सुप्रभातम्: गोवर्धन पर्वत की पारिक्रमा क्यों करनी चाहिए?

हिमशिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand

श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को भगवान का रूप बताया है और उसी की पूजा करने के लिए सभी को प्रेरित किया था।

आज भी गोवर्धन पर्वत चमत्कारी है और वहां जाने वाले प्रत्येक व्यक्ति की सभी इच्छाएं पूरी होती हैं।

एक कथा के अनुसार –

भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार लेने के पूर्व राधाजी से भी साथ चलने का निवेदन किया।

इस पर राधाजी ने कहा कि, मेरा मन पृथ्वी पर वृंदावन, यमुना और गोवर्धन पर्वत के बिना नहीं लगेगा।

यह सुनकर श्रीकृष्ण ने अपने हृदय की ओर दृष्टि डाली जिससे एक तेज निकलकर रास भूमि पर जा गिरा। यही तेज पर्वत के रूप में परिवर्तित हो गया।

शास्त्रों के अनुसार यह पर्वत रत्नमय, झरनों, कदम्ब आदि वृक्षों से भरा हुआ था एवं कई अन्य सामग्री भी इसमें उपलब्ध थी।

इसे देखकर राधाजी प्रसन्न हुईं तथा श्रीकृष्ण के साथ उन्होंने भी पृथ्वी पर अवतार धारण किया।

कभी विचार किया है कि हम श्री गिरिराजजी की परिक्रमा क्यों करते हैं?

अज्ञानता अथवा अनभिज्ञता से किया हुआ आलौकिक कार्य भी सुन्दर फल ही देता है, तो यदि उसका स्वरूप एवं भाव समझकर हम कोई अलौकिक कार्य करें, तो उसके बाह्याभ्यान्तर फल कितना सुन्दर होगा, यह विचारणीय है।

परिक्रमा का भाव समझिये –

हम जिसकी परिक्रमा कर रहें हों, उसके चारों ओर घूमते हैं। जब किसी वस्तु पर मन को केन्द्रित करना होता है, तो उसे मध्य में रखा जाता है, वही केन्द्र बिन्दु होता है अर्थात जब हम श्री गिरिराजजी की परिक्रमा करते हैं तो हम उन्हें मध्य में रखकर यह बताते हैं कि हमारे ध्यान का पूरा केन्द्र आप ही हैं और हमारे चित्त की वृत्ति आप में ही है और सदा रहे।

दूसरा भावात्मक पक्ष यह भी है कि जब हम किसी से प्रेम करते हैं तो उसके चारों ओर घूमना हमें अच्छा लगता है, सुखकारी लगता है।

श्री गिरिराजजी के चारों ओर घूमकर हम उनके प्रति अपने प्रेम और समर्पण का भी प्रदर्शन करते हैं। परिक्रमा का एक कारण यह भी है कि श्री गिरिराजजी के चारों ओर सभी स्थलों पर श्री ठाकुरजी ने अनेक लीलायें की हैं जिनका भ्रमण करने से हमें उनकी लीलाओं का अनुसंधान रहता है।

परिक्रमा के चार मुख्य नियम होते हैं जिनका पालन करने से परिक्रमा अधिक फलकारी बनती है।

“मुखे भग्वन्नामः, हृदि भगवद्रूपम ।

हस्तौ अगलितं फलम, नवमासगर्भवतीवत चलनम।।

अर्थात

मुख में सतत भगवत-नाम, हृदय में प्रभु के स्वरूप का ही चिंतन, दोनों हाथों में प्रभु को समर्पित करने योग्य ताजा फल और नौ मास का गर्भ धारण किये हुई स्त्री जैसी चाल, ताकि अधिक से अधिक समय हम प्रभु की टहल और चिंतन में व्यतीत कर सकें।

श्री गिरिराजजी पाँच स्वरूप से हमें अनुभव करा सकते हैं, दर्शन देते हैं –

पर्वत रूप में, सफेद सर्प के रूप में, सात बरस के ग्वाल-बालक के रूप में, गाय के रूप में और सिंह के रूप में।

श्री गिरिराजजी का ऐसा सुन्दर और अद्भुत स्वरूप है कि इसे जानने के बाद कौन यह नहीं गाना चाहेगा कि;

“गोवर्धन की रहिये तरहटी श्री गोवर्धन की रहिये।”

श्री श्रीनाथजी व श्री गिरिराजी दोनों एक ही हैं।

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