ऐतिहासिक धरोहर: टिहरी में यहाँ पर सूर्य ने सहस्त्र वर्ष तक शिवजी की आराधना की, कहलाए भास्करेश्वर

गणेश ध्यानी (साहित्यकार) 

Uttarakhand

भागीरथी के बायें तट पर सर्वाधिक ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक महत्व का स्थल पलेठी है। जो टिहरी जिले की देवप्रयाग तहसील में समुद्र तल से 2000 फीट की ऊँचाई पर भागीरथी तट से लगभग 4 किमी. ऊपर पलेठी गाँव के पूर्व मे स्थित है। देवप्रयाग से इस स्थल की दूरी 18 कि.मी. है।

देवप्रयाग-टिहरी मोटर मार्ग पर हिण्डोलाखाल के नजदीक यह स्थान है। पलेठी के इस प्राचीन मन्दिर समूह मे 2 पूर्ण मन्दिर और 2 ध्वस्त मन्दिर हैं। जिन्हें भागीरथी उपत्यका की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक धरोहर माना जा सकता है। मन्दिर गहरी घाटी में होने के कारण कहीं से दिखाई नहीं देते। पूर्ण मन्दिरों मे सूर्य एवं महादेव तथा ध्वस्त मन्दिरों मे गणेश एवं पार्वती हैं। केदारखण्ड (148) में इस क्षेत्र का उल्लेख भास्कर क्षेत्र के नाम से हुआ है। (पलेठी के संबंध मे हमें पुराण और पुरातात्विक साधनों दोनों से जानकारी मिलती है, जिसका वर्णन कमेंट के माध्यम से किया जायेगा।

पौराणिक उल्लेख

केदारखण्ड (148/2-11) में सूर्य मन्दिर समूह को नवला नदी के तट पर बताया गया है,जिसे कलियुग मे पुण्यप्रदायिनी माना गया है। इस स्थान के दान से सूर्यलोक एवं देवप्रयाग से अधिक पुण्यफल प्रदायिनी माना गया है। यहाँ पर सूर्य ने सहस्त्र वर्ष तक शिव का तप किया था। तप से शिव ने प्रसन्न होकर सूर्य को अपने नेत्र मे स्थान दिया और जनकल्याण के लिए भास्करेश्वर नाम से यहाँ अपनी स्थिति की। अतः शिव मन्दिर की भी यहाँ स्थिति है। नवला नदी के दायें किनारे एक पानी का स्त्रोत है, जिसे स्थानीय जन चमन नदी कहते हैं,एवं इसका संबंध सूर्य पुत्र अश्विनीकुमार से जोड़ते हैं।

पवित्र कुण्ड

पलेठी में भास्कर कुण्ड, विष्णु कुण्ड और ब्रह्मकुण्ड की भी स्थिति मानी जाती है। केदारखण्ड (148/3) के अनुसार भास्कर कुण्ड भास्कर क्षेत्र मे स्थित है, जिसका निर्माण नवला नदी के जल अवरोध से हुआ। इसमें स्नान का विशेष महत्व है।केदारखण्ड(148/7-8) के अनुसार विष्णुकुण्ड, भास्कर कुण्ड से 10फीट दक्षिण में है, एवं नवला नदी से ही इसका निर्माण भी है,जिसके स्नान से वैकुण्ठ लोक की प्राप्ति और सम्पूर्ण पापों का नाश होता है। केदारखण्ड (148/9) के अनुसार ब्रह्मकुण्ड की स्थिति भास्करकुण्ड से 100 फीट दूरी पर है, जिसके स्नान से ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है। यद्यपि केदारखण्ड ग्रंथ की रचना मध्यकालीन मानी जाती है, लेकिन निःसंदेह स्वीकार करना पड़ेगा कि रचनाकार को मूर्तियों एवं भूगोल का अच्छा ज्ञान रहा होगा। पहले यहाँ के प्रमुख मन्दिर को कुछ लेखकों ने बुद्ध मन्दिर भी घोषित किया था, किंतु शूरवीर सिंह पँवार ने अपने लेख मे इसे सूर्य मन्दिर घोषित किया। यों भी केदारखण्ड मे इस मन्दिर समूह के कारण ही इस क्षेत्र को भास्कर क्षेत्र घोषित किया गया था, यह शताब्दियों पुराना प्रमाण विद्यमान है।

