आज गीता जयन्ती है, इस उपलक्ष्य में भगवान श्री कृष्ण की पूजा स्तुति करके श्रीमद्भगवद्गीता का पारण, सुगन्धित फूलों से पूजन, स्वाध्याय, मनन और चिन्तन करना चाहिए। आज इस उपलक्ष्य में गीता के अठ्ठारह अध्यायों का सूक्ष्म सार पर चर्चा कर रहे हैं-
पंडित हर्षमणि बहुगुणा
आज मोक्षदा एकादशी है, आज ही गीता जयन्ती मनाई जाती है, गीता के माहात्म्य के विषयक केवल भारतीय जन मानस ही नहीं अपितु विश्व के अधिकांश मनीषी अच्छी तरह जानते हैं व समझते भी है।
गीता के माहात्म्य के विषयक कहा गया है कि —
एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतमेको देवो देवकीपुत्र एव ।
एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा ।।
अपि च —
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दन: ।
पार्थो वत्स: सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् ।।
“गीता के 18 अध्यायों का संक्षेप में हिंदी सारांश
भारतीय संस्कृति का अनुपम ग्रन्थ है श्रीमद्भगवत्गीता । “गीता” भगवान श्री कृष्ण के मुख से नि:सृत वाङ्गमय है। जीवन जीने की शैली व धार्मिक प्रेरणा का स्रोत है। तो आइए इस के सार पर चर्चा करने का एक लघु प्रयास करते हैं। बिना लाभ हानि के इसका आस्वादन किया जाय।”
“भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत के युद्ध में अर्जुन को गीता का उपदेश दिया और इसी उपदेश को सुनकर अर्जुन को ज्ञान की प्राप्ति हुई। गीता का उपदेश मात्र अर्जुन के लिए नहीं था बल्कि यह समस्त जगत के लिए था, अगर कोई व्यक्ति गीता में दिए गए उपदेश को अपने जीवन में अपनाता है तो वह कभी किसी से परास्त नहीं हो सकता है। गीता माहात्म्य में उपनिषदों को गाय और गीता को उसका दूध कहा गया है। इसका अर्थ है कि उपनिषदों की जो अध्यात्म विद्या है, उसको गीता सर्वांश में स्वीकार करती है।
गीता के अध्यायों में क्या संदेश छिपा हुआ है आइए संक्षिप्त में जानें …
पहला अध्याय
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव: ।
मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ।।
अर्जुन ने युद्ध भूमि में भगवान श्री कृष्ण से कहा कि मुझे तो केवल अशुभ लक्षण ही दिखाई दे रहे हैं, युद्ध में स्वजनों को मारने में मुझे कोई कल्याण दिखाई नहीं देता है। मैं न तो विजय चाहता हूं, न राज्य और सुखों की ही इच्छा करता हूं, हमें ऐसे राज्य, सुख अथवा इस जीवन से भी क्या लाभ है। जिनके साथ हमें राज्य आदि सुखों को भोगने की इच्छा है, जब वह ही अपने जीवन के सभी सुखों को त्याग करके इस युद्ध भूमि में खड़े हैं। मैं इन सभी को मारना नहीं चाहता हूं, भले ही यह सभी मुझे ही क्यों न मार डालें? लेकिन अपने ही कुटुम्बियों को मारकर हम कैसे सुखी हो सकते हैं। हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से अपने प्रियजनों को मारने के लिए आतुर हो गए हैं। इस प्रकार शोक से संतप्त होकर अर्जुन युद्ध-भूमि में धनुष को त्यागकर रथ पर बैठ गए तब भगवान श्री कृष्ण ने अपने कर्तव्य को भूल बैठे अर्जुन को उनके कर्तव्य और कर्म के बारे में बताया। भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को जीवन के सच से परिचित कराया। कृष्ण ने अर्जुन की स्थिति को भांप लिया भगवान कृष्ण समझ गए कि अर्जुन का शरीर ठीक है लेकिन युद्ध आरंभ होने से पहले ही उसका मनोबल टूट चुका है। बिना मन के यह शरीर खड़ा नहीं रह सकता। अत: भगवान कृष्ण ने एक गुरु का कर्तव्य निभाते हुए तर्क, बुद्धि, ज्ञान, कर्म की चर्चा, विश्व के स्वभाव, उसमें जीवन की स्थिति और उस सर्वोपरि परम सत्तावान ब्रह्म के साक्षात् दर्शन से अर्जुन के मन का उद्धार किया। यह है सच्चे गुरु का कर्त्तव्य!
