स्वर्गारोहण पर्व: युधिष्ठिर को नरक का दर्शन, इन्द्र और धर्म का युधिष्ठिर को सान्त्वना देना तथा युधिष्ठिर का शरीर त्यागकर दिव्यलोक को जाना,

हिमशिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand

जनमेजय ने पूछा–‘मुने! मेरे प्रपितामह पाण्डव जब स्वर्ग में पहुँच गये तो उन्हें और धृतराष्ट्र के पुत्रों को किस-किस स्थान की प्राप्ति हुई ?’

वैशम्पायनजी ने कहा–‘राजन्! तुम्हारे प्रपितामह धर्मराज युधिष्ठिर ने स्वर्ग में जाने के पश्चात् देखा कि दुर्योधन स्वर्गीय शोभा से सम्पन्न हो देवता और साध्यगणों के साथ एक दिव्य सिंहासन पर बैठकर सूर्य के समान देदीप्यमान हो रहा है। उसका ऐसा ऐश्वर्य देखकर युधिष्ठिर सहसा पीछे को लौट पड़े और उच्च स्वर से कहने लगे–‘देवताओ! जिसके कारण हमने अपने समस्त सुहृदों और बन्धुओं का युद्ध में संहार कर डाला तथा जिसकी प्रेरणा से निरन्तर धर्म का आचरण करने वाली हमारी पत्नी पांचाल राजकुमारी द्रौपदी को भरी सभा में गुरुजनों के सामने घसीटा गया, ऐसे दुर्योधन के साथ मैं इस स्वर्गलोक में नहीं रहना चाहता।’

यह सुनकर नारदजी हँस पड़े और बोले–‘महाबाहो ! स्वर्ग में आने पर मृत्युलोक का वैर-विरोध नहीं रहता, अतः तुम्हें महाराज दुर्योधन के विषय में ऐसी बात कदापि नहीं कहनी चाहिये। स्वर्गलोक में जितने श्रेष्ठ राजा रहते हैं, वे और समस्त देवता भी यहाँ राजा दुर्योधन का विशेष सम्मान करते हैं।

यह सत्य है कि इन्होंने सदा ही तुम लोगों को कष्ट पहुँचाया है, तथापि युद्ध में अपने शरीर की आहुति देकर ये वीरलोक को प्राप्त हुए हैं। अतः द्रौपदी को इनके द्वारा जो क्लेश प्राप्त हुआ है, उसे भूल जाओ और इनके साथ न्याय पूर्वक मिलो। यह स्वर्गलोक हैं, यहाँ आने पर पहले का वैर नहीं रहता।’

नारदजी के ऐसा कहने पर राजा युधिष्ठिर ने पूछा–‘ब्रह्मन् ! जो महान् व्रतधारी, महात्मा, सत्यप्रतिज्ञ, विश्वविख्यात वीर और सत्यवादी थे, उन मेरे भाइयों को कौन-से लोक प्राप्त हुए हैं ? उन्हें मैं देखना चाहता हूँ। सत्य पर दृढ़ रहने वाले कुन्तीपुत्र महात्मा कर्ण को, धृष्टद्युम्न को, सात्यकि को तथा धृष्टद्युम्न के पुत्रों को भी मुझे देखने की इच्छा है। इनके सिवा जो जो राजा क्षत्रियधर्म के अनुसार युद्ध में शस्त्रों द्वारा मारे गये हैं, वे इस समय कहाँ हैं ?
उनका तो यहाँ दर्शन ही नहीं हो रहा है। राजा विराट, द्रुपद, धृष्टकेतु, पांचाल राजकुमार शिखण्डी, द्रौपदी के पाँचों पुत्र तथा दुर्द्धर्ष वीर अभिमन्यु से भी मैं मिलना चाहता हूँ।’
अब युधिष्ठिर ने देवताओं से कहा–‘देवगण! यहाँ युधामन्यु और उत्तमौजा–ये दोनों भाई क्यों नहीं दिखायी देते ? जिन-जिन महारथी राजाओं और राजकुमारों ने समराग्नि में अपने शरीरों की आहुति दी है, जो मेरे लिये युद्ध में मारे गये हैं, वे सिंह के समान पराक्रमी वीर कहाँ हैं ? क्या उन महापुरुषों ने भी इस लोक पर अधिकार प्राप्त किया है ?