अभिलेखों का ऐतिहासिक विवेचन

पलेठी के अभिलेखों से गढ़वाल के इतिहास पर विशेष प्रकाश पड़ता है।ये शिलालेख सूर्य मन्दिर की उत्तर दिशा मे खेतों की दीवार के सहारे खड़े हैं। जिससे विदित होता है कि जिस मन्दिर की दीवार पर ये शिलालेख थे, वह ध्वस्त हो गया है। शिलालेखों की लिपि ब्राह्मी,भाषा संस्कृत और लेखन समय 7 वीं शती ईस्वी माना गया है। यहाँ के प्राचीन मन्दिर समूह और इन शिलालेखों की जानकारी 1966-67 मे पुराविदों को पहुंचाने का श्रेय डाक्टर G. M. Ghai को प्राप्त है, जिससे कल्याण वर्मा राजा द्वारा यहाँ सूर्य मन्दिर बनाए जाने और उसके पिता अथवा पूर्वज आदिवर्मन पुत्र आदित्यवर्मन और दौहित्र कर्कबर्द्धन के विषय मे संक्षिप्त जानकारी प्राप्त हुई। तत्पश्चात यशवंत कठौच ने भी इसका एक पाठ शोध पत्रिका मे दिया, परन्तु उस पाठ की पुष्टि हुए बिना उसे प्रामाणिक मानना कठिन है।इनमें एक पूर्ण53.5इंच लम्बा और 27.1 इंच चौड़ा और एक खण्डित (46इंच लम्बा तथा 22.2 इंच चौड़ा) शिलालेख है। स्थानीय जनधारणा के अनुसार पहले यहाँ पर 11 मन्दिरों का समूह था।जिनमें अधिकांश प्राकृतिक प्रकोपों से ध्वस्त हो गए,एवं कुछ समय पूर्व तक वर्तमान मंदिरों का भी केवल शीर्ष ही विद्यमान था, जो खुदाई करने पर पूर्ण प्रकाश में लाये गए। अधिक मन्दिरों की संभावना इसलिए भी प्रतीत होती है कि अनेक मन्दिरों के अवशेष यहाँ खेतों मे बिखरे मिलते हैं।

सूर्य मन्दिर

मन्दिरों मे सर्वप्रथम सूर्य मन्दिर की स्थिति है,जिसका गर्भगृह वर्गाकार है। इसकी भीतरी दीवारें वितान सज्जाहीन हैं। मन्दिर का त्रिशाखा प्रवेशद्वार पूर्वाभिमुख है, इसकी सज्जा के आधार पर इसे गुप्तकालीन देवालयों के प्रवेश द्वारों से तुलनीय किया गया है। मन्दिर पर फांसणा अथवा पीढा देवल शैली का शिखर है। वर्तमान में शुकनास के ऊपर 66*77 सेमी. के प्रस्तर पट्ट पर निरूपित रथारूढ सूर्य की प्रतिमा शोभित है। द्वारशाखाओं के निचले पार्श्वों मे क्रमशः मकरवाहिनी गंगा और कच्छपारूढ यमुना शोभित है। सूर्य मन्दिर की भीतरी पश्चिमी दीवार से लगी हुई 130*0.70 मीटर माप की 5.2 सेमी. ऊँची पीढिका पर बूटधारी सूर्य की 122 मीटर ऊँची, 62 सेमी. चौड़ी और 18 सेमी मोटी प्रतिमा स्थापित है।मूर्ति मे सूर्य विशाल चोलाधारी हैं। उनकी दोनों भुजाओं मे कमलदण्ड है,घुटनों के नीचे कुंचुके हैं, सिर के चारों ओर प्रभामंडल है, घुंघराली अलकें कंधों मे बिखरी हुई हैं एवं बाहों मे उत्तरीय लहरा रहा है। उल्लेखनीय है कि इस प्रकार की बूटधारी मूर्तियाँ मूलतः शक देवता के रूप मे पूजी जाती रही हैं, एवं इन्हें शक मूर्तियों का उत्तरी भारतीय रूप कहा गया है, जिसे कुषाणों द्वारा प्रचलित किया गया था।देश की यह भारतीय रूप, शीतप्रधान प्रथा पर ईरानी ढंग विकसित हुआ और ईस्वी सन् के कुछ ही पूर्व भारत मे प्रचलित हुआ, ऐसा माना जाता है। सूर्य मन्दिर मे वैकुण्ठ विष्णु और शेषयायी विष्णु की प्रतिमा भी रखी हैं।

