हिमशिखर खबर ब्यूरो।
सनातन धर्म में दत्तात्रेय पूर्णिमा या दत्ता पूर्णिमा का बहुत अधिक महत्व है। यह मार्गशीर्ष माह की पूर्णिमा तिथि जो इस बार आज शनिवार को मनाई जाएगी। इस दिन त्रिगुण स्वरूप यानि ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव तीनों का सम्मलित स्वरूप दत्तात्रेय की पूजा का विधान है।
मान्यताओं के अनुसार भगवान दत्तात्रेय को ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों का ही स्वरूप माना जाता है। इसलिए ही दत्तात्रेय भगवान के तीन सिर हैं और छ: भुजाएं हैं। पौराणिक कथा के मुताबिक ये ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश तीनों की ही शक्ति से प्रकट हुए थे। इसलिए एक हाथ में त्रिशूल, एक में शंख और एक हाथ में चक्र है। दत्तात्रेय जयंती पर इनके बालरूप की पूजा की जाती है।
क्या करें इस दिन
1. इस दिन नहाने के बाद भगवान दत्तात्रेय की पूजा का संकल्प लेना चाहिए।
2. पूजा करनी चाहिए और इसके बाद दत्तात्रेय स्त्रोत का पाठ करना चाहिए। ऐसा करने से दोष और कष्ट दूर होते हैं।
3. कोशिश करनी चाहिए कि इस दिन व्रत रखें। अगर ऐसा न हो पाए तो तामसिक चीजें खाने से बचना चाहिए।
4. पूरे दिन ब्रह्मचर्य और अन्य नियमों का पालन करना चाहिए।
ये है जन्म की कथा
श्रीमद्भागवत की कथा के मुताबिक ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी सती अनुसूया के पतिव्रत की परीक्षा लेने रूप बदलकर उनके आश्रम पहुंचे। देवी अनुसूया ने अपने पतिव्रत धर्म के प्रभाव से जान लिया कि ये त्रिदेव हैं और परीक्षा लेने आए हैं। फिर सती अनुसूया ने ऋषि अत्रि द्वारा अभिमंत्रित जल तीनों देवों पर छिड़क दिया, जिससे तीनों बालरूप में आ गए।
देवी अनुसूया उन्हें पालने में लेटाकर अपने प्रेम तथा वात्सल्य से पालने लगीं। इससे देवी सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती जी सती अनुसूया के पास गईं और उन्हें फिर से असल रूप में लाने को कहा। माता अनुसूया ने कहा कि तीनों ने मेरा दूध पीया है, इसलिए इन्हें बालरूप में ही रहना होगा। ये सुनकर तीनों देवों ने अपनी शक्तियों को मिलाकर एक नया अंश पैदा किया, जिनका नाम दत्तात्रेय रखा गया।
दत्तात्रेय के परिवार का अर्थ
दत्त के पीछे गाय अर्थात पृथ्वी और चार कुत्ते चार वेद हैं। दत्तगुरु ने पृथ्वी को अपना गुरु बनाया और पृथ्वी से सहिष्णु और सहनशील होना सीखा। साथ ही अग्नि को गुरु बनाकर यह शरीर क्षणभंगुर है, यह सीखा । इस प्रकार, दत्तगुरु ने चराचर में प्रत्येक वस्तु में ईश्वर के अस्तित्व को देखने के लिए चौबीस गुरु बनाए।’
दत्त भगवान प्रतिदिन बहुत भ्रमण करते थे। वे स्नान करने हेतु वाराणसी जाते थे, चंदन लगाने के लिए हेतु प्रयाग जाते थे प्रतिदिन भिक्षा कोल्हापुर, महाराष्ट्र में मांगते थे दोपहर के भोजन पंचालेश्वर, महाराष्ट्र के बीड जिले के गोदावरी के पात्र में लेते थे। पान ग्रहण करने के लिए महाराष्ट्र के मराठवाड़ा जिले के राक्षसभुवन जाते हैं, तथा जबकि प्रवचन और कीर्तन बिहार के नैमिषारण्य में सुनने जाते। निद्रा करने के लिए माहुरगड़ और योग गिरनार में करने जाते थे ।
दत्तपूजा के लिए, सगुण मूर्ति की अपेक्षा पादुका और औदुंबर वृक्ष की पूजा करते हैं। पूर्व काल में, मूर्ति अधिकतर एकमुखी होती थीं परन्तु आजकल त्रिमुखी मूर्ति अधिक प्रचलित हैं। दत्त गुरुदेव हैं। दत्तात्रेय को सर्वोच्च गुरु माना जाता है। उन्हें गुरु के रूप में पूजा जाता है । ‘श्री गुरुदेव दत्त’, ‘श्री गुरुदत्त’ इस प्रकार उनका जयघोष किया जाता है। ‘दिगंबर दिगंबर श्रीपाद वल्लभ दिगंबर’ यह नाम धुन है।
दत्तात्रेय के कंधे पर एक झोली है। इसका अर्थ इस प्रकार है- झोली मधुमक्खी का प्रतीक है। जैसे मधुमक्खियां एक जगह से दूसरी जगह जाकर शहद इकट्ठा करती हैं , वैसे ही दत्त घर-घर जाकर भिक्षा मांगकर झोली में इकट्ठा करते हैं। घर-घर जाकर भिक्षा माँगने से अहंकार शीघ्र कम हो जाता है; तथा झोली भी अहंकार के विनाश का प्रतीक है।