धन एकत्रित न करते। कितना अच्छा होता कि हम अपने चरित्र को सम्भाल कर रखते। शायद आगे की इस कहानी से कुछ सीख मिल सकती है।


एक धर्मशाला में पति-पत्नी अपने छोटे-से नन्हें-मुन्ने बच्चे के साथ रुके। धर्मशाला कच्ची थी। दीवारों में दरारें पड़ गयी थीं, आसपास में खुला जंगल जैसा माहौल था। पति-पत्नी अपने छोटे-से बच्चे को प्रांगण में बिठाकर कुछ काम से बाहर गये। वापस आकर देखते हैं तो बच्चे के सामने एक बड़ा नाग कुण्डली मारकर फन फैलाये बैठा है। यह भयंकर दृश्य देखकर दोनों हक्के-बक्के रह गये, बेटा मिट्टी की मुट्ठी भर-भरकर नाग के फन पर फेंक रहा है और नाग हर बार झुक-झुककर सहन किए जा रहा है।

 माँ चीख उठी ।

बाप चिल्लायाः-

“बचाओ… बचाओ… हमारे लाड़ले को बचाओ।”

लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गयी। उसमें एक निशानेबाज था। ऊँट गाड़ी पर बोझा ढोने का धंधा करता था*।

वह बोलाः —

 “मैं निशाना तो मारूँ, सर्प को ही खत्म करूँगा लेकिन निशाना चूक जाय और बच्चे को चोट लग जाय तो मैं जिम्मेदार नहीं। आप लोग बोलो तो मैं कोशिश करूँ?”

पुत्र के आगे विषधर बैठा है ! ऐसे प्रसंग पर कौन-से माँ-बाप इन्कार करेंगे?

वह सहमत हो गये और माँ बोलीः “भाई ! साँप को मारने की कोशिश करो,अगर गलती से बच्चे को चोट लग जायेगी तो हम कुछ नहीं कहेंगे।”

ऊँटवाले ने निशाना मारा। साँप जख्मी होकर गिर पड़ा, मूर्च्छित हो गया। लोगों ने सोचा कि साँप मर गया है। उन्होंने उसको उठाकर बाड़े में फेंक दिया।

रात हो गयी। वह ऊँटवाला उसी धर्मशाला में अपनी ‌ऊँटगाड़ी पर सो गया।

रात में ठंडी हवा चली। मूर्च्छित साँप सचेतन हो गया और आकर ऊँटवाले के पैर में डसकर चला गया। सुबह लोग देखते हैं तो ऊँटवाला मरा हुआ था।

दैवयोग से सर्पविद्या जानने वाला एक आदमी वहाँ ठहरा हुआ था। वह बोला,—

 “साँप को यहाँ बुलवाकर जहर को वापस खिंचवाने की विद्या मैं जानता हूँ। यहाँ कोई आठ-दस साल का निर्दोष बच्चा हो तो उसके चित्त में साँप के सूक्ष्म शरीर को बुला दूँ और वार्तालाप करा दूँ।

गाँव में से आठ-दस साल का बच्चा लाया गया। उसने उस बच्चे में साँप के जीव को बुलाया*।

उससे पूछा गया – “इस ऊँटवाले को तूने काटा है?

” बच्चे में मौजूद जीव ने कहा – “हाँ।*”

फिर पूछा कि ,- “इस बेचारे ऊँट वाले को क्यों काटा?”

बच्चे के द्वारा वह साँप बोलने लगाः “मैं निर्दोष था। मैंने इसका कुछ बिगाड़ा नहीं था। इसने मुझे निशाना बनाया तो मैं क्यों न इससे बदला लूँ?”

वह बच्चा तुम पर मिट्टी डाल रहा था उसको तो तुमने कुछ नहीं किया !”

बालक रूपी साँप ने कहा- ” बच्चा तो मेरा तीन जन्म पहले का लेनदार है।

तीन जन्म पहले मैं भी मनुष्य था, वह भी मनुष्य था। मैंने उससे तीन सौ रुपये लिए थे लेकिन वापस नहीं दे पाया। अभी तो देने की क्षमता भी नहीं है। ऐसी भद्दी योनि में भटकना पड़ रहा है, आज संयोगवश वह सामने आ गया तो मैं अपना फन झुका -झुकाकर उससे माफी मांग रहा था। उसकी आत्मा जागृत हुई तो धूल की मुट्ठियाँ फेंक-फेंककर वह मुझे फटकार दे रहा था कि ‘लानत है तुझे ! कर्जा नहीं चुका सका….’ उसकी वह फटकार सहते-सहते मैं अपना ऋण अदा कर रहा था । हमारे लेन-देन के बीच टपकने वाला यह ऊँट वाला कौन होता है? मैंने इसका कुछ भी नहीं बिगाड़ा था फिर भी इसने मुझ पर निशाना मारा। मैंने इसका बदला लिया।”

 सर्प-विद्या जाननेवाले ने साँप को समझाया*,

 “देखो, तुम हमारा कहना मानों, इसका जहर खींच लो।उस सर्प ने कहा – “मैं तुम्हारा कहना मानूँ तो तुम भी मेरा कहना मानो। मेरी तो वैर लेने की योनि है। और कुछ नहीं तो न सही,मुझे यह ऊँटवाला पाँच सौ रुपये दे तो अभी इसका जहर खींच लूँ। उस बच्चे से तीन जन्म पूर्व मैंने तीन सौ रुपये लिये थे, दो जन्म और बीत गये, उसके ब्याज के दौ सौ मिलाकर कुल पाँच सौ लौटाने हैं”।

“किसी सज्जन ने पाँच सौ रूपये उस बच्चे के माँ-बाप को दे दिए*।”

साँप का जीव वापस अपनी देह में गया, वहाँ से सरकता हुआ मरे हुए ऊँटवाले के पास आया और जहर वापस खींच लिया। ऊँटवाला जिंदा हो गया*।”‘

वास्तविकता यह है कि कर्म भोगे बिना कभी समाप्त नहीं होते। सुख और दु:ख देने वाला कोई व्यक्ति नहीं है। आध्यात्म रामायण में स्पष्ट लिखा है कि —-

सुखस्य दु:खस्य न कोऽपि दाता

*परो ददातीति कुबुद्धिरेषा*।

*अहं करोमीति वृथाभिमान:*

*स्वकर्मसूत्रग्रथितो हि लोक:* ।।

  “इस कथा से स्पष्ट होता है कि इतना व्यर्थ खर्च नहीं करना चाहिए कि सिर पर कर्जा चढ़ाकर मरना पड़े और उसे चुकाने के लिए फन(सिर) झुकाना पड़े, मिट्टी से फटकार सहनी पड़े।

जब तक आत्मज्ञान नहीं होता तब तक कर्मों का ऋणानुबंध चुकाना ही पड़ता है।अतः निष्काम कर्म करके ईश्वर को संतुष्ट करें। अपनी आत्मा- परमात्मा का अनुभव करके यहीं पर, इसी जन्म में शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त करने का प्रयास करें*।”

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