मौसम का गड़बड़झाला : मई को लगी ‘ठंड’, मौसम में बदलाव ने बढाई चिंता

हिमशिखर खबर ब्यूरो

Uttarakhand

गर्मी के मौसम में ठंड के अहसास से राहत तो जरुर मिल रही है लेकिन लोग हैरत में भी हैं। क्योंकि उत्तराखण्ड समेत उत्तर भारत के राज्यों में रहने वाली आज की पीढ़ी ने इस तरह का मौसम शायद ही देखा हो। लोगों के दिमाग में ये बात फिट है कि मई को महीने में भीषण गर्मी झेलनी पड़ेगी, लेकिन इस बार एसी बंद पड़े हैं, लोग चद्दर ओढ़ कर सो रहे हैं।

हर वर्ष मौसम और जलवायु नए-नए रंग दिखा रहे हैं। फरवरी अप्रत्याशित रूप से गर्म रही और मार्च में देश के कई राज्यों में गर्म हवाओं के थपेड़ों का अनुभव हुआ। लेकिन मई के आगमन के साथ वर्षा की ऐसी झड़ी लगी, जैसे मानसून में लगती है।

स्कूल के बच्चे इस मौसम को देखकर कंफ्यूज हो रहे हैं कि हमें गर्मी की छुट्टी मिली है या बरसात की? क्योंकि जब से समर विकेशन शुरू हुए हैं गर्मी का एहसास ही नहीं हुआ। खैर कन्फ्यूजन तो बड़ों को भी है क्योंकि मई के महीने इतनी बारिश पहले कभी देखने को नहीं मिली। ऐसा भी नहीं है कि गर्मी के मौसम में कभी बारिश नहीं हुई। मगर ऐसी बारिश कि गर्मी का मौसम ही पता ना चले शायद ही कभी पहले हुआ हो। मौसम विभाग ने इस रंग बदलते मौसम के पीछे कुछ हद तक पश्चिमी विक्षोभ को जिम्मेवार माना है। वहीं, इसको जलवायु परिवर्तन से भी जोड़कर देखा जा रहा है।

जलवायु परिवर्तन कोई अचानक होने वाली घटना नहीं है। पर्यावरण के सभी घटकों का अबाध गति से होता प्रदूषण, अत्याधिक कार्बन उत्सर्जन, और धरती की हरियाली के तेजी से सिमटने के कारण पृथ्वी पर पारिस्थितिक विघटन के उभरते दृश्यों में हैं जलवायु परिवर्तन की जड़ें। ग्रह के सभी मानव, हस्तक्षेप से सुरक्षित प्राकृतिक पारिस्थितिक परिवेश जीवों की विविधता से लकदक हैं। इन परिवेशों में पारस्परिकता और सामंजस्य के साथ पारिस्थितिक संतुलन स्थापित करते पेड़-पौधों, जंतुओं, और सूक्ष्म जीवों की जीवन-भरी अनुगूंज जीवन के एक सत्य से साक्षात्कार कराती है, जिसे पारिस्थितिक अखंडता कहते हैं।

पारिस्थितिक अखंडता सार्वभौमिक नैसर्गिक विकास का एक लक्ष्य है,  जिससे धरती पर जीवन और जीवन प्रक्रियाओं की अक्षुण्णता सुनिश्चित रहती है। इस ब्रह्मांड में विकास से कुछ भी अछूता रहे, ऐसा असंभव है। एक व्यक्ति, संपूर्ण जीवन और ब्रह्मांड का विकास अपनी गति, अपनी लय से चलता है। पारिस्थितिक चरमोत्कर्ष के माध्यम से विकास पारिस्थितिक संतुलन स्थापित करते हुए पारिस्थितिक अखंडता की स्थिति सृजित करता है। पारिस्थितिक अखंडता पृथ्वी के जैवमंडल का सार है। जैवमंडल के विघटन के साथ हम पृथ्वी पर सतत रूप से जीवन के फूलने-फलने की कल्पना नहीं कर सकते। निरंतर पारिस्थितिकीय विघटन के फलस्वरूप उपजा जलवायु परिवर्तन मानव जगत के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में खड़ा है।