दूसरा अध्याय
दूसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने बताया कि जीना और मरना, जन्म लेना और बढ़ना, विषयों का आना और जाना। सुख और दु:ख का अनुभव, ये तो संसार में होते ही हैं। काल की चक्रगति इन सब स्थितियों को लाती है और ले जाती है। जीवन के इस स्वभाव को जान लेने पर फिर शोक नहीं होता। काम, क्रोध, भय, राग, द्वेष से मन का सौम्यभाव बिगड़ जाता है और इंद्रियां वश में नहीं रहती हैं। इंद्रियजय ही सबसे बड़ी आत्मजय है। बाहर से कोई विषयों को छोड़ भी दे तो भी भीतर का मन नहीं मानता। विषयों का स्वाद जब मन से जाता है, तभी मन प्रफुल्लित, शांत और सुखी होता है। समुद्र में नदियां आकर मिलती हैं पर वह अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता। ऐसे ही संसार में रहते हुए, उसके व्यवहारों को स्वीकारते हुए, अनेक कामनाओं का प्रवेश मन में होता रहता है। किंतु उनसे जिसका मन अपनी मर्यादा नहीं खोता उसे ही शांति मिलती हैं। इसे प्राचीन अध्यात्म परिभाषा में गीता में ब्राह्मी स्थिति कहा है।
तीसरा अध्याय
तीसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने बताया कि कोई व्यक्ति कर्म छोड़ ही नहीं सकता। कृष्ण ने अपना दृष्टांत देकर कहा कि मैं नारायण का रूप हूं, मेरे लिए कुछ कर्म शेष नहीं है। फिर भी मैं तंद्रारहित होकर कर्म करता हूं और अन्य लोग मेरे मार्ग पर चलते हैं। अंतर इतना ही है कि जो मूर्ख हैं वे लिप्त होकर कर्म करते हैं पर ज्ञानी असंग भाव से कर्म करता हैं। गीता में यहीं एक साभिप्राय शब्द बुद्धिभेद है। अर्थात् जो साधारण समझ के लोग कर्म में लगे हैं उन्हें उस मार्ग से उखाड़ना उचित नहीं, क्योंकि वे ज्ञानवादी बन नहीं सकते और यदि उनका कर्म भी छूट गया तो वे दोनों ओर से भटक जाएँगे। प्रकृति व्यक्ति को कर्म करने के लिए बाध्य करती है। जो व्यक्ति कर्म से बचना चाहता है वह ऊपर से तो कर्म छोड़ देता है पर मन ही मन उसमे डूबा रहता है।
चौथा अध्याय
चौथे अध्याय में बताया गया है कि ज्ञान प्राप्त करके कर्म करते हुए भी कर्मसंन्यास का फल किस उपाय से प्राप्त किया जा सकता है। यह गीता का वह प्रसिद्ध आश्वासन है कि ‘जब जब धर्म की ग्लानि होती है तब तब मनुष्यों के बीच भगवान का अवतार होता है’, अर्थात् भगवान की शक्ति विशेष रूप से मूर्त होती है। यहीं पर एक वाक्य विशेष ध्यान देने योग्य है- ” *क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा* “। ‘कर्म से सिद्धि’-इससे बड़ा प्रभावशाली सूत्र गीतादर्शन में नहीं है। किंतु गीतातत्व इस सूत्र में इतना सुधार और करता है कि वह कर्म असंग भाव से अर्थात् फल आशक्ति से बचकर करना चाहिए।
पाँचवा अध्याय
पाँचवें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि कर्म के साथ जो मन का संबंध है, उसके संस्कार पर या उसे विशुद्ध करने पर विशेष ध्यान दिलाया गया है। किसी एक मार्ग पर ठीक प्रकार से चलें! तो समान फल प्राप्त होता है। जीवन के जितने कर्म हैं, सबको समर्पण कर देने से व्यक्ति एकदम शांति के ध्रुव बिंदु पर पहुँच जाता है। किसी एक मार्ग पर ठीक प्रकार से चलें तो समान फल प्राप्त होता है। जीवन के जितने कर्म हैं, सबको समर्पण कर देने से व्यक्ति एकदम शांति के ध्रुव बिंदु पर पहुँच जाता है और जल में खिले कमल के समान कर्म रूपी जल से लिप्त नहीं होता।
