सुप्रभातम् : बाहर के नहीं भीतर के आत्म तत्व को जगाइए

प्रो. गोविन्द सिंह

Uttarakhand

(जाने-माने स्तंभकार)


देश में स्वच्छता की चर्चा सर्वत्र है, जिसके लिए प्रधानमंत्री ने देशव्यापी अभियान चला रखा है। यह स्वच्छता भी जरूरी है लेकिन हम यहां उस स्वच्छता की बात करना चाहते हैं, जिसका अभाव हमारे भीतर है। तन का स्वच्छ होना जरूरी है, लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है मन का स्वच्छ होना। एक बार मन स्वच्छ हो गया तो तन स्वतः ही स्वच्छ हो जाएगा।

हमारे ज्यादातर धर्म और दर्शन मन की स्वच्छता की बात करते हैं। कोई भी यह नहीं कहता कि अन्य धर्म को मानने वालों के प्रति घृणा भाव रखो। लेकिन व्यावहारिक तौर पर यह भी देखने को मिलता है कि हर धर्म, पंथ या सम्प्रदाय यह चाहता है कि उसका विस्तार हो। यही नहीं दूसरे को मिटा कर विस्तार हो! वह बात अलग है कि इसके प्रति कोई ज्यादा आग्रही होता है तो कोई कम। हम अपने सामने खड़े व्यक्ति को अपने प्रतिद्वंद्वी की तरह देखते हैं, सहयोगी की तरह नहीं।

यहीं से असहिष्णुता का जन्म होता है। यह अहिष्णुता भी किसी एक के मन नहीं होती। हरेक धर्म या पंथ में होती है। दुनिया में जो आज मार-काट मची है, उसके पीछे यह असहिष्णुता ही है। यदि सचमुच हम दूसरे धर्म का आदर करें तो समस्या ही उत्पन्न न हो। पश्चिम के विद्वान कहते हैं कि आने वाले समय में सभ्यताओं के बीच टकराव होने वाला है। जो दबे-कुचले धर्म हैं, वे सर उठाएंगे और पश्चिम के खिलाफ उठ खड़े होंगे। हम देख रहे हैं कि इसकी शुरुआत हो चुकी है।

यहीं पर भारतीय चिंतन प्रासंगिक हो उठता है। हमारा दर्शन अंतःकरण की शुद्धता की बात करता है, सबको साथ लेकर चलने की बात करता है। वह बात अलग है कि बीच के वर्षों में इसमें अनेक विकृतियां आ गईं। लेकिन हमारे धर्म की मूल चेतना को समझने की जरूरत है। हमारा धर्मशास्त्र संसार में हर जीव की उपस्थिति को स्वीकारता है। वह यत्र विश्वं, भवत्मेक नीडम पर विश्वास करता है। धर्म का अर्थ है जो धारण करता है।

धर्म का दूसरा अर्थ समाज व्यवस्था भी हैं। क्योंकि समस्त प्राणी, जीव-निर्जीव को धारण करने का तरीका समाज व्यवस्था ही है। प्रकृति और पुरुष के बीच जब तक संतुलन नहीं बैठेगा, तब तक व्यवस्था ठीक से नहीं चल सकती। धर्म का मतलब काषाय वस्त्र धारण कर लेने या माला जपने से नहीं है। हम यह नहीं कहते कि काषाय वस्त्र धारण नहीं करने चाहिए या माला नहीं जपनी चाहिए। अपने सन्दर्भ में उनका भी महत्व है। लेकिन केवल उन्हें ही अपनाना, उनके पीछे छिपे भाव को भुला देना, कहां का धर्म है?

इसीलिए हमारे यहां कहा गया हैः

असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय।।

इस श्लोक का शाब्दिक अर्थ हैः हे भगवान्, मुझे असत से सत्य की ओर ले चलो, अन्धकार से ज्योति की ओर ले चलो। लेकिन यहां असत्, तमस और मृत्यु के अर्थ और भी व्यापक हैं। असत और तमस दोनों हमें मृत्यु की ओर ले जाते हैं। इस संसार रूपी व्यवस्था को ठीक से चलाने के लिए जो भी अच्छा हो, श्रेयस्कर हो, उसे करना ही सत्कर्म है।

मृत्यु का अर्थ भी केवल दैहिक मृत्यु नहीं है। हमारे भीतर के मनुष्यत्व का करना अर्थात् सत्कर्मों का परित्याग करना ही मृत्यु है। वरना मृत्यु तो हर प्राणी के लिए अनिवार्य है। यदि हम पुनर्जन्म को मानते हैं तो करना एक तरह से प्रगति का सूचक है। इसलिए यहां अमृत का मतलब देह की मृत्यु से मुक्ति दिलाना नहीं, हमारे आत्म तत्व की मृत्य के विरोध से है। हमारे सत्कर्मों को सदैव जीविज रखने से है। भगवान् बुद्ध ने कहा था, ‘अप्प दीपो भव’ अर्थात् अपने दीपक स्वयं बनो। यहां दीपक का अर्थ है, स्वयं को तिल तिल जलाकर बाकी के लिए प्रकाश करना।

यह तभी संभव है, जब हम अपने भीतर के मनुष्त्व को जगाएं।

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