वैज्ञानिकता का पुट समाए रहती हैं हमारी पूजा पद्धति

हिमशिखर खबर ब्यूरो

Uttarakhand

वैज्ञानिक ना सिर्फ प्रयोगशालाओं, वेधशालाओं में ही होते हैं बल्कि हमारे परिवेश में काम करने वाले तमाम सिद्धहस्त हाथ,हमारे परंपराओं की दीर्घ जीवंतता, सभ्यताओं की विभिन्न कालखंडो में सम्हितता रहना भी वैज्ञानिक हैं. हर वह चीज जिसको एक नियमबद्ध व चरणबद्ध सुव्यस्थिति, सुसंगठित तरीके से किया जाता है, विज्ञान हैं. और इसको तथ्यों के साथ एक अंतिम मुकाम तक पहुंचाकर उपयोग के लायक बनाना वैज्ञानिक सोच हैं, एप्रोच हैं.

सभ्यताएं, संस्कृतियां, रीति रिवाज यहां तक की इतिहास व विकास भी तभी तक स्थायी (सस्टेनेबल) रहता है जब तलक उसमें विज्ञान या वैज्ञानिक सोच अवशेष रहती हैं. इसीलिए वे सब सार्थक लगते है क्योंकि उनमें कही ना कही एक तार्किक सोच सम्मलित रहती हैं.

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं. अपने जीवन यापन, भरण पोषण और विश्वास को पोषित कर वह निरंतर अपना जीवन स्तर सुधारता रहता हैं. जन्म से अपनी अंतिम यात्रा तक वह अपनी संस्कृति,पूजा पद्धति,विश्वास की जड़ों से जुड़ा रहता हैं और जुड़ा रहना भी चाहता हैं.

हमारे इन्ही पद्धतियों में एक जबरदस्त शक्ति रहती हैं जो सबको आकर्षित करती हैं. पूजा भी इन्ही आकर्षण का एक प्रमुख केंद्र या धुरी हैं. पूजा में हम वैज्ञानिक पुट साफ देख सकते हैं. बात उत्तराखंड के सीमांत जिले पिथोरागढ़ के बेरीनाग तहसील के गांव खेती की है. जहां लेखक खुद इन्ही अनुभवों से गुजरा,दो चार हुवा और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जांचने परखने की कोशिश की. यूं तो पूरा उत्तराखंड ही देवभूमि हैं. फिर भी आप हिमालय के जितने नजदीक पहुंचते हैं लोगों की उपासना, विश्वास, पूजा पद्धति में प्रकृति का प्रोजेक्शन, इमेज साफ देखी जा सकती हैं. विज्ञान की दृष्टि में यह इकोलॉजी/पारिस्थितिकी हैं.