शिव मन्दिर

सूर्य मन्दिर के ठीक पीछे पूर्वाभिमुख शिव मन्दिर स्थित है।इसका गर्भगृह वर्गाकार और सामने आयताकार अन्तराल बनाया गया है। गर्भगृह की भीतरी दीवारें सादी हैं, इसकी भीतरी माप 1.34*1.34 मी. एवं बाहरी माप 2.57*2.57मी. है। मन्दिर फांसणा या देवल शैली शिखर का है।शिवमन्दिर का द्वार तीन शाखाओं द्वारा सज्जित है। इनमें क्रमशः पत्रवल्ली, फुल्लचट्टी और श्रीवृक्ष निरूपित हैं। प्रथम शाखा शैली की दृष्टि से रोचक है,पत्रवल्ली को नीचे बैठे मानव की नाभि से प्रस्फुटित होते दर्शाया गया है। ऐसी ही लतापर्ण मध्यप्रदेश मे नचना भूमरा के गुप्तकालीन प्रवेश द्वारों पर भी उत्कीर्ण मिलती है। मन्दिर के गर्भगृह के मध्य मे योनिपीठ मे शिवलिंग स्थापित है।

गणेश एवं पार्वती मन्दिर

शिव मन्दिर के दायें पार्श्व भाग मे भग्न गणेश मन्दिर हैं।इसके गर्भगृह में पार्वती,महिषमर्दिनी दुर्गा और गणेश आदि देवताओं की खण्डित प्रतिमाएँ हैं।शिवमन्दिर के वाम पार्श्व मे पार्वती मन्दिर पूर्णतः भूमि में दबा है।केवल दांयां भाग ही खनन के बाद प्रकाश में आया है।यहीं पर एक विशाल आम्रवृक्ष की स्थिति है।शैली की दृष्टि से पलेठी मन्दिर समूह की कुछ मूर्तियों को छोड़कर अन्य सभी मन्दिरों एवं मूर्तियों को 7वीं सदी ईस्वी के उत्तरार्द्ध मे रखा गया है।मन्दिरों की स्थिति और केदारखण्ड मे इसके महत्व को देखकर आज भी लोग सैकड़ों की संख्या मे बैकुण्ठ चतुर्दशी को यहाँ सूर्य एवं शिव पूजन हेतु आते हैं।