यदि वे सब महारथी भी इस लोक में आये हों, तब तो मैं उन महात्माओं के साथ यहीं रहूँगा; परन्तु यदि उनको यह शुभ और अक्षय लोक नहीं प्राप्त हुआ है, तो मैं अपने उन भाई-बन्धुओं के बिना यहाँ सुख से नहीं रह सकता। युद्ध के बाद जब मैं अपने मृत सम्बन्धियों को जलांजलि दे रहा था, उस समय मेरी माता कुन्ती ने कहा था–‘बेटा! कर्ण को भी जलांजलि देना।’
माता की यह बात सुनकर जब मुझे मालूम हुआ कि महात्मा कर्ण मेरे ही भाई थे, तबसे मुझे उनके लिये बड़ा दुःख होता है। यह सोचकर तो मैं और भी पश्चात्ताप करता रहता हूँ कि महामना कर्ण के दोनों चरणों को माता कुन्ती के चरणों के समान देखकर भी मैं क्यों नहीं उनका अनुगामी हो गया।
यदि कर्ण हमारे साथ होते तो हमें इन्द्र भी युद्ध में परास्त नहीं कर सकते थे। वे सूर्यनन्दन कर्ण इस समय जहाँ-कहीं भी हों, मैं उनका दर्शन करना चाहता हूँ। अपने प्राणों से भी प्रिय भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव तथा धर्मपरायणा द्रौपदी को भी देखना चाहता हूँ।
यहाँ रहने की मेरी तनिक भी इच्छा नहीं है। यह मैं आप लोगों से सच्ची बात बता रहा हूँ। भला, भाइयों से अलग रहकर मुझे स्वर्ग से क्या लेना है। जहाँ मेरे भाई हैं, वहीं मेरे लिये स्वर्ग है। मैं इस लोक को स्वर्ग नहीं मानता।’
देवताओं ने कहा–‘राजन् ! यदि उन्हीं लोगों में तुम्हारी श्रद्धा है तो चलो, विलम्ब न करो। हम लोग देवराज की आज्ञा से हर तरह से तुम्हारा प्रिय करना चाहते हैं।’
यों कहकर देवताओं ने देवदूत को आज्ञा दी–‘तुम युधिष्ठिर को इनके सुहृदों का दर्शन कराओ।’ तत्पश्चात् राजा युधिष्ठिर और देवदूत दोनों साथ-साथ उस स्थान की ओर चले, जहाँ पुरुषश्रेष्ठ भीमसेन आदि थे।
आगे-आगे देवदूत जा रहा था और पीछे-पीछे राजा युधिष्ठिर। दोनों एक ऐसे मार्ग पर पहुँचे, जो बहुत ही खराब था; उस पर चलना कठिन हो रहा था। पापाचारी पुरुष ही उस रास्ते से आते-जाते थे। वहाँ सब ओर घोर अन्धकार छा रहा था। चारों ओर से बदबू आ रही थी, इधर-उधर सड़े हुए मुर्दे दिखायी देते थे। जहाँ-तहाँ बाल और हड्डियाँ पड़ी हुई थीं। लोहे की चोंचवाले कौए और गीध मँडरा रहे थे।
सुई के समान चुभते हुए मुखों वाले पर्वताकार प्रेत सब ओर घूम रहे थे। उन प्रेतों में से किसी के शरीर से मेद और रुधिर बहते थे; किसी के बाहु, ऊरु, पेट और हाथ-पैर कट गये थे। धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर बहुत चिन्तित होकर उसी मार्ग के बीच से होकर निकलें।
उन्होंने देखा–वहाँ खौलते हुए पानी से भरी हुई एक नदी बह रही है, जिसको पार जाना बहुत ही कठिन है। दूसरी ओर तीखे छुरों के से पत्तों से परिपूर्ण असिपत्र नामक वन है। कहीं गरम-गरम बालू बिछी है तो कहीं तपाये हुए लोहे की बड़ी-बड़ी चट्टानें रखी गयी हैं। सब ओर लोहे के कलशों में तेल खौलाया जा रहा है।
यत्र-तत्र पैने काँटों से भरे हुए सेमल के वृक्ष हैं, जिनको हाथ से छूना भी कठिन है। इन सबके अलावा वहाँ पापियों को जो बड़ी-बड़ी यातनाएँ दी जा रही थीं, उनपर भी युधिष्ठिर की दृष्टि पड़ी। वहाँ की दुर्गन्ध से तंग आकर उन्होंने देवदूत से पूछा–‘भाई ! ऐसे मार्ग पर हम लोगों को अभी कितनी दूर और चलना है ? तथा मेरे भ्राता कहाँ हैं ?’
