सुप्रभातम्: स्वामी रामतीर्थ की ‘भविष्यवाणी’ सच हुई

भारतीय दर्शन में शरीर को आत्मा का मंदिर माना गया है। आत्मा देवता है, शरीर उसका मंदिर है। यह ठीक है कि शरीररूपी मंदिर की भी अच्छी तरह देखभाल हो रही है, लेकिन आत्मदेवता की ओर हम ध्यान ही नहीं दे रहे हैं। आत्मदेवता की पूजा के बदले आज शरीर पूजा ही अधिक हो रही है। भारतीय संस्कृति के उज्जवल इतिहास के पन्नों पर ऐसे-ऐसे अनेक शील संपन्न पुरुषों और स्त्रियों के नाम अंकित हैं-जैसे सीता, दमयंती, कुंती, चंदनबाला, राजीमती, ब्राह्मामी, सुंदरी आदि महासतियों का नाम प्रतिदिन प्रात:काल क्यों लिया जाता है? शील के अतुल प्रभाव ने ही तो उन्हें प्रात: स्मणीय बनाया है! शीलवान पुरुष के तेजस्वी व्यक्तित्व के समक्ष हर पापी व्यक्ति झुक जाता है, दब जाता है। जिनकी आत्मा शीलरूपी अलंकार से सुशोभित है, उनके सामने पूरी दुनिया झुकती है। शीलवान पुरुष मन से जिस बात की इच्छा करता है वह उसे प्राप्त हो जाती है। आचरण की शुद्धता से बढ़कर और कुछ नहीं। जिसने अपने आचरण में मानवीय गुणों को समाहित कर लिया उसके लिए बड़े से बड़े लक्ष्य को हासिल करना किसी भी प्रकार से असंभव नहीं। शीलवान पुरुष मन से जिस बात की इच्छा करता है, वह उसे प्राप्त करके ही रहता है।जो व्यक्ति, देशसेवा, समाजसेवा या धर्मसेवा दत्तचित्त होकर करना चाहता है, उसके लिए सद् आचरण अनिवार्य है। अपने आचरण से वही दूसरों को प्रेरित कर सकता है जिसका अपना आचरण सच्चा हो, मन पवित्र हो। इसके लिए आवश्यक है आत्मा की शुद्धता। स्वामी रामतीर्थ जैसे महान व्यक्तियों ने व्यवहार में ऐसा करके दिखाया और अपने लिए इतिहास में ऊंचा स्थान आरक्षित किया।

Uttarakhand

हिमशिखर धर्म डेस्क

‘‘भारत भूमि मेरा शरीर है, कन्याकुमारी मेरे पैर हैं और हिमालय मेरा सिर’’ यह कथन था स्वामी तीर्थ जी का। स्वामी रामतीर्थ जी ने भविष्यवाणी कर दी थी कि भारत 1950 से पहले अपनी गुलामी की जंजीरों को तोड़ फेंकेगा। उन्होंने कई क्रांतिकारियों को प्रेरणा दी-सरदार भगत सिंह भी उनमें से एक हैं। जनसंख्या नियंत्रण, नारी शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को उन्होंने उस समय उठाया जब इनके बारे में सोचना अपराध माना जाता था। तब उन्होंने कहा कि भारत के युवकों को चाहिए कि वह विदेश जाएं और वहाँ से शिक्षा प्राप्त करके अपने देश को समृध्द करें, स्वामी जी ने देश भक्ति को ईशभक्ति का महत्वपूर्ण चरण बताया अथार्त जो देशभक्त नहीं है वह ईश भक्ति क्या करेगा? यह बिल्कुल ऐसे ही जैसे बीए में प्रवेश करने के लिए 12 वीं पास करना जरूरी है।

निर्धन छात्रों पर खर्च करते थे वेतन

पिता ने बाल्यावस्था में ही स्वामी रामतीर्थ जी का विवाह भी कर दिया था। छात्र जीवन में इन्होंने अनेक कष्टों का सामना किया। भूख और आर्थिक तंगी के बाद भी 1891 में पंजाब विश्वविद्यालय की बी.ए. की परीक्षा में प्रांत भर में प्रथम स्थान प्राप्त किया। प्रथम आने पर इन्हें छात्रवृत्ति भी मिली थी। अपने प्रिय विषय गणित में एम.ए. उत्तीर्ण कर गणित के प्रोफेसर नियुक्त हो गए। वह अपने वेतन का बड़ा हिस्सा निर्धन छात्रों के अध्ययन के लिए दे देते थे।

