पंडित हर्षमणि बहुगुणा
कल दिनांक 21 जनवरी 2022 शुक्रवार को संकट हरण गणेश चतुर्थी व्रत है।
संकट हरण गणेश चतुर्थी व्रत माहात्म्य
यह व्रत माघ कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को किया जाता है। यह व्रत स्त्रियाँ अपनी सन्तान की दीर्घायु और सफलता के लिये करती हैं। इस व्रत के प्रभाव से सन्तान को रिद्धि-सिद्धि की प्राप्ति होती है तथा उनके जीवन में आने वाले सभी विघ्न-बाधायें गणेश जी की कृपा से दूर होते हैं। इस दिन स्त्रियाँ पूरे दिन व्रत रखती हैं और शाम को गणेश पूजन तथा चन्द्रमा को अर्घ्य देने पश्चात् ही जल ग्रहण करती हैं।
संकट हरण गणेश चतुर्थी व्रत विधि
“‘ माघ कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को संकट हरण का व्रत किया जाता है। इस दिन संकट हरण गणपति का पूजन होता है। इस दिन विद्या, बुद्धि, वारिधि गणेश तथा चन्द्रमा की पूजा की जाती है। भालचंद्र गणेश की पूजा संकट चतुर्थी को की जाती है। प्रात:काल नित्य क्रम से निवृत होकर षोड्शोपचार विधि से या यथोपचार से गणेश जी की पूजा करें। इस श्लोक को पढ़कर गणेश जी की वंदना करें । – “‘
” *गजाननं भूत गणादि सेवितम्*,
*कपित्थ जम्बू फल चारू भक्षणम्।*
*उमासुतं शोक विनाशकारकम्*,
*नमामि विघ्नेश्वर पाद पंकजम्॥
इसके बाद भालचंद्र गणेश का ध्यान करके पुष्प अर्पित करें। पूरे दिन मन ही मन श्री गणेश जी के नाम का जप करें। अब विधिपूर्वक (अपनी परम्परा के अनुसार) गणेश जी का पूजन करें। एक कलश में जल भर कर रखें। धूप-दीप अर्पित करें। नैवेद्य के रूप में तिल तथा गुड़ के बने हुए लड्डु, ईख, गंजी (शकरकंद), अमरूद, गुड़ तथा घी अर्पित करें।
“‘ यह नैवेद्य रात्रि भर बांस की बनी हुई डलिया (टोकरी) में ढ़ंककर यथावत् रख दिया जाता है। पुत्रवती स्त्रियाँ पुत्र की सुख समृद्धि के लिये व्रत रखती है। इस ढ़के हुए नैवेद्य को पुत्र ही खोलता है तथा भाई बंधुओं में बाँटता है। ऐसी मान्यता है कि इससे भाई-बंधुओं में आपसी प्रेम-भावना की वृद्धि होती है। अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग प्रकार के तिल और गुड़ के लड्डु बनाये जाते हैं। तिल के लड्डु बनाने हेतु तिल को भूनकर, गुड़ की चाशनी में मिलाया जाता है, फिर तिलकूट का पहाड़ बनाया जाता है, कहीं-कहीं पर तो तिलकूट का बकरा भी बनाते हैं। तत्पश्चात् गणेश भगवान की पूजा करके तिलकूट के बकरे की गर्दन घर का कोई बच्चा काट देता है। “‘ ” *परम्परा के अनुसार । फिर कथा श्रवण की जाती है। कथाएं अलग अलग प्रचलित हैं। कुछ कथाएं –
पहली कथा
“एक साहूकार और एक साहूकारनी थे। वह धर्म पुण्य को नहीं मानते थे। इसके कारण उनके कोई बच्चा नहीं था। एक दिन साहूकारनी पड़ोसी के घर गयी। उस दिन संकट चतुर्थी थी, वहां पड़ोसन संकट चतुर्थी की पूजा कर के कहानी सुना रही थी।
साहूकारनी ने पड़ोसन से पूछा – “तुम क्या कर रही हो ?” तब पड़ोसन बोली कि आज संकट हरण चतुर्थी का व्रत है, इसलिए कहानी सुना रही हूँ। तब साहूकारनी बोली इस चतुर्थी के व्रत करने से क्या होता है ? तब पड़ोसन बोली इसे करने से अन्न, धन, सुहाग, पुत्र सब मिलता है। तब साहूकारनी ने कहा यदि मेरा गर्भ रह जाये तो मैं भी इस व्रत को करुँगी।