धर्मराज की बात सुनकर देवतदूत लौट पड़ा और बोला–‘बस, यहीं तक आपको आना था। महाराज! देवताओं ने मुझसे कहा है कि ‘जब युधिष्ठिर थक जायँ तो उन्हें वापस लौटा लाना।’ अतः अब मैं आपको लौटा ले चलता हूँ। यदि आप थक गये हों तो मेरे साथ आइये।’
युधिष्ठिर उस बदबू से विकल हो रहे थे, इसलिये घबराकर उन्होंने लौटने का ही निश्चय किया। वे ज्यों ही उस स्थान से लौटने लगे, त्यों ही उनके कानों में चारों ओर से दुःखी जीवों की यह दयनीय पुकार सुनायी पड़ी–‘धर्मनन्दन ! आप हम लोगों पर कृपा करके थोड़ी देर यहाँ ठहर जाइये; आपके आते ही परम पवित्र और सुगन्धित हवा चलने लगी है, इससे हमें बड़ा सुख मिला है।
कुन्तीनन्दन ! आज बहुत दिनों के बाद आपका दर्शन पाकर हम लोगों को बड़ा आनन्द मिल रहा है, अतः क्षण भर और ठहर जाइये। आपके रहने से यहाँ की यातना हमें कष्ट नहीं पहुँचाती।’
इस प्रकार वहाँ कष्ट पाने वाले दुःखी जीवों के भाँति-भाँति के दीन वचन सुनकर युधिष्ठिर को बड़ी दया आयी। उनके मुँह से सहसा निकल पड़ा–‘ओह! इन बेचारों को बड़ा कष्ट है।’ यों कहकर वहीं ठहर गये।
फिर पूर्ववत् दुःखी जीवों का आर्तनाद सुनायी देने लगा; किन्तु वे पहचान न सके कि ये किनके वचन हैं। जब किसी तरह उनका परिचय समझ में नहीं आया तो युधिष्ठिर ने उन दुःखी जीवों को सम्बोधित करके पूछा–‘आप लोग कौन हैं और यहाँ किसलिये रहते हैं ?’
उनके इस प्रकार पूछने पर चारों ओर से आवाज आने लगी–‘मैं कर्ण हूँ, मैं भीमसेन हूँ, मैं अर्जुन हूँ, मैं नकुल हूँ, मैं सहदेव हूँ, मैं धृष्टद्युम्न हूँ, मैं द्रौपदी हूँ और हम लोग द्रौपदी के पुत्र हैं।’ इस प्रकार अपने-अपने नाम बताकर सब लोग विलाप करने लगे।
यह सुनकर राजा युधिष्ठिर मन में विचार करने लगे–‘दैवका यह कैसा विधान है ? मेरे महात्मा भाई भीमसेन आदि, कर्ण, द्रौपदी के पुत्र तथा स्वयं द्रौपदी ने भी ऐसा कौन-सा पाप किया था, जिसके कारण इन्हें इस दुर्गन्धपूर्ण भयानक स्थान में रहना पड़ रहा है।
ये सभी पुण्यात्मा थे। जहाँ तक मैं जानता हूँ, इन्होंने कोई पाप नहीं किया था; फिर किस कर्म का यह फल है जो ये नरक में पड़े हुए हैं ? मेरे भाई सम्पूर्ण धर्म के ज्ञाता, शूरवीर, सत्यवादी तथा शास्त्र के अनुकूल चलने वाले थे।
इन्होंने क्षत्रिय-धर्म में तत्पर रहकर बड़े-बड़े यज्ञ किये और बहुत-सी दक्षिणाएँ दी हैं। तथापि इनकी ऐसी दुर्गति क्यों हुई ? मैं सोता हूँ या जागता ? मुझे चेत है या नहीं ? कहीं यह मेरे चित्त का विकार अथवा भ्रम तो नहीं है ?’
इस तरह नाना प्रकार से सोच-विचार करते हुए राजा युधिष्ठिर ने देवदूत से कहा–‘तुम जिनके दूत हो, उनके पास लौट जाओ; मैं वहाँ नहीं चलूँगा। अपने मालिकों से जाकर कहना–‘युधिष्ठिर वहीं रहेंगे।’ मेरे रहने से यहाँ मेरे भाई-बन्धुओं को सुख मिलता है।’
युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर देवदूत देवराज इन्द्र के पास चला गया और युधिष्ठिर ने जो कुछ कहा या करना चाहते थे, वह सब उसने देवराज से निवेदन किया।
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वैशम्पायनजी कहते हैं–‘जनमेजय ! धर्मराज युधिष्ठिर को उस स्थान पर खड़े हुए एक मुहूर्त भी नहीं बीतने पाया था कि इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता वहाँ आ पहुँचे। साक्षात् धर्म भी शरीर धारण करके राजा से मिलने के लिये आये। उन तेजस्वी देवताओं के आते ही वहाँ का सारा अन्धकार दूर हो गया। पापियों की यातना का वह दृश्य कहीं नहीं दिखायी देता था। फिर शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु चलने लगी।