हिमालय में खत्म हुआ संशय

स्वामी रामतीर्थ जी को मां गंगा और पुरानी टिहरी से बड़ा प्रेम था। कम ही लोगों को मालूम होगा कि रामतीर्थ जी को माँ गंगा साक्षात दर्शन दिया करती थी। लेकिन स्वामी जी चमत्कार और सिद्धियों के प्रदर्शन से सदा दूर रहे। वे जीवन भर एक साधारण संत की तरह ही रहे। कहते हैं कि प्रकृति भी उनके इशारे पर चलती थी। विदित हो कि रामतीर्थ जी को टिहरी के ब्रह्मपुरी में आत्म साक्षात्कार हुआ और इनके मन के सभी भ्रम एवं संशय मिट गए। उन्होंने स्वयं को ईश्वरीय कार्य के लिए समर्पित कर दिया। प्रो. तीर्थ राम से रामतीर्थ हो गए। उन्होंने द्वारिका पीठ के शंकराचार्य के निर्देशानुसार केशों का त्याग कर संन्यास ले लिया तथा अपनी पत्नी एवं साथियों को वहां से वापस भेज दिया।

विदेशों में भारतीय संस्कृति का प्रचार

मई 1902 ई. को स्वामी रामतीर्थ राम पहाड़ों की रानी मसूरी के रास्ते टिहरी रियासत में कौड़िया नामक स्थान में निवास कर रहे थे। संयोग से टिहरी के तत्कालीन महाराज कीर्तिशाह को राम बादशाह के टिहरी रियासत में आगमन की सूचना मिली। जिस पर टिहरी महाराज आन-बान-शान से सर्वस्व त्यागी विद्वान संन्यासी स्वामी रामतीर्थ जी महाराज को अपने डेरे पर ले गए।

टिहरी के महाराज कीर्तिशाह की प्रवृत्ति तर्क-प्रधान थी। उन्होंने नास्तिक दर्शनों का भी अध्ययन किया हुआ था। महाराजा टिहरी ने स्वामी रामतीर्थ को श्रद्धा-भक्ति से नमन कर ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में प्रश्न किया। राम बादशाह ने नाना युक्ति प्रमाणों से दो बजे से पांच बजे तक ठीक तीन घंटे उपदेश करके, ईश्वर का अस्तित्व प्रत्यक्ष सिद्ध कर दिया। इस विलक्षण सत्संग का महाराज के हृदय पर बड़ा प्रभाव पड़ा और अत्यंत विनीत भाव से उनसे ग्रीष्म कालीन राजधानी प्रतापनगर पधारने की कृपा प्रार्थना की।

स्वामी रामतीर्थ उनकी प्रार्थना पर प्रतापनगर स्थित एक अत्यंत रमणीक स्थान पर आसन ग्रहण करने लगे। एक दिन चुपके से टिहरी महाराज स्वामी रामतीर्थ जी के दर्शन के लिए गए। जिस कोठरी में स्वामी जी निवास करते थे, उस दिन वे लेटे हुए थे। ॐ, ॐ, ॐ, ॐ… पवित्र ध्वनि राम के शरीर के रोम-रोम से अनवरत निकल रही थी। इस ध्वनि को सुनकर महाराज चकित हो गए। उस दिन टिहरी महाराज भी धन्य हो गए।

जब स्वामी जी प्रतापनगर में ही थे, तो महाराजा कीर्तिशाह ने सन् 1902 में समाचार-पत्रों में पढ़ा कि शिकागो में सर्वधर्म सम्मेलन की तरह का एक आयोजन इस बार टोकियो में संपन्न होने जा रहा है। महाराज कीर्तिशाह ने स्वयं इसकी सूचना स्वामी जी को दी। महाराज ने स्वामी जी की स्वीकृति के बाद टोकियो जाने की सारी व्यवस्था कर दी। नारायण स्वामी भी उस समय उनके साथ थे।

स्वामी रामतीर्थ का कहना था,‘‘शाश्वत शांति का एक मात्र उपाय है आत्मज्ञान। अपने आपको पहचानो। तुम स्वयं ईश्वर हो।’’

स्वामी रामतीर्थ ने बांहें फैलाकर कहा,  ‘‘भारत में जितनी सभा-समाजें हैं, सब राम की अपनी हैं। राम मैतक्य के लिए हैं, मतभेद के लिए नहीं। देश को इस समय आवश्यकता है एकता और संगठन की। राष्ट्र धर्म और विज्ञान साधना की, संयम और ब्रह्मचर्य की।’’

टिहरी बनी मोक्ष स्थली

टिहरी जो रामतीर्थ जी की आध्यात्मिक प्रेरणा स्थली थी, वही उनकी मोक्ष स्थली बनी। 1906 की दीपावली के दिन उन्होंने मृत्यु के नाम एक संदेश लिख कर गंगा में जल समाधि ले ली।

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