आत्म दर्शन : सबसे बड़ी साधना है वाक् संयम

पंडित हर्षमणि बहुगुणा

Uttarakhand

कहीं न कहीं से मन में दबी कड़वाहट कभी – कभी प्रकट हो जाती है। मानव स्वभाव भी कुछ ऐसा ही है। सुशिष्य अपने गुरुजनों के प्रति सदैव समर्पित रहते हैं यह भी देखा जाता है। महर्षि वेदव्यास के ‘सार गर्भित’ चिन्तन को विश्व कल्याण की भावना से लिपि बद्ध करने के कार्य में श्री गणेश जी तन्मयता पूर्वक लगे रहे।

महाभारत ग्रंथ लेखन का कार्य पूरा हो रहा था और गणनाथ ने अपनी लेखनी से अन्तिम भोज पत्र पर ‘इति’ लिखा व उस पत्र को रख दिया। वेदव्यास जी एवं गणपति का मुख मंडल इस कार्य की सफलता से देदीप्यमान था। वेदव्यास जी ने कहा — विघ्न विनायक जी आपका परिश्रम धन्य है! इसी के बल पर मैं अपना चिन्तन साकार कर सका। इससे अधिक वन्दनीय है आपकी मौन साधना। अधिक समय तक आपका सानिध्य रहा। मैं बोलता रहा किन्तु आप मौन रहे?

इस पर गणेश जी ने कहा कि व्यास जी दीपक की लौ का आधार तैल होता है और उसी के अनुपात से दीपक की लौ कम या ज्यादा होती है, यह भी सत्य है कि तैल का अक्षय भण्डार किसी भी दीपक में नहीं होता है, भरना पड़ेगा! इसी प्रकार सभी शरीर धारियों की प्राण शक्ति का एक माप दण्ड होता है। उसके अनुरूप वह किसी में कम किसी में अधिक होता है। उसकी गणना का कोई माप भी नहीं है। और प्राण शक्ति का उपयोग स्व विवेक पर आधारित है ! कौन कितना संग्रहित करता है या कितना व्यय। संयम पूर्वक यदि मानव इसको दुरुपयोग से बचा ले तो उन्हें मन इच्छित सिद्धि प्राप्त होती है। और इसका मूलाधार है वाणी का संयम!

जो अपनी वाणी को वश में नहीं कर पाते हैं उनकी जिह्वा अनावश्यक चलती रहती है। अर्थ हीन शब्द ‘द्वेष और विग्रह’ की जड़ें हैं। जो हमारी प्राण शक्ति के सुमधुर रस को सुखाती हैं अतः समस्त अनर्थ परम्परा को वाक् संयम दग्ध करने में समर्थ है , इसलिए मैं मौन को सर्वोपरि उपासना मानता हूं।

हमने काम कितना किया, प्रयास कितना हुआ , सफलता कितनी मिली? इस पर ध्यान कितना है? ? पर काम कैसे बिगाड़ा जाय! इस पर ध्यान अधिक होने से कोई भी लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता है। जब ध्यान यह रहेगा कि “गुरु जी की आज्ञा का उल्लंघन” जैसे – यदि गुरु जी ने गणवेश में आने को कहा है तो पहले उस आज्ञा का उल्लंघन करना है!

गणेश जी ने रावण का शिव आराधना वाला उदाहरण देकर भी वेदव्यास जी की पिपासा को शांत किया और कहा कि किसी भी कार्य को पूरा करने में सहयोग करने की आवश्यकता है , इस तरह एक- एक कर अनेकों कार्य पूरे होंगे। हम भी प्रथम पूज्य गणपति महाराज की अपेक्षा पर शायद अवश्य खरे उतरेंगे। यही शुभेच्छा है।

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