पलेठी के शिलालेख इस स्थान पर दबे मन्दिरों के मलवे से करीब आज से 80वर्ष पूर्व हटाने पर मिले। इसके अनुसार परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर कल्याणवर्मन अपने पिता आदिवर्मन के चरणों मे ध्यानावस्थित हैं। आदित्यबर्द्धन और उसका दौहित्र कर्कवर्मन का भी इस लेख मे उल्लेख है,एवं सूर्य मन्दिर बनाने का भी उल्लेख है। डबराल का मत है कि प्रतीत होता है कि हर्षु की मृत्यु के बाद ही इन्होंने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित की होगी, एवं स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने वाला नरेश परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर कल्याणवर्मन रहा होगा।क्योंकि कल्याणवर्मन के पूर्वाधिकारी आदिवर्मा की कोई उपाधि नहीं,अतः वह हर्ष के अधीन रहा होगा।इन आये नामों मे शूरवीरसिंह पँवार कौमुदी महोत्सव ग्रंथ के आधार पर कल्याणवर्मन का संबंध गुप्तों के उदय से पूर्व मगध पर राज्य करने वाले सुन्दरवर्मन राजा के पुत्र कल्याणवर्मन से जोड़ते हैं,और इस प्रकार कल्याणवर्मन का समय चौथी शती ईस्वी मानते हैं।उनका यह भी मत है कि पलेठी का सूर्यमन्दिर, कर्कवर्मन द्वारा उनके ससुर आदित्यवर्मन द्वारा सहायता करने पर निर्मित करवाया था,जो मौखरियों एवं हर्षबर्द्धन के वंश से संबंधित थे।मौखरी वंश मे आदित्य वर्मा और बर्द्धन वंश मे भी आदित्यबर्द्धन नामक राजा हुए,लेकिन यदि महाराजाधिराज परमेश्वर कल्याणवर्मन की समता सुन्दरवर्मन के पुत्र कल्याणवर्मन से की जाती है, तो इसका समय समुद्रगुप्त से भी पहले रखना होगा।जबकि लिपि विशेषज्ञों ने पलेठी शिलालेख में आये कल्याणवर्मन का समय 600ईस्वी के बाद निर्धारित किया है। अतः शूरवीरसिंह पँवार के मत में संशोधन की आवश्यकता प्रतीत होती है।

इस बात और इस तथ्य से कि नेपाल में मौखरी सामन्त भोगवर्मन के पिता सूरसेनवर्मन (637-38मे) अर्थात हर्ष के समय वहाँ कन्नौज की ओर से दूत का कार्य करता था।और वसाक के अनुसार हर्ष के बाद वही कन्नौज नरेश बना।इसी तरह बहुत संभव है कि गृहवर्मन के अनुज का वंशज परवर्ती युग मे गढ़वाल मे टिका रहा हो और उसका नाम कर्कवर्मन रहा हो।डबराल का मत है ख केवल वर्मन नामान्त के आधार पर इन राजाओं का संबंध मौखरी या पौरव या अन्य राजाओं से नहीं जोड़ा जा सकता,क्योंकि उन दिनों वर्मन नामान्त के नरेश अनेक राजवंशो मे हुए। उनके अनुसार आदिवर्मन, हर्ष के राज्यकाल मे उत्तराखंड के दक्षिण पश्चिमी भाग का शासक था।लेकिन उनके शासित प्रदेश के बारे मे कुछ नहीं कहा जा सकता है,वे आदिवर्मन को इस वंश का शासक मानते हैं।डबराल के अनुसार पर्वताकार राज्य के विष्णुवर्मन एवं वृषवर्मन नरेश महाधिराजाधिराज परमेश्वर कल्याणवर्मन के अधीन थे,क्योंकि आरम्भ मे देवप्रयाग के नरेशों का उत्तराखंड के दक्षिण -पश्चिमी भाग पर तथा पौरव नरेशों का उत्तरी पूर्वी भाग पर अधिकार रहा होगा।कल्याणवर्मा का अदित्यवर्मा से संबंध अनिश्चितत है।