इन्द्र सहित मरुद्गण, वसु, अश्विनीकुमार, साध्य, रुद्र, आदित्य तथा अन्यान्य स्वर्गवासी देवता सिद्धों और महर्षियों के साथ महातेजस्वी युधिष्ठिर के पास एकत्रित हुए। उस समय इन्द्र ने युधिष्ठिर को सान्त्वना देते हुए कहा–‘महाबाहो ! अबतक जो हुआ सो हुआ, अब इससे अधिक कष्ट उठाने की आवश्यकता नहीं है। आओ, हमारे साथ चलो। तुम्हें बहुत बड़ी सिद्धि मिली है, साथ ही अक्षय लोकों की प्राप्ति भी हुई है।
तुम्हें जो नरक देखना पड़ा है, इसके लिये क्रोध न करना। मनुष्य अपने जीवन में शुभ और अशुभ–दो प्रकार के कर्मों की राशि संचित करता है। जो पहले शुभ कर्मों का फल भोगता है, उसे पीछे से नरक भोगना पड़ता है और जो पहले ही नरक का कष्ट भोग लेता है, वह पीछे स्वर्गीय सुख का अनुभव करता है।
जिसके पाप कर्म अधिक और पुण्य थोड़े होते हैं, वह पहले स्वर्ग का सुख भोगता है, तथा जो पुण्य अधिक और पाप कम किये रहता है, वह पहले नरक भोगकर पीछे स्वर्ग में आनन्द भोगता है। इसी नियम के अनुसार तुम्हारी भलाई सोचकर पहले मैंने तुम्हें नरक का दर्शन कराया है।
तुमने अश्वत्थामा के मरने की बात कहकर छल से द्रोणाचार्य को उनके पुत्र की मृत्यु का विश्वास दिलाया था, इसीलिये तुम्हें भी छल से ही नरक दिखलाया गया है। तुम्हारे पक्ष के जितने राजा युद्ध में मारे गये हैं, वे सभी स्वर्गलोक में पहुँचे हुए हैं।
महान् धनुर्धर तथा शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ कर्ण भी, जिनके लिये तुम सदा दुःखी रहते हो, उत्तम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं। तुम्हारे दूसरे भाई तथा पाण्डव पक्ष के अन्य राजा भी अपने-अपने योग्य स्थान को प्राप्त हुए हैं। उन सबको चलकर देखो और अपनी मानसिक चिन्ता का त्याग कर मेरे साथ स्वर्ग में विहार करो। अपने किये हुए पुण्यकर्म, तप और दान के फल भोगो। राजसूय यज्ञ द्वारा जीते हुए समृद्धिशाली लोकों को स्वीकार करो और अपनी तपस्या का महान् फल भोगो।
युधिष्ठिर! तुम्हें प्राप्त हुए सम्पूर्ण लोक राजा हरिश्चन्द्र के लोकों की भाँति सब राजाओं के लोकों से ऊपर हैं, उन्हीं में तुम विचरण करोगे। जहाँ राजर्षि मान्धाता, राजा भगीरथ और दुष्यन्त कुमार भरत गये हैं, उन्हीं लोकों में निवास करके तुम भी दिव्य सुख का उपभोग करोगे।
महाराज ! वह देखो, त्रिभुवन को पवित्र करने वाली देवनदी मन्दाकिनी सामने ही दिखायी दे रही हैं; उनके पवित्र जल में स्नान करके तुम दिव्य लोकों में जा सकोगे। वहाँ गोता लगाते ही तुम्हारा मानव स्वभाव दूर हो जायगा, तुम्हारे मन के शोक सन्ताप, ग्लानि और वैर आदि सभी दोष मिट जायँगे।’
देवराज की बात समाप्त होने पर शरीर धारण करके आये हुए साक्षात् धर्म ने कहा–‘बेटा! तुम्हारे धर्मविषयक अनुराग, सत्यभाषण, क्षमा और इन्द्रिय-संयम आदि गुणों के कारण मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ।
यह मेरे द्वारा तीसरी बार तुम्हारी परीक्षा हुई है। किसी भी युक्ति से कोई तुम्हें अपने स्वभाव से विचलित नहीं कर सकता। द्वैतवन में अरणी-काष्ठ का अपहरण करने के पश्चात् जब यक्ष के रूप में मैंने तुमसे कई प्रश्न किये थे, वह तुम्हारी पहली परीक्षा थी; उसमें तुम भलीभाँति उत्तीर्ण हो गये।
फिर द्रौपदी सहित तुम्हारे सब भाइयों की मृत्यु हो जाने पर कुत्ते का रूप धारण करके मैंने दूसरी बार तुम्हारी परीक्षा ली थी, उसमें भी तुम्हें सफलता मिली। यह तुम्हारी परीक्षा का तीसरा अवसर था; किन्तु इस बार भी तुम अपने सुख की परवा न करके भाइयों के हित के लिये नरकमें रहना चाहते थे, अतः तुम हर तरह से शुद्ध प्रमाणित हुए।
