परिश्रम के बगैर मनुष्य का जीवन व्यर्थ है। परिश्रम किए बगैर मनुष्य को भोजन भी नहीं करना चाहिए।
हिमशिखर खबर ब्यूरो।
राजा विक्रमादित्य से जुड़ा किस्सा है। एक दिन उनकी राजसभा में एक महात्मा आए। राजा ने उनसे पूछा, ‘मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?’
महात्मा ने कहा, ‘मुझे भूख लगी है, कृपया भोजन दे दीजिए।’
राजा ने महात्मा जी को भोजन कराने का आदेश दे दिया। जब भोजन सामने आया तो संत ने रोटी देखकर राजा से कहा, ‘राजन्, आपने जो भोजन इस थाल में रखा है, वह हक का तो है ना? हक यानी अधिकार।’
ये बात सुनकर विक्रमादित्य चौंक गए कि ये हक का भोजन क्या होता है? राजा ने कहा, ‘आप बताइए, मैंने तो पहली बार सुना है कि हक का भी भोजन होता है।’
संत ने कहा, ‘गांव में जाइए और वहां आपको एक बूढ़ा व्यक्ति मिलेगा। उससे पूछिएगा।’
जब राजा बताए गए पते पर पहुंचे तो वहां एक जुलाहा सूत कात रहा था। राजा ने उस बूढ़े जुलाहे से पूछा, ‘ये हक का भोजन किसे कहते हैं?’
उस बूढ़े ने कहा, ‘आज मेरी इस पत्तल में जो भोजन है, उसमें आधा हक का है और आधा बेहक का है।’
राजा ने बूढ़े व्यक्ति से कहा, ‘कृपया ये बात मुझे ठीक से समझाएं।’
बूढ़े ने कहा, ‘एक दिन मैं सूत कात रहा था और अंधेरा हो गया तो मैंने एक दीपक जलाया और मैं अपना काम करने लगा। उस समय मेरे घर के पास से एक जुलूस निकला। जुलूस में शामिल लोगों के हाथ में मशालें थीं। मेरे मन में लालच आ गया तो मैंने दीपक बुझा दिया और उनकी मशालों की रोशनी में अपना काम करने लगा। उस काम से मुझे जो धन मिला, उससे मैंने ये अन्न प्राप्त किया है। ये अन्न आधा हक का और आधा बेहक का इसलिए है, क्योंकि जितना काम मैंने उन लोगों की मशालों की रोशनी में किया था, उतना धन उन लोगों के हक का है।’
ये बात सुनकर राजा समझ गए कि हक का भोजन किसे कहते हैं।
सीख – जब भी कोई काम करो तो दूसरों को उनके काम का क्रेडिट जरूर दो। हमेशा ध्यान रखें, कुछ पाने के लिए सबसे पहले अपने संसाधनों का उपयोग करना चाहिए। अगर दूसरों के साधनों का उपयोग किया है तो उन्हें इसका श्रेय जरूर दें। हमारे हक का हमारे परिश्रम और हमारी वस्तुओं से ही प्राप्त किया हुआ होना चाहिए।