यशवंत सिंह कठौच ने शिलालेख की पंक्ति 18मे भूत्यवंश लिखा होने का उल्लेख किया है और इस आधार पर निष्कर्ष निकाला कि पलेठी अभिलेखों में आये सभी राजा पुष्यभूति वंश के थे।उनका अनुमान है कि परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर कल्याणवर्मन हर्ष के बाद हुए। (1)लेकिन लेख मे उनके (कठोच)द्वारा पढ़ा गया शब्द (भूत्यवंश)का पाठ अभी तक लिपि विशेषज्ञों द्वारा स्वीकृत पाठ नहीं हुआ है। (2)उपरोक्त के अतिरिक्त कल्याणवर्मन का उल्लेख पहले(4थी पंक्ति मे)आया है और आदित्यवर्मन का उल्लेख 9वीं पंक्ति मे आया है,जो निश्चय ही पूर्ववर्ती एवं परवर्ती होने का द्योतक है,जबकि उनके मत को मानने पर यह क्रम उल्टा हो जाता है। (3)यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि पुष्यभूतिवंश के राजा आदित्यबर्धन, जो हर्ष के पितामह थे,की उपाधि महाराजा की थी,जबकि पलेठी अभिलेख मे नहीं है। (4)इसके अतिरिक्त हर्ष के बाद उसके वंशजों के राज्य करने का कोई उल्लेख नहीं मिलता।यहाँ पर ध्यान देने की बात है कि अंत में आदित्यबर्धन के दौहित्र कर्कवर्मन का उल्लेख भी आया है। (5)अभिलेखों से वर्मन नामान्त के नरेशों के नाम अधिक होने से स्पष्ट है कि इस वंश की पहचान मौखरी वंश से करनी कहीं अधिक संगत है,क्योंकि सिरोली एवं निर्मण्ड (उत्तराखंड एवं हिमाचल)में अभिलेखों के आधार पर कन्नौज के मौखरी वंश की विजय एवं राज्य विस्तार के प्रमाण उपलब्ध हैं,जिससे मौखरी वंश के राजाओं के आधिपत्य की पुष्टि होती है। (6)आदित्यबर्धन और कर्कवर्मन/बर्द्धन का नाना दौहित्र का संबंध बताया गया है।अतः दोनों बर्द्धन नहीं हो सकते। (7)नालन्दा सील से अवन्ति वर्मन के दूसरे पुत्र के होने का उल्लेख मिलता है,जो निःसंदेह गृहवर्मन का छोटा भाई था।

 उपरोक्त तथ्यों को देखने के बाद यह स्पष्ट है कि मौखरी नरेश अवन्ति वर्मा का गृहवर्मन के अलावा एक अन्य पुत्र भी था,जब कन्नौज की राजसत्ता हर्ष को हस्तांतरित हो गई तो संभवतः गृहवर्मन के भाई ने यहाँ अपना शासन स्थापित किया हो।क्योंकि पहले भी मौखरी वंश के सर्ववर्मन के अधीन यह क्षेत्र था,जिसका उल्लेख सिरोली अभिलेख मे है। ऐसा मानने पर हर्ष की मृत्यु के बाद आदिवर्मन के पुत्र कल्याणवर्मन के स्वतंत्र और शक्तिमान शासक बनने की अधिक संभावना लगती है,और उसके विरुद्ध परम भट्टारक महाराजाधिराज की उपाधि की संगति भी हो जाती है।नैथानी भी पौरववंशीय नरेशों के पश्चात गढ़वाल पर वर्मनवंशीय नरेशों का आधिपत्य मानते हैं, वे अस्वीकार करते हैं,पर आगे पीछे होने की संभावना व्यक्त करते हैं।नैथानी का पुन: मत है कि हेफताल(हूणों)को हराने वाले सिरोली अभिलेख वर्णित सर्ववर्मन मौखरी नरेश की सत्ता बाद मे यहाँ से उखड़ गई थी और पौरववंशीय नरेश (कुशली) जिन्हें कि वे शूलिक कहते हैं,यहाँ छा गए।परन्तु हर्ष के बाद संभवतः तिब्बती हमले से वे क्षीण हो गए,एवं कन्नौज के वास्तविक उत्तराधिकारी मौखरी को पुन: यहाँ पाँव जमाने का अवसर मिल गया,और पौरव पौरव वंश नष्ट या क्षीण होने से वे उत्तरोत्तर सफल होते गये,जिनमें कल्याणवर्मा ने तो बाद मे महाराजाधिराज की उपाधि भी ले ली थी।अतः जहाँ पौरवों का राज्य था,वहीं वर्मन राजाओं का राज्य स्थापित हो गया।यह भी संभव है कि ब्रह्मपुर राजवंश खिसक कर पलेठी – नगर जा बसने को कारणवश विवश हुआ हो। यह भी संभव है कि हर्ष युग मे यहाँ आदित्यवर्धन नामक कोई प्रमुख राज्याधिकारी रहा हो। उससे यह शक्ति आदिवर्मन के पुत्र कल्याणवर्मन के हाथ में आ गई,और वह महाराजा बन गया।इसके वंश मे कर्कवर्मन हुआ, जो आदित्यबर्धन का दौहित्र था,और जिसने माता तथा पिता दोनों के कुल देवताओं के मन्दिर बनवाए हों। इससे शिव तथा सूर्यमन्दिर दोनों के बनाए जाने के संगति भी हो जाती है। क्योंकि वर्द्धन वंश सूर्योपासक था और मौखरी वंश शिवोपासक था। खेद है कि दोनों शिलालेखों के कुछ शब्द ही पढ़े जा सके हैं,जिससे विद्वान इस वंश के बारे मे विविध अनुमान लगाने को विवश हो गए हैं।

