काका हरिओम्
स्वामी हरिॐ जी महाराज ने भीड़ इकट्ठी करने पर कभी बल नहीं दिया। उनका मानना था कि आध्यात्मिक वातावरण अच्छी सोच के कम लोगों से हुआ करता है छोटी सोच के ज्यादा लोगों से नहीं। इसीलिए उन्होंने साधना पर जोर दिया। उपदेश से ज्यादा महत्व उन्होंने अनौपचारिक बातचीत पर दिया। इसमें शब्दों से आगे बढ़ कर दिल से बात होती है। शिक्षक में शिष्य के साथ मैत्री का भाव भी होना चाहिए। इसीलिए वह नारियल की तरह कठोर होने के साथ ही उसकी गिरी की तरह मुलायम भी थे।
इस तरह की सख्ती का मकसद शिष्य को भटकने से बचाना और सही राह दिखाना है। इसी श्रेय के उपदेश से इस पवित्र संबंध की सार्थकता है।
स्वामी जी के इसी स्वभाव के कारण जो भी उनकी शुरू में आलोचना करता, वह भी उनका अपना हो जाता।
उनके शिष्यों में कई ऐसे थे जो पहले आर्य समाज की विचारधारा से जुड़े थे, जो बाद में सनातन परंपरा को स्वीकार करने लगे। स्वामी जी ने बिना थके, अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखे बिना दिन-रात अपने सद्गुरुदेव की आज्ञा का पालन करने लिए समर्पित कर दिया। इसका प्रभाव उनके गले पर पड़ा। उन्हें टान्सिल की शिकायत पहले से रहती थी, ज्यादा बोलने की वजह से यह बिगड़ गई।
डॉक्टर्स ने आपरेशन की सलाह दी। दिल्ली में इसे कराने का निर्णय लिया गया। बोलने की मनाही थी। लेकिन ‘रामकाज कीन्हे बिना, मोहि कहां विश्राम’, के संकल्प में बंधे स्वामी जी रोहतक चले गए, जहां उन्होंने सम्मेलन में भाग लेना था।थकान और गले पर जोर पड़ने के कारण गला चोक हो गया। आपरेशन के लिए स्वामी जी को थियेटर में ले जाया गया।
वह अक्सर कहा करते थे, स्वामी राम ने तो 33 वर्ष की उम्र में अपना काम पूरा कर लिया था, मेरी उम्र तो उनसे काफी ज्यादा हो गई है, अभी तक वह नहीं हुआ, जो हो जाना चाहिए था। इसके अलावा उन्होंने कई बार संकेत किया कि अब लीला संवरण का समय आ चुका है, लेकिन अवतारी पुरुषों के संकेतों को साधारण बुद्धि पकड़ नहीं पाती है। ‘देहरादून से दिल्ली जाते समय कुछ ऐसा ही संकेत दिया था स्वामी जी ने, पर मैं समझ नहीं पायी। जब कभी मौज में होते थे, तो अक्सर मजाक किया करते थे।हमें उनकी बातें समझ नहीं आतीं थीं।’ ऐसा अक्सर होता है।
जब स्वामी जी का पार्थिव शरीर देहरादून लाया गया, तो वह सब कानों में गूंजने लगा जो उन्होंने रोहतक के सम्मेलन में कहा था। दिल्ली आने से पहले वह रोहतक गए थे।
राजपुर आश्रम में भीगी आंखों से रामप्रेमियों ने स्वामी जी को भू-समाधि दी। तबसे परोक्ष रूप में उनका आशीर्वाद रामप्रेमियों को मिल रहा है। आज भी उनकी उपस्थिति का एहसास हम सबको होता है। वह कहीं गए नहीं हैं, हम सबके आसपास हैं।