सुप्रभातम्: तीर्थ स्थलों को तप: स्थली ही रहने दें, भोगभूमि न बनायें

देवभूमि उत्तराखंड में चार धाम यात्रा का आगाज हो चुका है। थोड़ी ही देर में विश्व प्रसिद्ध गंगात्री और यमुनोत्री धाम के कपाट भक्तों के लिए खोल दिए जाएंगे। यह अच्छी बात है कि इस साल यात्रा को लेकर भक्तों में काफी उत्साह देखने को मिल रहा है। लेकिन सवाल यह है कि चार धाम की यात्रा करने वाले हर भक्त को पूरी सात्विकता और पवित्रता के साथ अपनी यात्रा करने का संकल्प लेना होगा। घूमने फिरने और पिकनिक मनाने के उद्देश्य से तीर्थ की यात्रा नहीं करनी चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तीर्थों में शुभ काम का कई गुना फल मिलता है। वहीं, तीर्थों  में किए गए गलत काम वज्र बन जाते हैं।

Uttarakhand

हिमशिखर धर्म डेस्क

चौरासी लाख योनियों में चक्कर काटने के बाद अंत में मनुष्य जन्म लेने का सौभाग्य मिलता है। मनुष्य जीवन के अनेक रसों, भोगों में लिप्त होने के बाद जब जीवन की निःस्सारता का बोध हो पाता है, तो यही क्षण ईश्वर के पथ पर आत्म कल्याण एवं परमानन्द के मार्ग पर दम होता है। यहीं से प्रारम्भ होती है उसकी यात्रा, जो सदव से ही ज्ञानियों के लिए भी सुखद दर्शन का विषय रहा है, कि किसी तरह हिमालय की यात्रा कर भवसागर को पार कर लिया जाए।

मनुष्य केवल जन्म लेकर श्मशान तक की यात्रा कर अपने आप को समाप्त कर लेता है। एक पर्दा गिर जाता है और दूसरा जन्म प्रारम्भ हो जाता है। इस पर्दे के पहले जो जीवन था, उस जीवन का कोई ज्ञान और चेतना नहीं रह जाती। यह सब ईश्वर की कृपा है कि उसने वर्तमान जीवन और पिछले जीवन के बीच में एक पर्दा डाल रखा है। परन्तु सवाल यह है कि आखिर यह यात्रा कब मंजिल पर पहुंचेंगी?

जब मन में विश्वास और उत्साह की ऊर्जा जागती है तो यात्रा की कठिनाइयां खुशी खुशी पूरी हो जाती है। फिर सनातनी परंपरा में तो तीथ यात्रा को जीवन के एक मात्र उद्देश्य भगवद तत्व एवं भगवद्प्रेम की प्राप्ति का हेतु माना गया है। कहा गया है कि तरित पापादिकं यस्मात् अर्थात जिससे मानव पापादि से मुक्त हो जाए, उसे तीर्थ कहते हैं। पद्म पुराण के अनुसार जो मोह और माया और रागादि जैसे सांसारिक बंधनों से मुक्ति चाहते हैं, उन्हें पवित्र जल वाले तीर्थों और जहां सदा देवी-देवताओं का वास रहता है, अवश्य जाना चाहिए।

तीर्थयात्रा पुण्यकर्म है। इसका महत्व यज्ञों से भी बढ़कर है। बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान करके भी मनुष्य उस फल को नहीं पाता, जो तीर्थयात्रा से आसानी से सुलभ हो जाता है। इतना ही नहीं मानव यात्रा के पुण्य से नरक से अपने पितरों और पितामहों का भी उद्धार कर देता है। शास्त्रों में वर्णित है जिसके हाथ, पैर और मन अपने वश में है त जो अहंकार से दूर रहता है, वहीं तीर्थ के पूर्ण फल का भागी होता है। ऐसा जितेन्द्रिय पुरुष एकाग्रतापूर्वक यदि तीर्थों में भ्रमण करता है तो वह पापो होने पर भी उस पाप से शुद्ध हो जाता है। फिर जो शुद्ध कर्म करने वाला है, उसके लिए तो कहना ही क्या है। अश्रद्धालु, पाप पीड़ित, नास्तिक, संशयात्मा और केवल युक्तिवादी-ये पांच प्रकार के मनुष्य तीर्थ फल के भागी नहीं होते हैं। जिनका अंतःकरण शुद्ध ऐसे मनुष्यों के लिए तीर्थ यथोक फल देने वाला है। जो काम, क्रोध और लोभ को जीतकर तीर्थ में प्रवेश करता है, उसे तीर्थयात्रा में कोई भी वस्तु अलभ्य नहीं रहती है।

