प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्मों का फल कभी न कभी तो भोगना ही पड़ता है। प्रकृति सर्वोपरि है, इसका न्याय सर्वोपरि और प्रिय है।
हिमशिखर खबर ब्यूरो।
यह बात महाभारत काल की है। महाभारत का भीषण युद्ध समाप्त हो चुका था। विजेता पांडव सहित श्री कृष्ण शर शैय्या पर पड़े पितामह भीष्म का आशीर्वाद लेकर लौटने लगे तो पितामह ने श्रीकृष्ण को अपने पास बुलाया। कृष्ण पास आए तो भीष्म ने उनसे पूछा, ‘मधुसूदन मैं अपने किस कर्म की वजह से नुकीले तीरों से बनी इस शय्या पर असह्य कष्ट भुगत रहा हूं?’ श्रीकृष्ण ने मुसकराते हुए पूछा, ‘क्या आपको अपने पिछले जन्मों के कर्म याद हैं?’ पितामह बोले, ‘पिछले सौ जन्म मुझे याद हैं और इनमें मैंने कभी किसी का बुरा नहीं किया।’
श्रीकृष्ण ने उनसे सहमति जताते हुए कहा, ‘यह सही है कि सौ जन्मों में आपने ऐसा कुछ नहीं किया। यह एक सौ एकवें जन्म की बात है। उस जन्म में भी आप एक युवराज थे। एक बार जंगल से गुजर रहे थे। एक पेड़ के नीचे कुछ देर आराम करने के बाद आप चलने लगे तो ऊपर से एक करकैंटा (कई पैरों वाला एक कीड़ा) आपके घोड़े की गरदन पर गिरा। आपने अपने तीर से उसे उठाकर पीछे की ओर फेंक दिया। वह करकैंटा पीछे बेर की कंटीली टहनी पर पीठ के बल गिरा। बेर के कांटे उसकी पीठ में धंस गए। बेचारा करकैंटा कांटों से निकलने की जितनी ही कोशिश करता, कांटे उसे उतना कष्ट देते।
करकैंटा उसी अवस्था में कई दिन जीवित रहा। उसकी तकलीफ आपके नाम दर्ज हो चुकी थी लेकिन आपके पुण्य कर्म इतने प्रबल थे कि वह पाप फलित नहीं हो पा रहा था।’ ‘फिर आज क्यों?’ पितामह के इस सवाल पर श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया, ‘दुर्योधन की सभा में जब द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था, तब आप उसे बचाने में समर्थ थे। लेकिन इसके बावजूद आपने दुर्योधन को रोकने की कोई कोशिश नहीं की। इससे आपका सारा पुण्य क्षीण हो गया और 101वें जन्म पहले के इस पाप को फलित होने का मौका मिल गया।’
सार :
भारतीय सनातन धर्म मे पाप, पुण्य, कर्म और कर्मफल का महत्व बहुत ही अधिक है आज जो कुछ भी हम करते है उसका फल हमे अवश्य मिलता है। जन्म और पुनर्जन्म का सिद्धान्त इसी कर्मफल के सिद्धान्त से जुड़ा हुआ है।
नैतिक और अनैतिक कर्मों के आधार पर ही हमारे आने वाले समय का निर्धारण होता है। भले ही हम कितने भी समृद्ध शाली हो भले ही हमारे पास कई संसाधन उपलब्ध हो लेकिन अपने कर्मो का फल हमे भुगतना ही पड़ता है। हमारे आज और आने वाले कल का निर्धारण इसी के आधार पर होता है।
जीवन मे बहुत सारी आपाधापी हमे देखने को मिलती है लेकिन इसके उपरांत भी अपने कर्म के प्रति सतर्क रहना हमारा कर्तव्य होता है जिस प्रकार हमारे इन्ही कर्मो के कारण हम जन्म मृत्यु के बंधन मे बंधे रहते है उसी प्रकार से यही कर्म फल हमे ईश्वर प्राप्ति के लिए एक अन्य अवसर भी प्रदान करते है।
जब हम जन्म लेते है या फिर जब हम गर्भ मे रहते है तब हम उस ईश्वर से यही प्रार्थना करते है की इस पुनर्जन्म के बंधन से इस बार हमे मुक्त करे इस बार जन्म लेने के उपरांत हम अच्छे कर्म करेंगे लेकिन जन्म लेने के उपरांत हम उन बातों को भूल जाते है। जो माया के कारण होता है।
कर्म के फल कभी न कभी मिलते ही हैं। इसलिए पृथ्वी पर निवास करने वाले प्रत्येक प्राणी व जीव जन्तु को कर्म के फल भी भोगना पड़ता है और कर्मों के ही अनुसार ही जन्म होता है। ‘कभी किसी प्राणी को नहीं सताना चाहिए, भले ही वह छोटा सा कीड़ा ही क्यों न हो’।