पलेठी के वर्मनवंशीय राज्य का विस्तार

यद्यपि पलेठी में शिलालेख मिले हैं तथा प्राचीन मन्दिर हैं, परंतु इस स्थान की भौगोलिक स्थिति से पता चलता है कि यह स्थान राजधानी नहीं था, बल्कि इसके दक्षिण पार्श्व मे जो पहाड़ खड़ा है उससे 3मील दूरी पर पलेठी एक गाँव है और उसके निकट एक दुर्ग है,जिसे आज वनगढ कहा जाता है। इसी के कारण मध्यकाल मे भिलंगनाv (टिहरी) से लेकर अलकनन्दा के दायें तट क्षेत्र खास पट्टी को वनगढस्यूं कहा जाता था। इस पलेठी में पलेठा जाति के लोग आज भी रहते हैं, तथा विष्ट (विशिष्ट) उपाधिधारी हैं। नैथानी के अनुसार गढ़वाल के अनेक गढों मे पलेठा जाति की वीरता की कहानियाँ भी सुरक्षित हैं। अतः बाद के वर्मन वंश की राजधानी या तो यह पलेठी थी, या भागीरथी के तट पर कोटेश्वर के पार नगर नामक चौरस क्षेत्र था, जो भागीरथी में आने वाली बाढ़ से कालांतर मे ध्वस्त होने से एक मन्दिर व अनेक खंडित मूर्तियों के साथ स्मारक रूप मे अवशिष्ट रह गया है।पलेठी(वनगढस्यूं) और नगर के मध्य मे दोनों ओर से लगभग 5-5मील की दूरी पर संकरी घाटी में जो गढ पलेठी या कुमैण पलेठी नामक स्थान है,b यद्यपि वह मन्दिर तथा अभिलेख स्थान हैपरन्तु राजधानी होने लायक कदापि नहीं है। प्रतीत होता है कि अब ब्रह्मपुर (बाडाहाट) श्रीहीन हो गया था, जिसका कारण इसके राज्याधिकारियों का निर्बल होना था,अथवा तिब्बती आक्रमण था,जिसका उल्लेख राहुल सांकृत्यायन तथा गूज ने किया है।तब उसी राज्य की सीमा को ग्रहण करते हुए पलेठी के वर्मन (मौखरी) वंशीय राजाओं ने नया नगर बनाया और सूर्यमन्दिर बनवाकर पलेठी तथा नगर क्षेत्र का केदारखण्ड मे भास्कर क्षेत्र नाम प्रसिद्ध कर दिया। केदारखण्ड (148/40)मे भी उल्लेख है कि भद्रसेन से लगुडसानु पर्यन्त, जहाँ गंगाजी की उत्तर गति है (कोटेश्वर तथा नगर)वहाँ पाँच योजन विस्तृत भास्कर क्षेत्र है।जहाँ देवलोक से आये व्यक्ति निवास करते हैं।तथा जहाँ अनेक पीठ व दिव्य मन्दिर हैं।भद्रसेन की पहचान अभी तक नहीं हो पायी है।अतः वर्मन(मौखरी) वंश के राजाओं द्वारा यहाँ सूर्य मन्दिर निर्माण से ही यह क्षेत्र भास्कर क्षेत्र कहलाया होगा।

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