तुममें पाप का नाम भी नहीं है, इसलिये स्वर्ग का सुख भोगो। तुम्हारे भाई नरक के योग्य नहीं हैं। तुमने जो उन्हें नरक भोगते देखा है, वह देवराज इन्द्र द्वारा प्रकट की हुई माया थी। अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव और सत्यवादी शूरवीर कर्ण तथा राजकुमारी द्रौपदी–इनमें से कोई भी नरक में जाने योग्य नहीं है। भरतश्रेष्ठ ! आओ, अब मेरे साथ चलकर त्रिलोकगामिनी गंगाजी का दर्शन करो।’
जनमेजय! धर्म के यों कहने पर तुम्हारे पूर्वपितामह राजर्षि युधिष्ठिर ने धर्म तथा समस्त स्वर्गवासी देवताओं के साथ जाकर मुनिजनवन्दित परम पावन देवनदी गंगाजी में स्नान किया। स्नान करते ही उन्होंने मानव शरीर का त्याग करके दिव्य देह धारण कर लिया। उनके हृदय का शोक सन्ताप और वैर- भाव जाता रहा।
तत्पश्चात् वे देवताओं से घिरकर महर्षियों से स्तुति सुनते हुए धर्म के साथ-साथ उस स्थान को गये, जहाँ उनके चारों भाई पाण्डव और धृतराष्ट्र के पुत्र क्रोध त्यागकर आनन्द पूर्वक निवास करते थे।
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वैशम्पायनजी कहते हैं–‘राजन् ! तदनन्तर देवताओं, ऋषियों और मरुद्गणों के मुख से अपनी प्रशंसा सुनते हुए राजा युधिष्ठिर क्रमशः उस स्थान पर जा पहुँचे, जहाँ कुरुश्रेष्ठ भीमसेन आदि विराजमान थे–वह भगवान्‌ का परम धाम था।
वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण अपना ब्राह्मविग्रह धारण किये विराजमान हैं। उनका स्वरूप अपने पूर्व विग्रह के ही समान है; अतः पहले की देखी हुई समानताओं के कारण वे अनायास ही पहचाने जा रहे हैं। उनके श्रीविग्रह से दिव्य ज्योति छिटक रही है। चक्र आदि भयंकर दिव्यास्त्र देवताओं के से शरीर धारण करके सेवा में उपस्थित हैं।
अत्यन्त तेजस्वी वीरवर अर्जुन भगवान्‌ की आराधना में लगे हुए हैं। देवपूजित भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन ने भी युधिष्ठिर को उपस्थित देख उनका यथावत् सम्मान किया। इसके बाद दूसरी ओर दृष्टि डालने पर युधिष्ठिर ने शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ कर्ण को बारह आदित्यों के समान तेजोमय स्वरूप धारण किये विराजमान देखा।
दूसरे स्थान में भीमसेन दिखायी पड़े जो पहले के ही समान शरीर धारण किये मूर्तिमान् वायु देवता के पास बैठे थे। उनके चारों ओर मरुद्गण दिखायी दे रहे थे और उनका दिव्य विग्रह उत्तम कान्ति से देदीप्यमान हो रहा था। उन्हें भी बड़ी भारी सिद्धि प्राप्त हुई थी। नकुल और सहदेव अश्विनीकुमारों के साथ बैठे थे। वे दोनों भाई अपने दिव्य तेज से उद्दीप्त दिखायी पड़ते थे।
तत्पश्चात् देवराज इन्द्र ने कहा–‘युधिष्ठिर! ये जो लोककमनीय विग्रह से युक्त पवित्र गन्धवाली देवी दिखायी दे रही हैं, साक्षात् भगवती लक्ष्मी हैं। ये ही तुम्हारे लिये मनुष्यलोक में जाकर अयोनिसम्भूता द्रौपदी के रूप में अवतीर्ण हुई थीं। स्वयं भगवान् शंकर ने तुम लोगों की प्रसन्नता के लिये इन्हें प्रकट किया था और इन्होंने ही द्रुपद के कुल में जन्म धारण कर तुम लोगों की सेवा की थी।
इधर ये अग्नि के समान तेजस्वी पाँच गन्धर्व दिखायी दे रहे हैं, जो तुम लोगों के वीर्य से उत्पन्न हुए द्रौपदी के पाँच पुत्र थे। इन परम बुद्धिमान् गन्धर्वराज धृतराष्ट्र का दर्शन करो, ये ही तुम्हारे पिता के बड़े भाई थे। वह देखो, तुम्हारे बड़े भाई कर्ण सूर्य के साथ जा रहे हैं। उस ओर वृष्णि, अन्धक और भोजवंश के सात्यकि आदि महारथियों तथा महाबली वीरों को देखो; वे साध्यों, विश्वेदेवों तथा मरुद्गणों में विराजमान हैं।
