काका हरिओम्
बुद्धि की असहज बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। बुद्धिमान ज्यादा असहज होता है, वह किसी भी होने वाली घटना की व्याख्या अपनी तरह से कर सकता है। इसलिए ऐसा करके वह ‘होने’ वाली महत्वपूर्ण घटना को महसूस करने से चूक जाता है।
‘मैं कौन हूं’ इस प्रश्न को ढूंढते समय भी बुद्धि का प्रयोग जब किया जाता है, तो ‘हूं’ अर्थात् अस्तित्व से संस्पर्श ही नहीं हो पाता। ‘मैं’ भी वह सामने आ खड़ा होता है, जो भौतिक विषयों का संगठित रूप होता है। वह सहज नहीं होता। वह ‘हूं’ के साथ जन्मा ‘मैं’ नहीं होता। इसीलिए वह बदलते समय के साथ जुड़ता-बिछुड़ता रहता है।
वह कभी बनता है, तो कभी बिगड़ता है। इस बनने-बिगड़ने वाले ‘मैं’ को स्थायी और शाश्वत बनाने का प्रयत्न जब-जब किया जाता है, जितना-जितना किया जाता है, तब-तब और उतना-उतना ही व्यक्ति असहज होता है। वास्तविक ‘अस्तित्व’ से दूर हो जाता है। और ऐसा हम लगातार करते आ रहे हैं। इसलिए अब तो स्थिति यह हो गई है कि असहजता की भी परतें बन गई हैं। जो नहीं है, असहज है उसे जो है उस पर इतना लादा जा चुका है कि सहज को असहज और असहज को सहज रूप से स्वीकारा जा रहा है।
कहते हैं न कि झूठ को बारबार बोला जाए तो वह सच बन जाता है। जब कोई सच्चाई की तरफ ध्यान दिलाता है तो हमें लगता है कि सामने वाला पगला गया है। संतों को पागल इसीलिए तो कहते हैं संसारी। और संत? वे मन को पगला कहते हैं। दोनों एक-दूसरे को पगला कह रहे हैं। संसारी का आधार उसकी बुद्धि है। तत्त्व ज्ञानी अनुभव के आधार पर ऐसा कहते हैं। संसारी के मन में उपेक्षा का भाव है, ज्ञानी में करुणा का।
संत सहज हैं क्योंकि उनका ‘मैं’ अस्तित्व से, ‘हूं’ से जुड़ा है। उनकी दृष्टि में ‘मैं’ और ‘हूं’ में कोई अंतर नहीं है। जबकि संसारी का ‘मैं’ भिन्न है और ‘हूं’ से। वह बार-बार इस दूरी को स्वयं बढ़ाता जाता है। उसकी संभावनाएं नष्ट हो जाती हैं। उसका ‘बनना’ उसके ‘होने’ को बिखेर देता है। ऐसी कोशिशें से उसकी ऊर्जा बिखर कर कमजोर हो जाती है। निम्न स्तरों पर प्रवाहित होने लगती है।
पानी के प्रवाह में अगर फोर्स कम हो, तो निचली मंजिलों पर ही रहता है वह-ऊपरी मंजिलों तक नहीं पहुंचता, चाह कर भी नहीं। ऊपर जाने के लिए अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता होती है। प्रवाह के बिखराव को रोकना साधना का पहला सोपान है। लीकेज हो रही हो, तो शक्ति कैसे बनेगी। आतिशी शीशा बिखरी किरणों को एकत्रित करता है, फलस्वरूप अग्नि प्रज्ज्वलित हो उठती है। बुद्धि की उठा-पटक से हटकर जब अनुभव का प्रयोग करने की कला हम सीख जाते हैं, तो सहजता का सही रूप सामने आता है।
तब बहाना खोजने की, सिद्धांतों को लादने की, मानने की जरूरत नहीं रहती। सहज योग का अर्थ है अपने जिस सच्चे स्वभाव को लेकर हम जन्में हैं, उसे जानें, उसमें जीएं। किताबी ज्ञान नहीं, गहरे में अनुभूति की उच्चतर स्थिति है सहजता। सहज होने का अर्थ है, जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकारना।