काका हरिओम्
श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय मनीषियों का एक अद्भुत ग्रंथ है। क्योंकि इसमें संजोया गया ग्रंथ काल के बंधन से सर्वदा मुक्त है, इसलिए इसे समय की सीमा में बांधना आध्यात्मिक दृष्टि से मूल्यहीन ही लगता है। भगवान ने इसी बात की ओर संकेत किया है, जब वह कहते हैं कि ‘अर्जुन! यह ज्ञान जो मैं तुम्हें दे रहा हूं यह अनादि है। इसकी एक विशेष परंपरा है, जिसे किसी एक के साथ जोड़ कर नहीं देखा जा सकता।’
भगवान् का कथन यहां बताता है कि ‘गीता’ समूची मानवता को दिया गया ऐसा उपदेश और संदेश है, जिसमें भगवान ने किसी को अपना प्रतिनिधि बना कर नहीं भेजा, बल्कि जिसे शब्द देने के लिए वे निर्गुण निराकर से सगुण साकार बने। इसीलिए ऋषियों द्वारा प्रकट वेद ज्ञान भगवान् की इस पवित्र वाणी में गागर में सागर की तरह जन-जन के लिए संक्षेप सार के रूप में गीत रूप में प्रकट हुआ। इसे भगवान का शब्दमय कलेवर मानकर लोगों के द्वारा पूरा आदर दिया जाता है। यही एक मात्र ऐसा ग्रंथ है, जिसकी जयंती समूचे हिंदू समाज में देश-विदेश में मनाई जाती है। अब तो, अर्थात् वैज्ञानिक दृष्टि के युग में सिद्ध हो रहा है कि श्रीमद्भगवद्गीता के ज्ञान द्वारा प्रकृति, ईश्वर, जीव और इन सबसे परे ब्रह्म को पूरी तरह से समझा जा सकता है, इसके द्वारा भौतिक और आध्यात्मिक लक्ष्यों को भी प्राप्त किया जा सकता है।
इस पवित्र ग्रंथ को प्रत्येक विचारक ने अपनी तरह से जानने-समझने की कोशिश की है, जिससे सिद्ध होता है कि यह एक जीवन को उसकी पूर्णता में समझने के लिए संपूर्ण रेडीरेकनर है। सामान्य रूप से ग्रंथों में या तो सिद्धान्त की चर्चा होती है या फिर प्रक्रिया की, जबकि श्रीमद्भगवद्गीता में इन दोनों की विस्तार से चर्चा है। इसका स्वाध्याय करते समय अक्सर ऐसा लगता है कि आप किसी निश्चित फार्मूले के द्वारा समुचित निर्णय की ओर जाने के लिए स्टेप बाई स्टेप यात्रा कर रहे हैं। पहले जिज्ञासा पैदा करना, फिर उसका समुचित समाधान श्रीकृष्ण की वह अद्वितीय शैली है, जिसे एक अनुभवी शिक्षक अपने विद्यार्थी को गूढ़ से गूढ़ तत्व समझाने के लिए अपनाता है-तभी तो किसी ने भगवान के लिए कहा है,‘वंदे कृष्णं जगद्गुरुम्।’
श्रीमद्भगवद्गीता में दिए गए सफलता के सूत्रों पर यदि एकान्त में बैठकर विचार किया जाए, लगता है कि इनमें आत्म-प्रबंधन का रहस्य सरल-सहज और सुगम भाषा में समझाया गया है। आज विश्व को सुव्यवस्थित करने में इसकी क्या भूमिका है, इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि प्रबंधन से जुड़े बड़े-बड़े संस्थान इसे अपने कोर्स में शामिल कर रहे हैं, क्योंकि इससे प्राप्त होने वाली समग्र दृष्टि एक संतुलित जीवन का आधार बन सकती है।
आप भी इस गीता माता की शरण में जाइए, फिर देखिए यह मीठी-मीठी लोरियां सुनाकर कैसे आपके दुखों, विषादों और कुण्ठाओं को सदा-सदा के लिए समाप्त कर देती है। श्रीकृष्ण का स्नेह से यह कहना-मा शुचः ‘शोक मत कर’ थोत्ता आदर्श नहीं है, परम व्यावहारिक है।