छठा अध्याय
भगवान श्री कृष्ण ने छठे अध्याय में कहा कि जितने विषय हैं उन सबसे इंद्रियों का संयम ही कर्म और ज्ञान का निचोड़ है। सुख में और दु:ख में मन की समान स्थिति, इसे ही योग कहा जाता है। जब मनुष्य सभी सांसारिक इच्छाओं का त्याग करके बिना फल की इच्छा के कोई कार्य करता है तो उस समय वह मनुष्य योग में स्थित कहलाता है। जो मनुष्य मन को वश में कर लेता है, उसका मन ही उसका सबसे अच्छा मित्र बन जाता है, लेकिन जो मनुष्य मन को वश में नहीं कर पाता है, उसके लिए वह मन ही उसका सबसे बड़ा शत्रु बन जाता है। जिसने अपने मन को वश में कर लिया उसको परमात्मा की प्राप्ति होती है और जिस मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है उसके लिए सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी और मान-अपमान सब एक समान हो जाते हैं। ऐसा मनुष्य स्थिर चित्त और इन्द्रियों को वश में करके ज्ञान द्वारा परमात्मा को प्राप्त करके हमेशा सन्तुष्ट रहता है।
सातवां अध्याय
सातवें अध्याय में श्री कृष्ण ने कहा कि सृष्टि के नानात्व का ज्ञान ‘विज्ञान’ है और नानात्व से एकत्व की ओर प्रगति ‘ज्ञान’ है। ये दोनों दृष्टियाँ मानव के लिए उचित हैं। इस अध्याय में भगवान के अनेक रूपों का उल्लेख किया गया है जिनका और विस्तार विभूतियोग नामक दसवें अध्याय में भी आता है। यहीं विशेष भगवती दृष्टि का भी उल्लेख है जिसका सूत्र-‘ *वासुदेव: सर्वमिति’,* सब वसु या शरीरों में एक ही देवतत्व है, उसी की संज्ञा विष्णु है। किंतु लोक में अपनी अपनी रुचि के अनुसार अनेक नामों और रूपों में उसी एक देवतत्व की उपासना की जाती है। वे सब ठीक हैं। किंतु अच्छा यही है कि बुद्धिमान मनुष्य उस ब्रह्मतत्व को पहचाने जो अध्यात्म विद्या का सर्वोच्च शिखर है।
आठवां अध्याय
आठवें अध्याय में श्री कृष्ण ने बताया कि जीव और शरीर की संयुक्त रचना का ही नाम अध्यात्म है। देह के भीतर जीव, ईश्वर तथा भूत ये तीन शक्तियाँ मिलकर जिस प्रकार कार्य करती हैं उसे अधियज्ञ कहते हैं। उपनिषदों में अक्षर विद्या का विस्तार हुआ और गीता में उस अक्षरविद्या का सार कह दिया गया है- ‘ अक्षर ब्रह्म परमं,’ अर्थात् परब्रह्म की संज्ञा अक्षर है। मनुष्य, अर्थात् जीव और शरीर की संयुक्त रचना का ही नाम अध्यात्म है। जीवसंयुक्त भौतिक देह की संज्ञा क्षर है और केवल शक्तितत्व की संज्ञा आधिदैवक है। देह के भीतर जीव, ईश्वर तथा भूत ये तीन शक्तियाँ मिलकर जिस प्रकार कार्य करती हैं उसे अधियज्ञ कहते हैं।
“वेदेषु यज्ञेषुतप:सु चैव, दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा, योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ।।”
आज श्रीमद्भगवत्गीता के आठ अध्यायों पर चर्चा की गई, अगले दिन शेष अध्यायों पर चिन्तन किया जाएगा। यह एक सामान्य एवं लघु प्रयास है। गीता जयन्ती के उपलक्ष्य में सादर, सप्रेम।