कुमाऊं के आराध्य देव गोलू देवता हैं. ना सिर्फ बड़े मंदिरो में, धामों में बल्कि घरों में भी लोग अपने आराध्य ईस्ट देव को पूजते हैं.पूजने के तरीके भले ही अलग अलग हो लेकिन सब में खास बात ये रहती हैं की पूजा में प्रयोग में लायी जाने वाली सामग्री में तारतम्यता दिखती हैं. एक रात नवरात्र जागरण में सायं काल में धूलि जलाते हैं. आम, तुलसी, पैया, मेहल अनार कम से कम पांच पौधों/वृक्षों पंचवृक्ष को मूल मंदिर की अखंड दीप ज्योति से जलाकर धूलि में अग्नि प्रज्वलित करते हैं. गुड़, चंदन, घी, तिल, जौ, कुमकुम, गौमूत्र, चावल, पुष्प का लेपन कर पूजा की जाती हैं. ये सब वृक्ष,पौधे, चीजें मानव जीवन के लिए सबसे अधिक प्राणवायु देने वाले,इनके सम्मिश्रण से आस पास के वातावरण में विषाणु, कीटाणु, जीवाणु, रेडिकल्स के न्यूनतम व निष्क्रिय/उदासीन हो जाने के वैज्ञानिक प्रमाण हैं. दूब, दुर्बा घास जो जमीन में सबसे अधिक फैलती है प्रायः सभी प्रकार की पूजा में शामिल रहती हैं। दूब घास के एंटी इन्फ्लेमेटरी और एंटी सैप्टिक गुणों की वजह से ही ये हमारे आंगन से लेकर मंदिर की थाली तक पहुंची हैं. सायंकालीन धूलि का वैज्ञानिक महत्व होने के साथ साथ आध्यात्मिक व सामाजिक महत्त्व भी हैं. अपने घर में शक्ति के प्रवेश से पहले हम अपना अज्ञान, अंधकार, आलस,अभिमान,ईर्ष्या,राग,द्वेष,जलन,भेदभाव सबको जलाकर स्वाहा कर चुके होते हैं। रात में गाजे बाजे के साथ इष्ट देव गोलू देवता की महिमा को बताकर गौरवशाली अतीत की जोशपूर्ण याद दिलाते हैं. देवशक्ति अपनी चेतना के लिए किसी शरीर को ढूंढती हैं.वरन करती हैं. और देखते ही देखते किसी शरीर में शक्ति अवतरित हों जाती हैं। जिसे स्थानीय भाषा में डांगर, देव नृत्य करने वाला कहा जाता हैं. विज्ञान की दृष्टि में यह सुपर कंडक्टिविटी का एक फॉर्मेट हैं। क्योंकि जिस चीज में गति होती हैं उसमे विद्युत क्षेत्र के साथ साथ चुंबकत्व यानी चुम्बकीय क्षेत्र भी उत्पन्न होता हैं का सिद्धांत प्रतिपादित होते देखा जा सकता हैं. जीवित मानव शरीर में रक्त गतिमान रहता हैं . अतः चुम्बकीय व विद्युतीय प्रभाव अल्प मात्रा में प्रभाव में रहते हैं. यही क्षेत्र आकर्षण के प्रमुख केंद्र भी बने रहते हैं. गौर करे तो हवन,होम, यज्ञ, धूलि, दीप प्रज्योति की सार्थकता विज्ञान की उपस्थिति व कसोटी से ही समझ में आती हैं। आपको इन सब चीज़ों के अप्रासंगिक या बेकार बताने या कहने के लिए भी वैज्ञानिक आधार या तथ्य चाहिए. जो इस बात की पुष्टि नहीं कर पाते हैं. इसीलिए चाहे मंदिर में फूल ,कांसे की घंटी हो जिसकी ध्वनि आवर्ती सबसे ज्यादा होती है या दूसरे धातुओं की हमारी पूजा पद्धति में उपस्थिति सबके सब एक वैज्ञानिक समझ/आधार लिए रहते हैं. श्रव्य,पराश्रव्य,अल्ट्रासाउंड ,कास्मिक किरणे गाहे बेगाहे हमें कम अथवा अधिक प्रभावित करती है.मजेदार बात यह भी है पूजा के नाम पर किसी भी प्रकार का अंधविश्वास, मिथक , बलि नही होती हैं। जिओ और जीने दो का सार्वभौमिक दर्शन भी इस प्रकार की पूजा जिसका एक वैज्ञानिक आधार होता हैं , में रहता हैं.समापन सबको सामूहिक भोजन कराकर होती हैं।जो पुनः सामाजिकता का अनूठा उदाहरण है. यह इस बात का भी द्योतक है की विज्ञान का भी अंतिम काम मानव कल्याण ही हैं, की भी पुष्टि करता हैं. हमारी पूजा, उपासना, विश्वास हमें प्राकृतिक विज्ञान से औषधीय विज्ञान तक की यात्रा कराती हैं. मैं से निकलकर हम तक पहुंचने की यह अद्भुत वैज्ञानिक यात्रा भी हैं पूजा.

प्रेम प्रकाश उपाध्याय “नेचुरल” उत्तराखंड
(लेखक की वैज्ञानिक यायावरी चीजों को समझने में एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण देती हैं)

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