जिसे युद्ध में कोई भी परास्त नहीं कर सकता था, उस महान् धनुर्धर सुभद्रा कुमार अभिमन्यु की ओर दृष्टि डालो। वह चन्द्रमा के साथ उन्हीं के समान कान्ति धारण किये बैठा है। इधर देखो, कुन्ती और माद्री के साथ तुम्हारे पिता राजा पाण्डु विराजमान हैं। ये विमान पर बैठकर सदा मेरे पास आया करते हैं। शान्तनुनन्दन भीष्म वसुओं के साथ और तुम्हारे गुरु द्रोणाचार्य बृहस्पति के पास बैठे हैं–इन दोनों का दर्शन करो।
ये तुम्हारे पक्ष में युद्ध करने वाले दूसरे दूसरे राजा गन्धर्वों, यक्षों और पुण्यजनों के साथ जा रहे हैं। किन्हीं किन्हीं को गुह्यकों का लोक प्राप्त हुआ है। ये सब युद्ध में शरीर त्यागकर अपनी पवित्र वाणी, बुद्धि और कर्मों के द्वारा स्वर्गलोक पर अधिकार प्राप्त कर चुके हैं।’
जनमेजय ने पूछा–‘ब्रह्मन् ! भीष्म, द्रोण, राजा धृतराष्ट्र, विराट, द्रुपद, शंख, उत्तर, धृष्टकेतु और शकुनि आदि तथा तेजस्वी शरीर धारण करने वाले अन्यान्य राजा स्वर्गलोक में कितने समय तक एक साथ रहे ? उन्हें वहाँ सनातन स्थान की प्राप्ति हुई अथवा वे और किसी गति को प्राप्त हुए ? मैं आपके मुँह से इस वृत्तान्त को सुनना चाहता हूँ।’
वैशम्पायनजी ने कहा–‘राजन् ! यह देवताओं का गूढ़ रहस्य है, तुम्हारे पूछने पर इसे बता रहा हूँ। जिनकी बुद्धि अगाध है, जो सब कर्मों की गति को जानने वाले और सर्वज्ञ हैं, उन महान् व्रतधारी पुरातन मुनि पराशरनन्दन व्यासजी ने मुझसे यही कहा है कि वे सभी वीर अन्ततोगत्वा अपने मूलस्वरूप में ही मिल गये थे।
महातेजस्वी भीष्म वसुओं के स्वरूप में प्रविष्ट हो गये, तभी आठ ही वसु उपलब्ध होते हैं (अन्यथा भीष्मजी को लेकर नौ वसु हो जाते)। आचार्य द्रोण ने बृहस्पति में प्रवेश किया, कृतवर्मा मरुद्गणों में मिल गया, प्रद्युम्न जैसे आये थे, उसी प्रकार सनत्कुमार के शरीर में प्रविष्ट हो गये।
धृतराष्ट्र को कुबेर के दुर्लभ लोकों की प्राप्ति हुई, यशस्विनी गान्धारीदेवी भी उनके साथ ही गयीं। राजा पाण्डु अपनी दोनों पत्नियों के साथ इन्द्र भवन में चले गये। विराट, द्रुपद, धृष्टकेतु, निशठ, अक्रूर, साम्ब, भानु, कम्प, विदूरथ, भूरिश्रवा, शल, भूरि, कंस, उग्रसेन, वसुदेव, उत्तर और शंख–ये विश्वेदेवों में मिल गये।
चन्द्रमा के महातेजस्वी पुत्र वर्चा ही नरश्रेष्ठ अर्जुन के पुत्र होकर अभिमन्यु नाम से विख्यात हुए थे। उन्होंने क्षत्रियधर्म के अनुसार ऐसा युद्ध किया था, जिसकी कहीं तुलना नहीं थी। वे धर्मात्मा महारथी अभिमन्यु अपने अवतार का कार्य पूरा करके चन्द्रमा में प्रविष्ट हो गये।
कुरुश्रेष्ठ कर्ण ने सूर्य में, शकुनि ने द्वापर में और धृष्टद्युम्न ने अग्नि के स्वरूप में प्रवेश किया। धृतराष्ट्र के सब पुत्र महाबली यातुधानों (राक्षसों) में मिल गये। विदुर और राजा युधिष्ठिर ने धर्म का सायुज्य प्राप्त किया। जो ब्रह्माजी के अनुरोध से अपनी योगशक्ति का आश्रय लेकर इस पृथ्वी को धारण किये रहते हैं, वे भगवान् अनन्त (बलरामजी) रसातल में चले गये।
जो सनातन देवाधिदेव नारायण के नाम से प्रसिद्ध हैं, उन्हीं के अंश से भगवान् श्रीकृष्ण का अवतार हुआ था। अवतार का प्रयोजन पूर्ण कर लेने पर वे भी अपने मूल स्वरूप में स्थित हो गये। श्रीकृष्ण की सोलह हजार स्त्रियाँ अवसर पाकर सरस्वती नदी में कूद पड़ीं और अपना भौतिक शरीर त्यागकर अप्सराओं के रूप में भगवान् की सेवा में उपस्थित हो गयीं।