श्री गणेश भगवान की कृपा से साहुकारनी को गर्भ रह गया। तो वह बोली की मेरे लड़का हो जाये, तो में ढाई सेर का तिलकुट बनाऊंगी। कुछ दिन बाद उसके लड़का हो गया, तो वह बोली कि “हे संकट हरण गणेश भगवान ! मेरे बेटे का विवाह हो जायेगा, तो सवा पांच सेर का तिलकुट चढ़ाऊंगी।” कुछ वर्षो बाद उसके बेटे का विवाह तय हो गया और उसका बेटा विवाह करने चला गया। लेकिन उस साहूकारनी ने तिलकुट नहीं चढ़ाया न व्रत किया। इस कारण से भगवान गणेश क्रोधित हो गये और उन्होंने फेरों से उसके बेटे को उठाकर पीपल के पेड़ पर बिठा दिया। सभी वर को खोजने लगे पर वो नहीं मिला, हताश हो कर सभी लोग अपने-अपने घर को लौट गए। इधर जिस लड़की से साहूकारनी के लड़के का विवाह होने वाला था, वह अपनी सहेलियों के साथ गणगौर पूजने के लिए जंगल में दूब लेने गयी।
तभी रास्ते में पीपल के पेड़ से आवाज आई – “ओ मेरी अर्धब्याही” यह बात सुनकर जब लड़की घर आयी उसके बाद वह धीरे-धीरे सूख कर काँटा होने लगी। एक दिन लड़की की माँ ने कहा – “में तुम्हे अच्छा खिलाती हूँ, अच्छा पहनाती हूँ, फिर भी तू सूखती जा रही है ? ऐसा क्यों ?” तब लड़की अपनी माँ से बोली की वह जब भी दूब लेने जंगल जाती है, तो पीपल के पेड़ से एक आदमी बोलता है की ‘ओ मेरी अर्धब्याही’। उसने मेहँदी लगा रखी है और सेहरा भी बाँध रखा है। तब उसकी माँ ने पीपल के पेड़ के पास जा कर देखा की यह तो उसका दामाद है। तब उसकी माँ ने दामाद से कहा – “यहाँ क्यों बैठा है ? मेरी बेटी तो अर्धब्याही ही रख दी और अब क्या चाहिए ?”
साहूकारनी का बेटा बोला – “मेरी माँ ने संकट हरण गणेश चतुर्थी का तिलकुट बोला था लेकिन नहीं किया, इस लिए चतुर्थी माता ने नाराज हो कर यहाँ बैठा दिया।” यह सुनकर उस लड़की की माँ साहूकारनी के घर गई और उससे पूछा की तुमने संकट चतुर्थी का कुछ संकल्प किया था क्या ? तब साहूकारनी बोली – तिलकुट चढ़ाने को बोला था। उसके बाद साहूकारनी बोली मेरा बेटा घर आ जाये, तो ढाई मन का तिलकुट करुँगी।
इससे श्री गणेश भगवान प्रसन्न हो गए और उसके बेटे को फेरों में ला कर बैठा दिया। बेटे का विवाह धूम धाम से हो गया। जब साहूकारनी के बेटा-बहू घर को आ गए तब साहूकारनी ने ढाई मन तिलकुट चढ़ाया और बोली हे संकट चतुर्थी देव ! आप के आशीर्वाद से मेरे बेटा बहु घर आये है, जिससे मैं हमेशा तिलकुट करके व्रत करुँगी। इसके बाद सारे नगर वासियों ने तिलकुट के साथ संकट व्रत करना प्रारम्भ कर दिया।
हे संकट हरण गणेश चतुर्थी जिस तरह साहूकारनी को बेटे बहु से मिलवाया, वैसे हम सब को मिलवाना। इस कथा को कहने सुनने वालों का भला करना।
दूसरी कथा
एक बार महादेवजी पार्वती सहित नर्मदा के तट पर गए। वहाँ एक सुन्दर स्थान पर पार्वतीजी ने महादेवजी के साथ चौपड़ खेलने की इच्छा व्यक्त की। तब शिवजी ने कहा- हमारी हार-जीत का साक्षी कौन होगा ? पार्वती ने तत्काल वहाँ की घास के तिनके बटोरकर एक पुतला बनाया और उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करके उससे कहा- “बेटा ! हम चौपड़ खेलना चाहते हैं, किन्तु यहाँ हार-जीत का साक्षी कोई नहीं है। अतः खेल के अन्त में तुम हमारी हार-जीत के साक्षी होकर बताना कि हममें से कौन जीता, कौन हारा ?”