गंगा आदि तीर्थो में मछलियां निवास करती हैं, पक्षी गण देवालयों में निवास करते हैं, किंतु उनके चित्त भक्तिभाव से रहित होने के कारण तीर्थ सेवन तथा श्रेष्ठ मन्दिर में रहने से भी वे कोई फल नहीं पाते। ठीक ऐसे ही काम, क्रोध, लोभ और मोह में जकड़ा हुआ मानव जय बिना भक्तिभाव से यात्रा करता है तो वह अपने साथ पुण्य के बजाए पाप की गठरी लेकर लौटता है। दुःखद बात यह है कि आज के दौर में कुछ ऐसे ही यात्रियों को संख्या में ईजाफा होने लगा है। लोग तीर्थ स्थलों को पिकनिक और मौज मस्ती का अड्डा बनाने लगे हैं। यह भी देखा जाता है कि कई यात्रा काल में शराब, मांस का सेवन कर आंतरिक और बाह्य शुचिता (पवित्रता) का ध्यान नहीं रखते हैं। फलस्वरूप इन तीर्थ स्थानों को कलुषित करने से मानवीय आचरण के दंड स्वरूप आने वाली आपदाओं से भी हम सबक लेने को तैयार नहीं होते हैं।

तथाकथित अल्पबुद्धि मनुष्य तीर्थों में गलत आचरण करने के बाद देवी-देवताओं को नारियल, केला, इलायची, धूप-दीप और दक्षिणा से रिझाने की कोशिश करते हैं। जैसे कि देवताओं को ये वस्तुएं कभी मिलती ही न होंगी और इसे पाकर वे फूले न समाएंगे। जागीरदारों की तरह प्रशंसा सुनकर चारणों को निहाल कर देने की देवताओं की यह आदत है। ऐसी मान्यता बनाने वाले देवताओं के स्तर एवं बड़प्पन के संबंध में सार्थक बेखबर होते और बच्चों जैसी नासमझी समझते हैं। जिन्हें मनमर्जी से फुसलाया और बरगलाया जा सकता है। आम आदमी इसी का शिकार है। तीर्थों में जाकर धूपबत्ती जलाने वालों में से अधिकांश संख्या ऐसे ही लोगों की है। यदि ऐसा होता तो तीर्थों में यात्रियों की भीड़ और पूजा-पाठ करने वालों की मंडली अब तक कब कि आसमान के तारे तोड़ लाने (परमात्मा को प्राप्त करने) में सफल हो गयी होती।

हमें समझना होगा कि जो वस्तु जितनी महत्वपूर्ण है, उसका मूल्य भी उतना ही अधिक होना चाहिए। प्रधानमंत्री की संसद का सदस्य बनने

लिए एमपी का चुनाव जीतना आवश्यक है। ठीक इसी प्रकार तीर्थो का पुण्य प्राप्त करने के लिए पहले हमें बाहर और अंदर से शुद्ध होना होगा। भगवान हमारी मर्जी से नहीं चलेंगे। हमें ही भगवान के नियमों का पालन करना होगा। ईंधन की हस्ती दो कौड़ी की होती है, पर वह अग्नि के साथ जुड़ जाता है, तो उसमें सारे गुण अग्नि के आ जाते हैं। आग ईंधन नहीं बनती, ईंधन को आग बनना पड़ता है। जैसे ना नदी में मिलकर वैसा ही पवित्र और महान जाता है। पर ऐसा नहीं होता कि नदी उलट कर नाले में मिले और वैसे ही गंदी बन जाए। हृदयकमल में शुद्ध भाव का संग्रह करके एकाग्रचित्त हो कर तीर्थों का सेवन किया जाए तो फिर कहना ही क्या है।

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