इस प्रकार महाभारत युद्ध में मरे हुए वीर महारथी अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार देवताओं और यक्षों में मिल गये। कोई इन्द्र के भवन में पहुँचा और कोई कुबेर के। कितने ही महापुरुष वरुणलोक को प्राप्त हुए।
जनमेजय! इस प्रकार कौरव और पाण्डवों का सारा चरित्र मैंने तुम्हें विस्तार के साथ सुना दिया।’
सौति कहते हैं–‘द्विजवरो! महाराज जनमेजय अपने यज्ञ में वैशम्पायनजी के मुख से इस प्रकार महाभारत इतिहास सुनकर बड़े विस्मित हुए। तदनन्तर यज्ञ कराने वाले ब्राह्मणों ने शेष कार्य पूरा करके उस यज्ञ को समाप्त किया। सर्पों को संकट से छुड़ाकर आस्तीक मुनि को भी बड़ी प्रसन्नता हुई।
राजा ने यज्ञकर्म में सम्मिलित हुए समस्त ब्राह्मणों को पर्याप्त दक्षिणा देकर सन्तुष्ट किया तथा वे ब्राह्मण भी राजा से यथोचित सम्मान पाकर अपने-अपने घर गये। उन्हें विदा करके राजा भी तक्षशिला से हस्तिनापुर को चले गये।
इस प्रकार जनमेजय के सर्पयज्ञ में व्यासजी की आज्ञा से मुनिवर वैशम्पायनजी ने जो इतिहास सुनाया था, उसका मैंने आप लोगों के समक्ष वर्णन किया। यह पुण्यमय इतिहास बड़ा ही पवित्र और उत्तम है।
सत्यवादी, सर्वज्ञ, विधि विधान के ज्ञाता, धर्मज्ञ, साधु, इन्द्रियसंयमी, शुद्ध, तप के प्रभाव से पवित्र अन्तःकरण वाले, सांख्य एवं योग के विद्वान् तथा अनेकों शास्त्रों के पारदर्शी मुनिवर व्यासजी ने दिव्य दृष्टि से देखकर महात्मा पाण्डवों तथा अन्य तेजस्वी राजाओं की कीर्ति का प्रसार करने के लिये इस इतिहास की रचना की है।
जो विद्वान् प्रत्येक पर्व पर इसे दूसरों को सुनाता है, उसके सारे पाप धुल जाते हैं। वह स्वर्ग पर अधिकार तथा ब्रह्मभाव को प्राप्त होने की योग्यता हासिल कर लेता है। श्रीकृष्णद्वैपायन द्वारा प्रकट होने के कारण यह उपाख्यान ‘कार्ष्ण वेद’ के नाम से प्रसिद्ध है।
जो एकाग्रचित्त होकर इस सम्पूर्ण ग्रन्थ का श्रवण करता है, उसके ब्रह्महत्या आदि करोड़ों पापों का नाश हो जाता है। जो श्राद्ध कर्म में ब्राह्मणों को महाभारत का थोड़ा सा अंश भी सुना देता है, उसका दिया हुआ अन्न-पान अक्षय होकर पितरों को प्राप्त होता है।
मनुष्य अपनी इन्द्रियों अथवा मन से दिन भर में जो पाप करता है, वह सायंकाल की संध्या के समय महाभारत का पाठ करने से छूट जाता है और रात्रि के समय उससे जो पाप हो जाते हैं, उनसे प्रातः काल की संध्या के समय महाभारत का पाठ करने पर छुटकारा मिल जाता है।
इस ग्रन्थ में भरतवंशियों के महान् जन्म-कर्म का वर्णन है, इसलिये इसे ‘महाभारत’ कहते हैं। महान् और भारी होने के कारण भी इसका नाम ‘महाभारत’ हुआ है। जो महाभारत की व्युत्पत्ति को समझ लेता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है। वेदविद्या के महासागर एवं अठारह पुराणों के निर्माता महर्षि वेदव्यास की सिंहगर्जना सुनो।
वेदव्यासजी कहते हैं–‘अठारह पुराण, सम्पूर्ण धर्मशास्त्र और छहों अंगों सहित चारों वेद एक ओर तथा केवल महाभारत दूसरी ओर; यह अकेला ही उन सबके बराबर है।’
मुनिवर भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन ने तीन वर्षों में समस्त महाभारत को पूर्ण किया था। जो ‘जय’ नामक इस महाभारत इतिहास को सदा भक्ति पूर्वक सुनता रहता है, उसे श्री, कीर्ति तथा विद्या की प्राप्ति होती है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के विषय में जो कुछ महाभारत में कहा गया है, वही अन्यत्र है। जो इसमें नहीं है, वह कहीं नहीं है।
