दीपावली रोशनी का त्योहार, पर्यावरण को प्रदूषित करने का नहीं :राजेश्वर पैन्यूली

भारतीय जनमानस में दिवाली का त्योहार सदियों से रचा बसा हुआ है। भगवान राम की अयोध्या वापसी की खुशी में सदियों से यह त्योहार पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाने की परंपरा रही है। ऐसा माना जाता है कि पहले यह त्योहार जगमगाते दीपों और रोशनी के साथ मनाया जाता था, लेकिन समय के बदलाव के साथ इस त्योहार का मनाने का तरीका भी बदल गया। आज जगमगाते दीपों के स्थान पर लाइटिंग के साथ-साथ तेज ध्वनि वाले पटाखे फोड़े जाते हैं, जो ध्वनि प्रदूषण तो करते ही हैं, साथ ही वायु प्रदूषण भी बढ़ाते हैं। ऐसे में अब समय की जरूरत है कि हम ‘ग्रीन दिवाली’ मनाने की ओर कदम बढ़ाएं, जो प्रदूषण से रहित हो। चूंकि हमारी सनातन परंपरा चिरकाल से पर्यावरण की पोषक रही है, ऐसे में हमें पर्यावरण हितैशी और सुरक्षित दीपावली मनाने के बारे में जरूर सोचना होगा।

Uttarakhand

सी.ए. राजेश्वर पैन्यूली

हर ओर दीपों के पर्व दीपावली की धूम मचनी शुरू हो गई है। दीपावली पर पटाखे फोड़ने की परम्परा लंबे समय से चलती आ रही है, लेकिन यह हमारी संस्कृति का अंग या परंपरा नहीं है। दरअसल, भगवान श्रीराम चौदह वर्ष के वनवास के बाद जब वापस अयोध्या लौटे, तो उनके आगमन की खुशी में अयोध्या के वासियों ने जगह-जगह घी के दीए जलाए। घी के दीए जलाने का अर्थ वैसे भी खुशी मनाना होता है। दीपक जलाना अपनी खुशी को अभिव्यक्त करने का माध्यम है। लेकिन बदलते दौर में दीप पर्व पर पटाखे फोड़कर खुशी जाहिर करने की परम्परा बनती जा रही है।

दीपावली उत्सव की शुरूआत लंका विजय के पश्चात भगवान श्रीराम के अयोध्या लौटने पर हुई थी। रावण का वध करने के बाद जब भगवान श्रीराम अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ अयोध्या लौटे थे तो नगरवासियों ने पूरे शहर को मिट्टी के दिए जलाकर रोशन कर दिया था। ये दीपक अधर्म पर धर्म की विजय और अंधेरे पर उजाले की जीत के प्रतीक के रूप में जलाए गए थे। दीपावली का शाब्दिक अर्थ होता है दीपों की एक पंक्ति, जो घी या तेल से जलाई जाती हैं। पटाखे जलाने का रामायण या अन्य शास्त्रों में कोई उल्लेख नहीं मिलता है। इस पर्व का मतलब बारूद भरे पटाखों से बिल्कुल नहीं होता।

Rajeshwar Painuly

हम सभी जानते हैं कि बारूद का अविष्कार भारत में नहीं हुआ है। पटाखे भी बारूद से बनते हैं। यानी की बारूद, दीवाली से जुड़ी धार्मिक मान्यता एवं परंपरा का हिस्सा शुरू से ही नहीं थी। भारत में दीवाली में पटाखा जलाने की कोई परंपरा नहीं है। ऐसे में रोशनी के पर्व दीपावली पर पटाखे फोड़कर और पर्यावरण को प्रदूषित कर खुशी जाहिर करना क्या ठीक बात है? ऐसी खुशी का क्या अर्थ, जो लोगों के लिए जान का खतरा बनती हो। सामान्य मूक जानवर भी पटाखों के शोर एवं उससे उत्पन्न प्रदूषण से परेशान हो जाते हैं। ऐसे में थोड़ा बहुत ग्रीन पटाखों का उपयोग किया जा सकता है।

दीपावली पर मिट्टी के दिये के स्थान पर झालर और लाइट लगाने की परंपरा आ गई है। हमें मिट्टी के दिये जलाने की परंपरा की पुन: शुरुआत करनी होगी। इससे कीड़े मकोड़े मरते हैं। झालर और लाइट से कीड़े नहीं मरते। हमारी संस्कृति सरसों के तेल के दिये जलाना है, अच्छे पकवान बनाना, मिठाइयां खाना और पड़ोसी को भी खिलाना, लोगों को उपहार देना आदि है।

हमारे धर्म ग्रंथों में दीपक जलाने की बात कही गयी है। पूर्वजों ने भी इसी का पालन किया दीपक जलाकर, रंगबिरंगी रोशनी के माध्यम से इस पर्व को खुशी की सौगात दी है। ज्यादा ही मनीषा हुई तो फुलझड़ी जला के मन को प्रसन्न कर लिया। आतिशबाजी और पटाखेबाजी बेकार की फिजूलखर्ची है। क्षण भर में लाखों रुपयों का नुकसान के साथ-साथ अमूल्य पर्यावरण को भी हानि है। दीप जलाना मात्र औपचारिकता नहीं है। दीप अन्तर के तमस को अन्त करने की प्रेरणा देता है। आओ, हम सब मिलकर देश को आतंक और कुत्सित प्रवृत्तियों से मुक्त करने की प्रेरणा लें।

वसुधैव कुटुंबकम वाले इस देश भारत में पटाखों का कम से कम प्रयोग करना आज प्रासंगिक है, ताकि किसी के शौक की कीमत दूसरे को अदा नहीं करनी पड़े। दीवाली के दिन हम मां लक्ष्मी की पूजा भी करते हैं एवं उनसे धन, धान्य एवं समृद्धि की कामना करते हैं। सवाल यह है कि क्या शोर-शराबा और प्रदूषण कर देवी-देवताओं के कृपा पात्र हो सकते हैं। आज का हमारा समाज एक जागरूक समाज है। भारत का संविधान भी रेखांकित करता है कि स्वच्छ पर्यावरण उपलब्ध कराना केवल राज्यों की ही नहीं अपितु हर प्रत्येक नागरिक का भी दायित्व है।

‘दीपावली की देश और प्रदेशवासियों को हार्दिक शुभकामनाएं।यह त्योहार आप सभी के जीवन में सुख, समृद्धि और उल्लास लेकर आए, यही ईश्वर से कामना है।’

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