सुप्रभातम्: कलियुग में हनुमान जी सर्वाधिक उपास्य देवता

श्री 1008 श्री स्वामी करपात्री महाराज

Uttarakhand

यत्र यत्र रघुनाथकीर्तनं तत्र तत्र कृतमस्तकाञ्जलिम् । वाष्पवारिपरिपूर्णलोचनं मारुतिं नमत राक्षसान्तकम् ॥

परात्पर पूर्णब्रह्म श्रीराम का अवतार चतुर्व्यूहात्मक मात्र न होकर पञ्चायतन रूप में भी शास्त्रों में वर्णित है। एक ही ब्रह्मविभूति जहाँ चतुर्धा विभक्त होकर आविर्भूत हुई, वहाँ उसी परिवार के अनन्य अङ्ग श्रीहनुमान भी हैं। तत्कालीन विश्व में अद्भुत, अलौकिक, दिव्य आनन्दामृतसिन्धु में प्रफुल्लित श्रीराम-सरोज के दिव्यातिदिव्य सौरभ के सहजोन्मत्त भ्रमर दो ही हुए – एक श्रीभरत और दूसरे श्रीहनुमान। इसी कारण गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में श्रीराम ने हनुमानजी को कहा- ‘तै मम प्रिय लछिमन ते दूना ‘ (मानस ४। २ । ३३), ‘तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।’ (ह० चा०) ।

श्रीहनुमान श्रीराम भक्तों के परमाधार, रक्षक और श्रीराम-मिलन के अग्रदूत हैं। श्रीराम भक्त को श्रीहनुमानजी से सहज प्रेम, आश्रय और सस्नेह रक्षा प्राप्त होती है। महावीर हनुमानजी के वचन में ही नहीं, किंतु उनके वास्तविक जीवन में भी कोई असम्भव तत्त्व नहीं था। सहज सरल निरभिमान श्रीहनुमानके—

शाखामृगस्य शाखायाः शाखां गन्तुं पराक्रमः।

यत्पुनर्लङ्गितोऽम्बोधिः प्रभावोऽयं प्रभो तव ॥ (हनुमन्नाटक ६ । ४४)

साखामृग के बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई  (मानस ५ ३३) –

शब्दों में कितनी अहंकार शून्यता है, पर उनके अपने जीवन में ही नहीं, अपितु उनके कृपा कटाक्ष में भी असम्भव को सम्भव बनाने की सामर्थ्य है। इस विषयमें ऋक्षराज जाम्बवान्‌ के ये वचन प्रमाण हैं-

कवन सो काज कठिन जग माहीं।

जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं ॥ (मानस ४ । २९)

मृतक को जीवन दान देना श्रीहनुमान जी के लिये अति सामान्य बात है। श्रीलक्ष्मण जी के जीवन की तथा उनके द्वारा प्रभु श्रीराम की भी सुरक्षा के निमित्त श्रीहनुमान हैं। स्वयं भगवान् श्रीराम अगस्त्यजी के समक्ष मुक्त कण्ठ से उनकी प्रशंसा करते नहीं अघाते-

शौर्य दाक्ष्यं बलं धैर्य प्राज्ञता नयसाधनम् ।

 विक्रमश्च प्रभावश्च हनूमति कृतालयाः ॥ ( वा० रा० ७।३)

शूरवीरता, दक्षता, बल, धैर्य, विद्वत्ता, नीति-ज्ञान, पराक्रम और प्रभाव–इन सभी सद्गुर्णो ने हनुमानजी के भीतर घर कर रखा है।

समस्त जगत के लोगों के लिए – सागर: सागरोपमः- -सागर अपनी उपमा आप ही है।’ वह अनन्वय है, पर हनुमानजी के लिये वही वारीश सिन्धु एक गोखुर के समान सर्वथा नगण्य है। राक्षस समस्त देव-दानव-मानव के लिये भीमकाय, भीमकर्मा और भीमदर्शन हैं, परंतु श्रीहनुमानजी के लिये तो वे केवल मच्छर-से ही है। वे कहते हैं-

संरुद्धस्तैस्तु परितो विधमे राक्षसं बलम्।

कामं हन्तुं समर्थोऽस्मि सहस्त्राण्यपि रक्षसाम् ॥

सर्वेषामेव पर्याप्तो राक्षसानामहं युधि । (वा० रा० ५।५३। १३)

‘चारों ओर से राक्षसी सेना से घिरा हुआ मैं राक्षसों के बलका पूर्णतया मर्दन कर सकता हूँ तथा सहस्रों राक्षसों का स्वेच्छया वध कर सकता हूँ। मैं अकेला ही युद्ध में उन सभी राक्षसों के लिए पर्याप्त हूँ।

स्वयं रावण भी लंका-दाह के समय श्रीहनुमानजी की – विकराल मूर्ति देखकर वितर्क करता है—

वज्री महेन्द्रस्त्रिदशेश्वरो वा, साक्षाद् यमो वा वरुणोऽनिलो वा ।

‘यह देवराज वज्रधर महेन्द्र भले हो सकता है, साक्षात् , वरुण, पवन अथवा विश्व को भस्म करनके लिये संवर्ता , कुबेर या चन्द्र अथवा साक्षात् काल ही विश्वसंहारार्थ प्रकट हो सकता है, किंतु निश्चय ही यह वानर तो नहीं इस प्रकार श्रीरामचरित्र की अनुपम महामाला के हनुमानजी हैं। अग्नि-बीज ‘र’ को विस्तृतकर श्रीराम-विरोधी स-सेना और उनकी स्वर्णमयी लंकापुरी को भस्म करने और

श्रीराम-भक्तोंके दुःख-शोक, दीनता-दारिद्र्य, आधि-व्याधि, संताप तथा अज्ञानान्धकार को ज्ञानाग्नि द्वारा छिन्न-भिन्न कर देने के कारण श्रीहनुमान श्रीराम-नाम के ‘र’ बीज के प्रतीक हैं। अतः उनकी भक्ति, वीरता और अनन्यता का सार रामायण-महामाला के अद्वितीय, अनुपम रत्नके रूप में अङ्कित किया गया है-

गोष्पदीकृतवारीशं सशकीकृतराक्षसम्।

रामायणमहामालारत्नं वन्देऽनिलात्मजम् ॥

‘सिन्धु को गोखुर के समान लाँघ जाने वाले, राक्षसों को मच्छर-तुल्य मसल देने वाले, परमानन्दकन्द-श्रीमदयोध्याचन्द्र- कौसल्या-नन्दवर्धन- दशरथनन्दन- श्रीराम-सुधारस-मन्दाकिनी- मुक्तमाल के महारत्न श्रीहनुमानजीको सहस्रशः, लक्षशः, कोटिशः प्रणाम है।’

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *