धर्म का साक्षात स्वरूप – वृषभ

स्वामी कमलानंद (डा कमल टावरी) 

Uttarakhand

पूर्व केंद्रीय सचिव, भारत सरकार


वृषो हि भगवान धर्मो….

धर्म का आधि भौतिक स्वरूप “वृषभ” है। पौराणिक आख्यानों में यत्र तत्र यही कथाएं मिलती हैं कि जब जब पृथ्वी पर अधर्म की वृद्धि हुई तब तब उससे मुक्ति पाने के लिए पृथ्वी देवी ने “गौ” का स्वरूप धारण कर देवताओं से तथा परब्रह्म परमात्मा से प्रार्थना की।

इस गौरूपी पृथ्वी पर बढ़ते हुए अधर्म को नष्ट करके धर्म की स्थापना करने के लिए ही युग युग में भगवान स्वयं अवतरित होते हैं तथा संतों व महापुरुषों के आचरण से पृथ्वी पर धर्म की स्थापना करते हैं। यह धर्म गौ का वत्स है। जिस प्रकार गौ दुग्ध का पान करके वत्स (बछड़ा) विकसित और बलवान होता है। ठीक उसी प्रकार पृथ्वी रूपी गौ के सत्व का सेवन करने से धर्म भी वृद्धि को प्राप्त होता है। वृषभरूपी धर्म के चार चरण हैं – सत्य, तप, दया और दान। इन चतुष्पादों पर ही धर्म टिका है। वृषभ रूपी धर्म के प्रथम पाद सत्य से पृथ्वी पर सात्विक अन्नादि का उत्पादन (स्वधर्म रूपी सत्य व्यवहार) होता है। वृषभ का द्वितीय पाद है तप अर्थात परिश्रम। स्वधर्म कर्म के अनुरूप कर्मेन्द्रिय शक्ति का नियोजन तप है, जो धर्म की प्रतिष्ठा है। दया, धर्म का तृतीय पाद है। किसी भी प्राणी को कष्ट न देकर अन्नादि पदार्थों का उपार्जन करना चाहिए। यही धर्म रूपी वृषभ का तृतीय पाद है। ऋत और सत्यपूर्वक परिश्रम अर्थात तप से अहिंसापूर्वक प्राप्त अन्नादि का स्वयं के लिए ही उपभोग न करके परहितार्थ वितरण करना ही धर्म रूपी वृषभ का दान संज्ञक चतुर्थ पाद है। दान अर्थात देश-काल-पात्र को आवश्यकतानुसार पदार्थों का वितरण कर देना। इस प्रकार सत्य, तप, दया और दान। इन चारों से ही धर्म की प्रतिष्ठा है। बैलों द्वारा खेती करके अन्ना उपजाने की जो ऋषि परंपरा है वह वास्तव में परम धर्म का स्वरूप ही है। वृषभ साक्षात प्रजापति है। धर्म प्राण भारतवर्ष में धर्म का निवास वृषभ में है। अतः वृषभ की रक्षा में ही धर्म की रक्षा निहित है।

पिता के समान प्रजा को उत्पन्न करके उनके लिए दुग्ध, घृत एवं अन्नादि का उपार्जन कर के संपूर्ण प्रजाओं का यज्ञीहविष्य से देवताओं का एवं अपने पवित्र शरीर से तीनों लोकों का आप्यायन करने वाला होने से वृषभ को पिता कहा गया है।

गोमाता वृषभः पिता में।

दिवं शर्म जगती प्रतिष्ठा ।। (महा0 अनुशासन पर्व)

महाभारत के अनुशासन पर्व में भीष्म जी ने वृषभ को स्वर्ग की प्रतिष्ठा बताया है। धर्मरूपी वृषभ की सेवा (पालन) करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। गोमाता विश्व की प्रतिष्ठा है। विश्व की धात्री है। उसके सेवन से इस लोक और परलोक में भी सुख- समृद्धि प्राप्त होती है। संस्कृत में “गो” गायरूप से पृथ्वी का आधिदैविक स्वरूप है और वृषभरूप से भी धर्म का आधिदैविक स्वरूप है। अर्थात गाय तथा बैल दोनों के लिए “गौ” शब्द का प्रयोग किया जाता है।

भगवान शंकर का वाहन भी वृषभ है। साथ ही शंकर जी के ध्वज पर भी वृषभ ही विराजमान है। तात्विक दृष्टि से इसका महत्वपूर्ण अर्थ है। भगवान सदाशिव साक्षात परब्रह्म परमात्मा हैं। वे ही सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और लय के कर्ता है। वे परम कल्याण स्वरूप और शुभफलों के प्रदाता है। वे वृषभ पर प्रतिष्ठित है। अर्थात समस्त कल्याणों की अवधि, धर्म में ही प्रतिष्ठित है। शिव का वाहक अर्थात शुभ, सत्य, मंगल को लाने वाला, वहन करने वाला धर्म ही है। वृषभध्वज भगवान शंकर धर्म की ध्वजा को धारण करते हैं। तात्पर्य यह है कि धर्म के वाहक प्रचारक शिव हैं और शिव के वाहक धर्म हैं। धर्म और ईश्वर ओतप्रोत हैं। धर्म के बिना शिव नहीं और शिव के बिना धर्म नहीं।

शिवालयों में शिवलिंग की ओर मुख करके नंदी की प्रतिमा विराजमान रहती है। शिव की ओर की भी ब उन्मुख होकर बैठे धर्म रूपी वृषभ को नमस्कार करके, धर्म को अपने अंदर धारण करके ही शिव के दर्शन रही है व किए जाते हैं। यही रहस्य है।

श्रीमद्भागवत में भी महाराजा परीक्षित के आख्यान में धर्म का सुंदर स्वरूप वर्णन किया गया है। प्रजा की रक्षा और कुशलता के लिए भ्रमण कर रहे राजा परीक्षित की दृष्टि एक काले कूद राजवेशधारी शुद्र पर पड़ती है। जो एक गाय एवं एक पैर वाले बैल को निर्दय पूर्वक पीट रहा था। ऐसा क्रूर दृश्य देखकर राजा का मन करुणा से भर गया। उन्होंने क्रोधवश उस दुष्ट को दंड देने के विचार से धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा ली और उस दुष्ट को इस महान कुकर्म को करने से रोका। परीक्षित ने उस बैल व गाय से पूछा कि तुम कौन हो ? तुम्हारी यह दुर्दशा किसने की है? किसने तुम्हारे तीन पैर तोड़ दिए? मुझे शीघ्र बताइए। जिसने आपको यह कष्ट दिया है। उसे अवश्य ही मैं दंडित करूंगा।

राजा के ऐसा कहने पर भी बैल चुप ही रहा। जब राजा ने दोबारा पूछा तो उसने इतना ही कहा कि राजन कोई किसी को दुःख नहीं देता। यहां तो प्राणी स्वयं अपने ही कर्मों का फल भोगा करते हैं। उसका दोषी कोई अन्य नहीं है।

बैल और गाय के इस प्रत्युत्तर को सुनकर बुद्धिमान परीक्षित बड़े ही हर्षित हुए और समझ गए कि इस प्रकार की धर्म युक्त बातें करने वाला यह बैल चाहि साक्षात धर्म ही है। सामान्य प्राणी तो दुःख देने वालों से द्रोह करते हैं, विद्वेष करते हैं और उनका अहित चाहते है। धर्मशील सज्जन स्वंय को कष्ट देने वाले पर भी कल्याण की ही दृष्टि रखकर सुख दुःख को कर्म का फल स्वीकार करते हैं – सुखस्य दुखस्य न कोऽपि दाता, परो ददातिति कुबुद्धि रेषा।

अतः राजा ने धर्म स्वरूप बैल तथा गौरूपी पृथ्वी को प्रणाम किया और उस राजवेशधारी कलियुग का निग्रह किया। जब-जब अधर्म की वृद्धि होती है, धर्म के सत्य, तप और दया रूपी तीनों चरण क्षीण हो जाते हैं। क्योंकि दानं केवल कलियुगे ।

केवल दान रूपी चतुर्थ चरण पर ही धर्म अवस्थित रहता है। लेकिन इस अवस्था भी कलियुग के प्रभाव से प्रतिग्रह, प्रत्त्युपकार, यश, प्रसिद्धि, लोकैषणा के दोषों से दान भी दूषित होने लगता है। धर्म लड़खड़ाता रहता है। धर्म रूपी वत्स के दुःख से दुखी पृथ्वीरूपी गौं ओर की भी बड़ी दुर्दशा होती है।

आज संपूर्ण विश्व में गोवंश की जो दुर्दशा हो रही है वह कलि के आगमन का ही सूचक है। धर्म प्राण, गौभक्त समाज को धर्म की रक्षा के लिए परीक्षित बनकर के कलियुग का निग्रह करना चाहिए और गोवंश की रक्षा करनी चाहिए। गाय बचेगी तो धर्म बचेगा। गाय बचेगी। तो देश बचेगा। गाय बचेगी तो संस्कृति और परंपराएं, आस्थाएं, सत्वगुण बचेगा।

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