भारतीय सभ्यता की जड़ें अरण्य संस्कृति में हैं। इसलिए अतीत में पारिस्थितिक अखंडता की समस्या का कोई प्रश्न ही नहीं था। अब हमारी सभ्यता उस सामाजिक-आर्थिक विकास की अंधी दौड़ में भागीदार है, जो प्राकृतिक संसाधनों के अकूत दोहन पर निर्भर करती है, जिससे पारिस्थितिक विघटन होता है और जो वायुमंडल, जलमंडल और भूमंडल के रासायनिक संविधान को बदल डालता है। यदि हम अपनी जीवन-शैली का विश्लेषण करें, तो निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि हमारी नैतिकता पतन के कगार पर है। यह एक विकट वैश्विक समस्या है, जो प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने वाले सामाजिक-आर्थिक विकास के साथ विकटतम होती जाती है।

अतीत में भी मौसमों ने बहुत कहर ढाए हैं, लेकिन हम जलवायु प्रणाली के शिकार कदाचित ही हुए होंगे। अतीत में हम और पृथ्वी के सभी जीव जीवन-अनुकूल जलवायु में फलते-फूलते और अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों का विकास करते रहे हैं। लेकिन अब हम बारंबार जलवायु प्रणाली का अनवरत शिकार होने को बाध्य हैं, क्योंकि जैवमंडल का ऊर्जा बजट प्रतिकूल हो गया है। पृथ्वी का बढ़ता तापमान जलवायु प्रणाली को उग्र कर रहा है, और संपूर्ण जीव जगत को अधिकाधिक तनाव ग्रस्त करने की ओर अग्रसर है।

पृथ्वी का औसतन ताप 1.2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है और आशंका है कि 2035 में यह बढ़कर 1.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाएगा। कितने भी प्रयास कर लिए जाएं, सृष्टि के ताप को 1.5 डिग्री सेल्सियस के ऊपर पहुंचने से कोई नहीं रोक सकता। मूल कारण है ग्रह की पारिस्थितिक अखंडता का क्रमिक रूप से टूटना, जिसके मूल में है पर्यावरण नैतिकता का घोर संकट। विस्फोटक रूप से बढ़ती मोटरकारों की संख्या, सड़कों का जाल, इंफ्रास्ट्रक्चर, औद्योगिकीकरण, नगरीकरण, पर्यटन, आर्थिक वृद्धि, जीडीपी आदि विश्व की प्राथमिकताएं हैं, जो पर्यावरण की बलि लेकर पनपती हैं। सत्य यह भी है कि मानव समझता है कि पर्यावरण उसके जीवन की प्राथमिक आवश्यकता है, पर उसकी जीवन प्रणाली का यह अंतिम मुद्दा है। यही पर्यावरण नैतिकता का संकट है, और पारिस्थितिक अखंडता के क्रमशः टूटते जाने का मूल कारण भी।

नैतिकता ही मनुष्य की जीवन कलाओं की आत्मा है, जिसके बल पर सभ्यताओं का उदय हुआ है और सभ्यताएं संस्कृतियों से अलंकृत हुई हैं। हमारे काल में पर्यावरण संकट के साथ नैतिकता का एक और आयाम जुड़ गया—पर्यावरण नैतिकता। हमारे पर्यावरण में जो भी कुछ है, वह केवल मानव प्रजाति तक सीमित नहीं है। पर्यावरण सभी जीवों (वनस्पतियों, जंतुओं और सूक्ष्म जीवों) तथा उन भौतिक तत्वों के तालमेल से बना है, जिनसे सभी जीव जीवन पाते हैं, और अपने स्वाभाविक गुणों का विकास करते हैं। मानव जाति के समग्र अस्तित्व और कल्याण के लिए पर्यावरण और उसमें व्याप्त सभी जीवों का अस्तित्व और कल्याण भी महत्वपूर्ण और अपरिहार्य है। यही पर्यावरणीय नैतिकता है।

पर्यावरण नैतिकता पर्यावरण दर्शन का एक पहलू है, जो हमें पर्यावरण की महत्ता समझाने, मानव का व्यवहार सभी जीवों के प्रति हितकारी बनाने, और पर्यावरण संरक्षण के प्रति गहरा बोध विकसित करने के लिए अनिवार्य है। पर्यावरण नैतिकता पारिस्थितिक अखंडता का मार्ग प्रशस्त करती है।

पारिस्थितिक आपदा और उससे पोषित जलवायु परिवर्तन के कालचक्र में फंसी दुनिया पर्यावरण नैतिकता की अलख जगाकर अपने लिए आशाओं से भरे सुनहरे भविष्य के पुनर्निर्माण की नींव रख सकती है।

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