खेल आरम्भ हुआ। दैवयोग से तीनों बार पार्वतीजी ही जीती। जब अंत में बालक से हार-जीत का निर्णय कराया गया तो उसने महादेवजी को विजयी बताया। परिणामतः पार्वतीजी ने क्रुद्ध होकर उसे एक पाँव से लंगड़ा होने और वहाँ के कीचड़ में पड़ा रहकर दुःख भोगने का शाप दे दिया।
बालक ने विनम्रतापूर्वक कहा- “माँ ! मुझसे अज्ञानवश ऐसा हो गया है। मैंने किसी कुटिलता या द्वेष के कारण ऐसा नहीं किया। मुझे क्षमा करें। तथा शाप से मुक्ति का उपाय बताएँ।” तब ममतारूपी माँ को उस पर दया आ गई और वे बोलीं- “यहाँ नाग-कन्याएँ गणेश-पूजन करने आएँगी। उनके उपदेश से तुम गणेश व्रत करके मुझे प्राप्त करोगे।” इतना कहकर वे कैलाश पर्वत चली गई।
एक वर्ष बाद वहाँ श्रावण में नाग-कन्याएँ गणेश पूजन के लिए आईं। नाग-कन्याओं ने गणेश व्रत करके उस बालक को भी व्रत की विधि बताई। तत्पश्चात बालक ने 12 दिन तक श्रीगणेशजी का व्रत किया। तब गणेशजी ने उसे दर्शन देकर कहा- “मैं तुम्हारे व्रत से प्रसन्न हूँ। मनोवांछित वर माँगो।” बालक बोला- “भगवन ! मेरे पाँव में इतनी शक्ति दे दो कि मैं कैलाश पर्वत पर अपने माता-पिता के पास पहुँच सकूँ और वे मुझ पर प्रसन्न हो जाएँ।”
गणेशजी ‘तथास्तु’ कहकर अंतर्धान हो गए। बालक भगवान शिव के चरणों में पहुँच गया। शिवजी ने उससे वहाँ तक पहुँचने के साधन के बारे में पूछा। तब बालक ने सारी कथा शिवजी को सुना दी। उधर उसी दिन से अप्रसन्न होकर पार्वती शिवजी से भी विमुख हो गई थीं। तदुपरांत भगवान शंकर ने भी बालक की तरह 21 दिन पर्यन्त श्रीगणेश का व्रत किया, जिसके प्रभाव से पार्वती के मन में स्वयं महादेवजी से मिलने की इच्छा जागृत हुई।
वे शीघ्र ही कैलाश पर्वत पर आ पहुँची। वहाँ पहुँचकर पार्वतीजी ने शिवजी से पूछा- भगवन ! आपने ऐसा कौन-सा उपाय किया जिसके फलस्वरूप मैं आपके पास भागी-भागी आ गई हूँ। शिवजी ने ‘गणेश व्रत’ का इतिहास उनसे कह दिया।
तब पार्वतीजी ने अपने पुत्र कार्तिकेय से मिलने की इच्छा से 21 दिन पर्यन्त 21-21 की संख्या में दूर्वा, पुष्प तथा लड्डुओं से गणेशजी का पूजन किया। 21वें दिन कार्तिकेय स्वयं ही पार्वतीजी से आ मिले। उन्होंने भी माँ के मुख से इस व्रत का माहात्म्य सुनकर व्रत किया।