मोक्ष की इच्छा रखने वाले ब्राह्मण और क्षत्रिय को तथा गर्भिणी स्त्री को भी इस ‘जय’ नामक इतिहास का श्रवण करना चाहिये। महाभारत का श्रवण या पाठ करने वाला मनुष्य यदि स्वर्ग की इच्छा करे तो उसे स्वर्ग मिलता है और युद्ध में विजय पाना चाहे तो विजय मिलती है।
इसी प्रकार गर्भिणी स्त्री को महाभारत के श्रवण से सुयोग्य पुत्र या सौभाग्य शालिनी कन्या की प्राप्ति होती है। नित्यमुक्तस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन ने धर्म की कामना से इस भारत संदर्भ की रचना की है।
पहले उन्होंने साठ लाख श्लोकों की महाभारत-संहिता बनायी थी; उसमें से तीस लाख श्लोकों की संहिता का देवलोक में प्रचार हुआ, पन्द्रह लाख की दूसरी संहिता पितृलोक में प्रचलित हुई, चौदह लाख श्लोकों की तीसरी संहिता का यक्ष-लोक में आदर हुआ तथा एक लाख श्लोकों की चौथी संहिता मनुष्यलोक में प्रतिष्ठित हुई।
देवताओं को देवर्षि नारद ने, पितरों को असित देवल ने, यक्ष और राक्षसों को शुकदेवजी ने और मनुष्यों को वैशम्पायनजी ने ही पहले-पहल महाभारत संहिता सुनायी है।
शौनकजी ! जो मनुष्य ब्राह्मणों को आगे करके गम्भीर अर्थ से परिपूर्ण और वेद की समानता करने वाले इस व्यास-प्रणीत पवित्र इतिहास का श्रवण करता है, वह इस जगत् में सारे मनोवांछित भोगों और उत्तम कीर्ति को पाने के साथ ही परम सिद्धि को प्राप्त कर लेता है–इस विषय में मुझे तनिक भी सन्देह नहीं है।
जो अत्यन्त श्रद्धा और भक्ति के साथ महाभारत के एक अंश को भी सुनता या दूसरों को सुनाता है, उसे सम्पूर्ण महाभारत के अध्ययन का पुण्य प्राप्त होता है और उस पुण्य के प्रभाव से उसको उत्तम सिद्धि मिलती है।
जिन भगवान् व्यास ने इस पवित्र संहिता को प्रकट करके अपने पुत्र शुकदेवजी को पढ़ाया था, वे महाभारत के सारभूत उपदेश का इस प्रकार वर्णन करते हैं–‘मनुष्य इस जगत् में हजारों माता-पिताओं तथा सैकड़ों स्त्री-पुत्रों के संयोग-वियोग का अनुभव कर चुके हैं, करते हैं और करते रहेंगे। अज्ञानी पुरुष को प्रतिदिन हर्ष के हजारों और भय के सैकड़ों अवसर प्राप्त होते हैं; किन्तु विद्वान् पुरुष के मन पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
मैं दोनों हाथ ऊपर उठाकर पुकार पुकारकर कह रहा हूँ, पर मेरी बात कोई नहीं सुनता। धर्म से मोक्ष तो सिद्ध होता ही है, अर्थ और काम भी सिद्ध होते हैं तो भी लोग उसका सेवन क्यों नहीं करते। कामना से, भय से, लोभ से अथवा प्राण बचाने के लिये भी धर्म का त्याग न करे। धर्म नित्य है और सुख-दुःख अनित्य। इसी प्रकार जीवात्मा नित्य है और उसके बन्धन का हेतु अनित्य।।’
यह महाभारत का सारभूत उपदेश भारत-सावित्री के नाम से प्रसिद्ध है। जो प्रतिदिन सबेरे उठकर इसका पाठ करता है, वह सम्पूर्ण महाभारत के अध्ययन का फल पाकर परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।
जैसे समुद्र और हिमालय पर्वत दोनों ही रत्नों की निधि माने गये हैं, उसी प्रकार महाभारत भी नाना प्रकार के उपदेशमय रत्नों का भंडार कहलाता है। जो विद्वान् श्रीकृष्णद्वैपायन के द्वारा प्रसिद्ध किये गये इस महाभारतरूप पंचम वेद को सुनाता है उसे अर्थ की प्राप्ति होती है। जो एकाग्रचित्त होकर इस भारत-उपाख्यान का पाठ करता है, वह मोक्षरूप परम सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। इस विषय में मेरे मन में तनिक भी सन्देह नहीं है।

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