सुप्रभातम्:गृहस्थ में रहकर भी बना जा सकता है संन्यासी

मोक्ष की व्यवस्था में एक गृहस्थ का क्या भविष्य है और क्या उसे मोक्ष की प्राप्ति के लिए संन्यासी हो जाना चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि यदि आप मन को साध लें तो फिर भले आप गृहस्थ हैं, वानप्रस्थी हैं या संन्यासी, आपको मोक्ष मिल जाएगा। 

Uttarakhand

हिमशिखर धर्म डेस्क

यदि आप गृहस्थ धर्म त्याग कर संन्यासी बन जाएं और जंगल में चले भी जाएं तो भी यदि आपने मन को नहीं साधा है तो यह जंगल में भी आपको गृहस्थ बनाए रखेगा। आपका मन आपके अहंकार का स्रोत है। वही तय करता है कि आप बाहर से भले कुछ हों, अंदर कैसे विचार रखेंगे! ऐसे में मनुष्य का प्रयत्न होना चाहिए कि सबसे पहले वह मन को साध ले।

कोई मनुष्य भले ही संसार का त्याग कर संन्यासी बन जाए, फिर भी यदि विचार नहीं बदला तो जंगल भी घर हो जाएगा, जबकि यदि विचार बदल गया तो घर में रहकर भी संन्यास की साधना की जा सकती है।

वास्तव में सच्चाई यह है कि वातावरण के परिवर्तन से क्षणिक सहयोग मिल सकता है लेकिन यदि आपके मन में चलने वाले विचार नहीं बदले, मन का अवरोध नहीं टूटा तो चाहे घर पर हों या जंगल में, कभी भी सच्ची साधना नहीं हो सकती है।

वास्तव में मोक्ष जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त होकर परमात्मा की शरण में जाने का नाम है। आपके साथ कोई प्रारब्ध नहीं जाता। सब कुछ यहीं रह जाता है। और जब इंसान के मन में मरते समय लोभ, मोह, वासना, दुःख या भय जैसे कोई भाव नहीं रहते हैं तो वो बंधनों से मुक्त स्वतः ही हो जाता है। इसके लिए जरूरी है कि वो सारे कर्म निर्लिप्त भाव से करे।

देवी पुराण में श्लोक कहा गया है…
न्यायागतधनः कुर्वन्वेदोक्तं विधिवत्क्रमात्।
गृहस्थोपि विमुच्येत श्राद्धकृत्सत्यवाक् शुचिः।। (देवी महापुराण)

अर्थ – जो न्याय मार्ग से धनोपार्जन करता है, शास्त्रोक्त कर्मों का विधिवत संपादन करता है, पितृ श्राद्ध आदि यज्ञ करता है, सर्वदा सत्य बोलता है तथा पवित्र रहता है, वह गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।

यानी जो गृहस्थ इमानदारी से धन कमाता है। बिना अधिकार के किसी का धन नहीं लेता। शास्त्रों में बताई गई विधियों से श्राद्ध कर्म करता हो, यानी माता-पिता और पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का भाव रखता हो, हमेशा सत्य बोलता हो। शरीर और मन से पवित्र रहता हो। ऐसा इंसान गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी मोक्ष का अधिकारी हो जाता है।

यह संसार दुखमय है, जहां देखो, दुख ही दुख है और जीवन दुखों से भरा पड़ा है। यूं तो संसार दुख रूप है, यह बात गीता और योगसूत्रों में भी कही गई है।  संन्यास केवल जंगल जाकर, कपड़े बदल लेना नहीं है। सनातन धर्म में सब रहते हुए आप संन्यासी की तरह जीवन जी सकते हैं। अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए आप अध्यात्म पथ पर आगे बढ़ सकते हैं, जैसे श्रीकृष्ण, श्रीराम, राजा जनक आदि ने किया। इसलिए यहां राजा जनक का उदाहरण बार-बार आता है। राजा जनक एक अवस्था है, जिसमें राजा होते हुए भी आप संन्यासी का जीवन जी सकते हैं। जिसको जहां रुचि लगे, वह उस मार्ग पर अपनी आध्यात्मिक यात्रा का आरंभ कर सकता है। दुख को याद करते रहने से दुख से ऊपर उठना सभी के लिए आसान नहीं है, लेकिन अपने स्वरूप में टिक जाने से दुख से ऊपर अपने आप उठा जा सकता है। जीवन मिला है उत्साह, उमंग, उल्लास, आनंद और नृत्य के लिए! उसको उसी रूप में जीकर जीवन को पूर्णता से भर देना है।

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